कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम २०१३ [भाग 3]-कैसे करती है २०१३ के अधिनियम के तहत ICC/LCC काम

सुरभि करवा

4 Jun 2019 6:25 AM GMT

  • कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम २०१३ [भाग 3]-कैसे करती है २०१३ के अधिनियम के तहत ICC/LCC काम

    पिछले भाग में हमने २०१३ के अधिनियम के तहत दो तरह की समितियों के बारे में जाना जो लैंगिक अपराध के मामलों में जांच कर एक्शन लेने का कार्य करती है. जहाँ असंगठित क्षेत्र में यौन शोषण की शिकायतें मुख्यत: लोकल कंप्लेंट कमिटी द्वारा सुनी जाती है जिसे जिला प्रशासन द्वारा स्थापित किया जाता है वही संगठित क्षेत्रों के लिए सम्बंधित नियुक्ता (employer) अपनी संस्था में ही एक कमिटी का गठन करता है जिसे आतंरिक परिवाद कमिटी या ICC कहा जाता है. आज हम जानेंगे कि इन समितियों का क्या अधिकार क्षेत्र है और वे किस तरह लैंगिक हिंसा के मामलों में एक्शन लेती है.

    शिकायत कब और कैसे की जाती है?

    अधिनियम की धारा ९ के तहत पीड़ित महिला लिखित में अपनी शिकायत दे सकती है. अगर वह स्वयं शिकायत करने में असमर्थ है तो कमेटी का कर्तव्य है कि पीड़ित महिला को जरुरी सहायता प्रदान करें. अधिनियम के तहत पारित किये गए रूल्स के अनुसार महिला की कोई सहकर्मी, उसका कोई मित्र, उसका कानूनी वारिस महिला आयोग आदि भी कुछ मामलों में शिकायत कर सकते है अगर पीड़ित महिला शारीरिक/मानसिक कारणों या किसी अन्य कारण की वजह से शिकायत करने में असमर्थ हो. (२०१३ के एक्ट के तहत बनाये गए नियमों में नियम संख्या ६ के अनुसार)

    शिकायत के सन्दर्भ में गौरतलब है कि लैंगिक हिंसा की शिकायत घटना घटित होने के ३ माह के भीतर की जानी चाहिए. और अगर हिंसा एक से अधिक बार हुई है तो आखिर बार हुई हिंसा के ३ महीनों के भीतर शिकायत करनी होगी अन्यथा मामले पर एक्शन नहीं ले सकेंगी. पर अगर को लगता है कि पीड़ित महिला परिस्थितियों के चलते शिकायत न कर सकी तो कमिटी ३ माह तक शिकायत करने का समय बढ़ा सकती है.

    इस नियम को जानकारों ने मुनासिब नहीं पाया है. यह नियम बिना वजह महिलाओं को अपनी शिकायत पेश करने से रोकता है. उन मामलों में जहाँ गलत करने वाला महिला से ऊँची पोस्ट पर हो, पीड़ित महिला शायद ३ माह के कम वक़्त में अपनी शिकायत न कर पाए और ऐसे में महिला को न्याय न मिल सके.

    शिकायत दायर करते समय महिला को निम्नलिखित कागज़ात साथ में देने होंगे-

    १. शिकायत की ६ कॉपियाँ

    २. मामले से सम्बंधित दस्तावेज

    ३. गवाहों का नाम और पता.

    शिकायत पर किस तरह कार्यवाही की जाती है?

    शिकायत पर सर्विस रूल्स के तहत कार्यवाही की जाती है, जहाँ सर्विस रूल्स न हो, वहाँ २०१३ के अधिनियम के तहत बनाए गए नियमों के अनुसार कार्यवाही की जाती है-

    १. शिकायत मिलने पर शिकायत की एक कॉपी प्रतिवादी को ७ वर्किंग दिनों में भेजी जाती है.

    २. प्रतिवादी अगले १० दिनों में अपना जवाब, अपना पक्ष रखने के लिए सम्बंधित दस्तावेज, अपनी ओर से गवाहों का नाम भेजता है.

    ३. इसके बाद दोनों पक्ष अपनी ओर से साक्ष्य प्रस्तुत करते है. दोनों पार्टियाँ एक दूसरे के गवाहों को क्रॉस-एक्सामिन कर सकती है.

    ४. दोनों ओर से साक्ष्यों की प्रस्तुति के बाद अगले १० दिन में कमिटी अपनी रिपोर्ट नियोक्ता या डिस्ट्रिक्ट ऑफिसर को पेश करेगी कि क्या यौन शोषण साबित हुए या नहीं और साथ ही अपने निर्णयों का काऱण भी बताएगी.

    सारी प्रक्रिया की प्रमुख बात यह कि कमिटी को हमेशा नेचुरल जस्टिस के सिद्धांतों के अनुसार ही कार्यवाही करनी चाहिए.

    इस पूरी कार्यवाही के दौरान कमिटी को किसी भी व्यक्ति को समन करने के लिए, मामले से सम्बंधित जरुरी कागज़ात पेश करवाने के लिए सिविल कोर्ट के समान शक्तियाँ दी गयी है.

    कमिटी के कार्यवाही के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण बिंदु –

    1. जाँच के लंबित होने के दौरान महिला की लिखित एप्लीकेशन पर कमिटी नियोक्ता को निम्नलिखित एक्शन लेने का सुझाव दे सकती है-

    १. महिला या प्रतिवादी को किसी दूसरे कार्यस्थल पर ट्रांसफर करना।

    २. पीड़ित महिला को ३ माह का अवकाश देनाl

    २०१३ के नियमों के तहत नियम ८ में दो और अंतरिम रिलीफ महिला के लिए बताये गए है-

    १. प्रतिवादी को महिला की किसी भी परफॉरमेंस रिपोर्ट, कॉन्फिडेंटिअल रिपोर्ट बनाने से प्रतिबंधित करना.

    २. विश्व-विद्यालयों में प्रतिवादी को महिला छात्रा की किसी भी तरह की अकादमिक गतिविधि का निरीक्षण करने से रोक.

    2. कमिटी की कार्यवाही के दौरान किसी भी पार्टी को वकील पेश करने का हक़ नहीं हैं.

    3. यह जरुरी है कि कमिटी की कार्यवाही के दौरान चेयरपर्सन सहित कम से कम ३ कमिटी सदस्य अवश्य होने चाहिए.

    शोषण साबित होने पर कमिटी अपनी रिपोर्ट में क्या-क्या सुझाव दे सकती है?

    कमिटी सम्बंधित सर्विस रूल्स के आधार पर ही उस व्यक्ति के खिलाफ एक्शन सुझा सकती है जिसके खिलाफ शोषण का मामला साबित हुआ है. २०१३ के अधिनियम और नियमों के तहत कुछ एक्शन बताये गए है पर वे तभी लिए जा सकते है जब वे सर्विस रूल्स के खिलाफ न हो. ये एक्शन कुछ इस प्रकार से है -

    1. लिखित में माफ़ीl

    २. काउंसलिंग l

    ३. कम्युनिटी सर्विसl

    ४. प्रमोशन या सैलरी में वृद्धि रोक देना.

    ५. सर्विस का टर्मिनेशन.

    ६. मुआवज़ा - अधिनियम की धारा १३ के तहत पीड़ित महिला को निम्नलिखित नुकसानों के लिए मुआवज़ा भी दिया जा सकता है यह मुआवज़ा धारा १५ के तहत निम्नलिखित बातों को ध्यान में रख कर दिया जाता है-

    १. पीड़ित महिला द्वारा झेला गया मानसिक स्ट्रेस, ट्रॉमा।

    २. शारीरिक और मानसिक नुक्सान के लिए उठाया गया मेडिकल खर्चा.

    ३. यौन शोषण के कारण हुआ करियर में नुक्सान.

    ४. प्रतिवादी की आर्थिक स्थिति.

    इन बातों को ध्यान में रख कर कमिटी यह सुझाव दे सकती है कि प्रतिवादी की सैलरी से कितना पैसा मुआवज़ा देने के लिए काटा जाए.

    कमिटी के निर्णय के बाद आगे क्या होता है?

    कमिटी के आर्डर, आर्डर नहीं है, बल्कि वो सुझाव मात्र है. कमिटी के प्रोसीडिंग और उसका निर्णय एक कोर्ट के आर्डर के समान, बाध्य नहीं है. कमिटी मात्र नियोक्ता को सुझाव दे सकती है कि यौन शोषण का मामला साबित हुआ या नहीं और उस पर क्या एक्शन संभव हैl नियोक्ता या डिस्ट्रिक्ट ऑफिसर कमिटी की रिपोर्ट को खारिज भी कर सकते है और रिपोर्ट पर एक्शन लेने से भी मना कर सकते है. कमिटी स्वयं कोई एक्शन नहीं ले सकती है.

    सुलह-

    अधिनियम की धारा १० के तहत मामला 'सुलह' से भी हल किया जा सकता है. अगर पीड़ित महिला के स्वयं के सुझाव पर जहाँ वह बिना किसी भय या दबाव के समझौता हुआ हो, तब मामले में आगे किसी तरह की जाँच नहीं की जायेगी। दो बातें यहाँ गौरतलब है कि-

    1. कोई भी समझौता आर्थिक लेन- देन के आधार पर नहीं किया जा सकता.
    2. और दूसरा समझौते के लिए पहल पीड़ित महिला ही कर सकती है, कमिटी महिला को समझौते का सुझाव नहीं दे सकती.

    दोनोँ पार्टियों के बीच सुलह हो जाने पर कमिटी समझौते की बात को रिकॉर्ड करेगी और उसकी रिपोर्ट डिस्ट्रिक्ट ऑफिसर या नियोक्ता को फॉरवर्ड करेगी. पर अगर प्रतिवादी समझौते की शर्तों को तोड़ता है तो उस पर पुन: कार्यवाही शुरू की जा सकती है.

    इस प्रोविजन की जानकारों ने आलोचना की है. यह नियम इस बात को बिलकुल नज़रअंदाज़ कर देता है कि महिलाओं के मूल अधिकार कोई सुलह की वस्तु नहीं है. यह बहुत संभव है कि सुलह के नाम पर पीड़ित महिला को जबरन समझौता करना पड़े.

    मिथ्या और द्वेषपूर्ण परिवाद के लिए दंड

    अधिनियम की धारा १४ के तहत अगर कोई महिला झूठी या द्वेषपूर्ण शिकायत करती है तो वह भी आरोपी के समान दंड की हक़दार होगी. धारा १४ यह स्पष्ट करती है कि हर वह शिकायत जो सबूतों के अभाव में साबित नहीं की जा सकी उसे 'झूठी' या 'द्वेषपूर्ण' शिकायत नहीं कहा जा सकता, कमिटी पहले यह जांच करेगी और फिर ही इस निष्कर्ष पर पहुंचेगी कि शिकायत झूठी थी या नहीं.

    पर इस स्पष्टीकरण के बावजूद इस प्रावधान की निंदा की गयी है क्योंकि यह प्रावधान भी महिलाओं को आगे आकर शिकायत करने से रोकता है. यह भी सवाल है कि कहाँ तक समितियां यह अंतर कर पाती है जबकि समाज में कार्यक्षेत्र में महिलाऐं आज भी भारी भेदभाव झेलती है.

    गोपनीयता

    अधिनियम की धारा १६ के तहत कोई भी व्यक्ति जो किसी भी रूप में मामले की कार्यवाही से जुड़ा है वह मामले से सम्बंधित कोई भी जानकारी ( जैसे पीड़ित महिला का नाम और पता, प्रतिवादी का नाम और पता, गवाहों का नाम , समिति द्वारा उठाये गए कदम , समझौता कार्यवाही) प्रकशित नहीं कर सकता. सभी सम्बंधित व्यक्तियों को समस्त बातें गुप्त रखनी होगी. अगर इन प्रावधानों का उल्लंघन किया जाता है तो कसूरवार व्यक्ति जुर्माना भरने के लिए बाध्य होगा (अधिनियम की धारा १७).

    इस तरह हमने पिछले तीन लेखों में कार्यस्थल पर यौन शोषण और उससे सम्बंधित कानून को समझने का प्रयास किया। #MeToo आंदोलन में जहाँ यौन शोषण को रोकने में कानून की पहुँच और उसके प्रभावी उपयोग पर सवालिया निशान लगा है, यह जानना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता कि इस सम्बन्ध में कानून क्या है और उसकी क्या कमियां है.

    हमने अपने पहले लेख में सबसे पहले यह जानने का प्रयास किया कि यौन शोषण सिर्फ एक बार हुआ गलत व्यवहार नहीं है, बल्कि वह महिलाओं के मूल अधिकारों से सीधे--सीधे जुड़ा हुआ मुद्दा है.

    हमने पहले भाग में यह भी समझने का प्रयास किया कि यौन शोषण क्या है. और हमने देखा कि इस सवाल का कोई सीधा-सीधा जवाब नहीं है, मूलभूत बात यह है कि एक महिला की क्या व्यैक्तिक सीमाएं है, और क्या व्यवहार उसे असहज महसूस होता है.

    दूसरे लेख में हमने यह देखा कि २०१३ के अधिनियम ने दो तरह की समितियों की मशीनरी बनायी गयी है ताकि कोई भी वर्किंग वीमेन इस अधिनियम से बाहर न हो, फिर चाहे वह संगठित क्षेत्र में हो या असंगठित क्षेत्र में. इस सम्बन्ध में जहाँ असंगठित क्षेत्र में यौन शोषण की शिकायतें मुख्यत: लोकल कंप्लेंट कमिटी द्वारा सुनी जाती है जिसे जिला प्रशासन द्वारा स्थापित किया जाता है वही संगठित क्षेत्रों के लिए सम्बंधित नियुक्ता (employer) अपनी संस्था में ही एक कमिटी का गठन करता है जिसे आतंरिक परिवाद कमिटी या ICC कहा जाता है.

    तीसरे लेख में हमने के समक्ष चलने वाली कार्यवाही को समझने का प्रयास किया और देखा कि इंटरनल कमिटी मात्र आतंरिक रूप से अनुशासनात्मक एक्शन लेने के लिए बनाई गयी कमिटी है. उसके पास स्वयं एक्शन लेने की कोई शक्तियां नहीं है, पीड़ित महिला के पास क्रिमिनल लॉ के तहत एक्शन लेने का हक़ है.

    दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि २०१३ का अधिनियम प्रभावी रूप से लागू नहीं किया जा सका है. संगठित क्षेत्रों में भी कई स्थानों पर ICC नहीं बनायी गयी है. और दूसरी तरफ असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं के लिए तो इस कानून की पहुँच अभी भी दूर है. यह अपने आप में हमारे सिस्टम के बारे में बहुत कुछ कह जाता है कि भंवरी देवी के साथ हुए अपराध में, जिसके द्वारा अंतत: यह कानून आया, आज भी न्याय नहीं हो सका है.

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