[Dying Declaration] साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) अपवाद की प्रकृति की, इसका लाभ उठाने के इच्छुक पक्ष द्वारा परिस्थितियां स्थापित की जानी चाहिए: हाइकोर्ट

Amir Ahmad

31 May 2024 10:36 AM GMT

  • [Dying Declaration] साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) अपवाद की प्रकृति की, इसका लाभ उठाने के इच्छुक पक्ष द्वारा परिस्थितियां स्थापित की जानी चाहिए: हाइकोर्ट

    केरल हाइकोर्ट ने आपराधिक अपील पर विचार करते हुए कहा कि जब तक किसी मृत व्यक्ति का कथन साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) के दायरे में नहीं आता, तब तक उसे साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। कथन की स्वीकार्यता दो शर्तों पर निर्भर करती है, या तो कथन मृत्यु के कारण से संबंधित होना चाहिए या यह उस लेन-देन की किसी भी परिस्थिति से संबंधित होना चाहिए जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु हुई।

    हाइकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि जब तक अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर देता कि पीड़ित की मौत उसे लगी चोटों के कारण हुई, तब तक बयान को मृत्युपूर्व बयान नहीं माना जा सकता।

    उन्होंने कहा,

    “धारा 32(1) के प्रावधान अपवाद की प्रकृति के हैं और साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 द्वारा परिकल्पित अपवादों में से किसी के अंतर्गत आने वाली परिस्थितियों को स्थापित करने का दायित्व स्पष्ट रूप से उस पक्ष पर है जो उक्त बयान का लाभ उठाना चाहता है।”

    जस्टिस पी.बी. सुरेश कुमार और जस्टिस एम.बी. स्नेहलता ने पीठ के समक्ष आई आपराधिक अपील में यह टिप्पणी की। मामला यह था कि पीड़ित का अपनी पत्नी के साथ कुछ वैवाहिक कलह चल रहा था और वह अपनी पत्नी और बच्चे के मामलों की देखभाल नहीं कर रहा था। पहला आरोपी पीड़ित की पत्नी का भाई है। इस कारण से पहले आरोपी की पीड़ित से दुश्मनी थी। 27.11.2011 को पहले आरोपी ने दूसरे और तीसरे आरोपी, जो पहले आरोपी के रिश्तेदार हैं, उनके साथ मिलकर पीड़ित पर चाकू से हमला किया।

    05.05.2012 को उक्त घटना में लगी चोटों के कारण पीड़ित की मृत्यु हो गई। अभियोजन पक्ष ने मुकदमे के दौरान अपने साक्ष्य प्रस्तुत किए। अभियुक्त द्वारा कोई बचाव साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया। सत्र न्यायाधीश ने अभियुक्त को धारा 302 के तहत दंडनीय अपराध का दोषी पाया। अभियुक्त के वकील ने दिखाया कि जांच के दौरान अभियोजन पक्ष के सभी प्रत्यक्षदर्शी मुकर गए।

    पीड़ित की मां ने गवाही दी थी कि उसके बेटे ने उन तीन अभियुक्तों का नाम बताया था जिन्होंने उस पर हमला किया था। हालांकि क्रॉस एग्जामिनेशन के दौरान उसने कहा कि पुलिस को ऐसा कोई बयान नहीं दिया गया था। पीड़ित की पत्नी जो अभियोजन पक्ष की ओर से गवाह थी वह भी मुकर गई। उसने कहा कि उसके पति के साथ उसके सौहार्दपूर्ण संबंध थे। सरकारी अभियोजक ने तर्क दिया कि अस्पताल से प्राप्त केस शीट से पता चलता है कि पीड़ित की मृत्यु घटना में लगी चोटों के कारण हुई थी। हालांकि अभियुक्त के वकील ने तर्क दिया कि केस शीट की सामग्री साबित नहीं हुई है।

    न्यायालय ने अपीलकर्ता से सहमति जताते हुए कहा कि केस शीट की विषय-वस्तु को डॉक्टर/डॉक्टरों की जांच करके कानून के अनुसार साबित नहीं किया गया। पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर ने मृत्युपूर्व चोटों, पोस्टमार्टम निष्कर्षों और मौत के कारण के बारे में कुछ नहीं कहा। मुंशी प्रसाद एवं अन्य बनाम बिहार राज्य में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर भरोसा किया गया और न्यायालय ने कहा कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट ही ठोस साक्ष्य नहीं है। न्यायालय में डॉक्टर का बयान ही ठोस साक्ष्य की विश्वसनीयता रखता है।

    एकमात्र साक्ष्य पीड़ित का कथित बयान था जो पुलिस अधिकारियों को दिया गया था जब उसे जीप में अस्पताल ले जाया जा रहा था। इस साक्ष्य के आधार पर सत्र न्यायालय ने आरोपियों को दोषी ठहराया।

    हाइकोर्ट ने माना कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में असमर्थ था कि पीड़ित की मौत घटना के दौरान लगी चोटों के कारण हुई, इसलिए पीड़ित के बयान को साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) के तहत बयान नहीं माना जा सकता। इस प्रकार, सत्र न्यायालय के निष्कर्षों को पलट दिया गया।

    केस टाइटल- प्रदीप @ कन्नन बनाम केरल राज्य, बाबू और अन्य बनाम केरल राज्य

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