अनुच्छेद 21 के अधिकार मूल कर्तव्यों के पालन से जुड़े हैं: 2020 बेंगलुरु दंगों के मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट ने जमानत से किया इनकार
Amir Ahmad
29 Dec 2025 3:11 PM IST

कर्नाटक हाईकोर्ट ने वर्ष 2020 के बेंगलुरु दंगों से जुड़े मामले में आरोपी को जमानत देने से इनकार करते हुए महत्वपूर्ण टिप्पणी की कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त स्वतंत्रता का अधिकार तभी सार्थक होता है, जब व्यक्ति संविधान में निहित अपने मूल कर्तव्यों का पालन करता है। कोर्ट ने कहा कि केवल अधिकारों का दावा नहीं किया जा सकता बल्कि उनके साथ कर्तव्यों का निर्वहन भी अनिवार्य है।
जस्टिस के एस मुदगल और जस्टिस वेंकटेश नाइक टी की खंडपीठ ने कहा कि आरोपी अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का हवाला देकर जमानत मांग रहा है लेकिन यह अधिकार तभी प्राप्त होता है, जब वह संविधान के अनुच्छेद 51 क में निहित मूल कर्तव्यों का पालन करे। खंडपीठ ने महात्मा गांधी के विचारों का उल्लेख करते हुए कहा कि अधिकारों का वास्तविक स्रोत कर्तव्य हैं और जब कर्तव्यों का सही ढंग से निर्वहन किया जाता है, तभी अधिकार स्वतः प्राप्त होते हैं।
यह टिप्पणी अफजल बाशा द्वारा दायर अपील पर की गई, जिसमें उसने निचली अदालत द्वारा जमानत याचिका खारिज किए जाने को चुनौती दी थी। आरोपी का कहना था कि उसे झूठे मामले में फंसाया गया और वह लगभग पांच वर्षों से न्यायिक हिरासत में है, जबकि अब तक मुकदमे की सुनवाई शुरू नहीं हुई। उसने यह भी दलील दी कि सह-आरोपियों को जमानत दी जा चुकी है। उसकी मां कैंसर से पीड़ित है तथा पूरी तरह उसी पर निर्भर है।
राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) ने जमानत का विरोध करते हुए अदालत को बताया कि आरोपी की संलिप्तता के प्रथम दृष्टया पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हैं। एजेंसी ने कहा कि मुकदमे में देरी के लिए स्वयं आरोपी जिम्मेदार हैं और गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (UAPA) की संबंधित धारा के तहत जब प्रथम दृष्टया मामला बनता है तब जमानत नहीं दी जा सकती।
अदालत ने केस रिकॉर्ड का परीक्षण करते हुए पाया कि जांच एजेंसी ने आरोपी के कॉल विवरण रिकॉर्ड जुटाए, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि घटना के समय वह अन्य आरोपियों के संपर्क में था। मोबाइल टावर लोकेशन से उसकी उपस्थिति संबंधित थाना क्षेत्र में पाई गई। फॉरेंसिक जांच रिपोर्ट से यह भी सामने आया कि उसे एक सह-आरोपी से ऐसा मैसेज मिला था, जिसमें लोगों को थाने के पास एकत्र होने और हिंसा के लिए उकसाने की बात कही गई। कॉल रिकॉर्ड से यह भी पता चला कि घटना के दौरान आरोपी के मोबाइल पर कई कॉल्स का आदान-प्रदान हुआ।
कोर्ट ने यह भी नोट किया कि आरोपियों ने सुनवाई को जानबूझकर लंबित रखने की रणनीति अपनाई ताकि देरी को जमानत का आधार बनाया जा सके। अदालत के रिकॉर्ड से स्पष्ट हुआ कि बार-बार आवेदन दायर कर वकील बदलकर और अनुपस्थित रहकर कार्यवाही में बाधा डाली गई। कई मौकों पर गैर-जमानती वारंट और उद्घोषणा जारी करनी पड़ी।
खंडपीठ ने कहा कि जब देरी के लिए स्वयं आरोपी जिम्मेदार हैं तो वे उसी देरी का लाभ उठाकर जमानत नहीं मांग सकते। अदालत ने यह निष्कर्ष निकाला कि प्रथम दृष्टया यह सामने आता है कि आरोपी ने पुलिस थाने में तोड़फोड़, पुलिसकर्मियों पर हमला, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान और सांप्रदायिक सौहार्द को ठेस पहुंचाने जैसे कृत्यों में भाग लियाबजो मूल कर्तव्यों का उल्लंघन है।
इन सभी तथ्यों के आधार पर हाईकोर्ट ने जमानत से इनकार करते हुए कहा कि ट्रायल कोर्ट का आदेश कानूनन सही है और उसमें किसी प्रकार की त्रुटि नहीं है।

