हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने अस्पष्ट और अनिर्णायक जांच रिपोर्ट के आधार पर लगाई गई सजा को रद्द किया, कहा- दोष साबित न होने पर दंड नहीं दिया जा सकता
Amir Ahmad
24 Jun 2025 11:33 AM IST

हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने सरकारी डॉक्टर पर लगाई गई वेतन कटौती की सजा रद्द करते हुए कहा कि अस्पष्ट और अनिर्णायक जांच रिपोर्ट के आधार पर न तो सजा दी जा सकती है और न ही कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है।
जस्टिस विवेक सिंह ठाकुर और जस्टिस रंजन शर्मा की खंडपीठ ने कहा,
"जब जांच रिपोर्ट यह निष्कर्ष नहीं निकालती कि याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोप सिद्ध हुआ है तो उसे दंड देने का आधार नहीं बनाया जा सकता। इस प्रकार की अनिश्चित और अस्पष्ट रिपोर्ट को यह मानने का आधार नहीं बनाया जा सकता कि याचिकाकर्ता दोषी है, भले ही उसे सेवा नियमों के तहत जांच में कम प्रमाण के आधार पर दोषी ठहराना हो।"
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता डॉ. सुबाष ठाकुर, रामपुर स्थित सिविल अस्पताल में एनेस्थेटिस्ट के पद पर कार्यरत थे। जनवरी 2016 में उनके खिलाफ विभागीय जांच शुरू की गई। आरोप था कि उन्होंने एक अन्य सरकारी डॉक्टर को रामपुर के एक निजी अस्पताल में सर्जरी करने में सहायता की थी, जबकि उन्हें नॉन-प्रैक्टिस अलाउंस प्राप्त था, जिसके कारण उन्हें अन्यत्र प्रैक्टिस करने की अनुमति नहीं थी।
केन्द्र सरकार की सिविल सेवा नियमावली (1965) के तहत प्रारंभिक जांच की गई, जिसमें यह कहा गया कि डॉ. ठाकुर की उपस्थिति को निजी अस्पताल में पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। इसके आधार पर दो नर्सों के बयान का हवाला देते हुए उन्हें दोषी मानते हुए सरकार ने तीन साल के लिए एक वेतन वृद्धि घटा दी और इस अवधि में किसी प्रकार की वेतन वृद्धि रोक दी गई।
याचिकाकर्ता का पक्ष
डॉ. ठाकुर ने कहा कि जिस दिन उन्हें निजी अस्पताल में सर्जरी में सहयोग करने का आरोप है, उस दिन वे सरकारी अस्पताल में सर्जरी कर रहे थे। उन्होंने ऑपरेशन थिएटर रजिस्टर की प्रति पेश की। साथ ही, निजी अस्पताल की सहमति फॉर्म में उनका नाम एनेस्थेटिस्ट के रूप में नहीं था।
कोर्ट की टिप्पणियां
कोर्ट ने कहा कि विभागीय जांच में जिन दो नर्सों के बयानों को आधार बनाया गया, वे कभी जांच अधिकारी के समक्ष पेश नहीं की गईं और न ही उनका टेस्ट हुआ। उनके बयान सिर्फ फोटोकॉपी रूप में लगाए गए, जो किसी सक्षम गवाह द्वारा सत्यापित नहीं थे। इसलिए उन्हें प्रमाणिक साक्ष्य नहीं माना जा सकता।
याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तुत ऑपरेशन रजिस्टर से साफ था कि वे संबंधित समय पर सरकारी अस्पताल में मौजूद थे। वहीं, निजी अस्पताल के सहमति फॉर्म में भी उनका नाम नहीं था। जांच अधिकारी ने भी स्पष्ट रूप से नहीं कहा कि आरोप सिद्ध हुआ है, बल्कि यह कहा कि उनकी उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता।
कोर्ट ने कहा कि ऐसी रिपोर्ट को आधार बनाकर सजा देना न्यायसंगत नहीं है और जांच अधिकारी का काम है कि वह स्पष्ट रूप से तय करे कि आरोप सिद्ध हुए या नहीं। आधे-अधूरे निष्कर्ष किसी कर्मचारी के करियर और प्रतिष्ठा पर गंभीर असर डालते हैं।
निर्णय
कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता के खिलाफ निजी प्रैक्टिस में शामिल होने का कोई ठोस प्रमाण नहीं था और न ही जांच अधिकारी ने कोई स्पष्ट निष्कर्ष निकाला था। इसलिए सजा देना गलत था।
कोर्ट ने डॉ. ठाकुर के खिलाफ की गई अनुशासनात्मक कार्रवाई रद्द करते हुए उनकी याचिका को मंजूर कर लिया। कोर्ट ने यह भी कहा कि चूंकि यह मामला 2016 से लंबित है। याचिकाकर्ता पहले ही मानसिक आघात और सामाजिक कलंक झेल चुके हैं, ऐसे में दोबारा जांच का कोई औचित्य नहीं है।
केस टाइटल: डॉ. सुबाष ठाकुर बनाम राज्य सरकार व अन्य

