CrPC | धारा 320(1) के तहत अपराधों के लिए वैकल्पिक उपाय उपलब्ध होने पर धारा 482 लागू नहीं की जा सकती: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट

Amir Ahmad

23 Aug 2024 12:30 PM IST

  • CrPC | धारा 320(1) के तहत अपराधों के लिए वैकल्पिक उपाय उपलब्ध होने पर धारा 482 लागू नहीं की जा सकती: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट

    हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने हाल ही में फैसला सुनाया कि CrPc की धारा 482 के तहत निहित शक्तियों का इस्तेमाल तब नहीं किया जा सकता, जब अपराधों के लिए वैकल्पिक उपाय धारा 320(1) के तहत उपलब्ध हो।

    यह फैसला तब आया, जब अदालत ने आईपीसी की धारा 34 के साथ धारा 323, 504 और 506 के तहत दर्ज एफआईआर रद्द करने की मांग करने वाली याचिका खारिज कर दी।

    न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि CrPc की धारा 320(1) के तहत ऐसे अपराधों को कम करने का वैधानिक अधिकार धारा 482 के तहत हाईकोर्ट के असाधारण अधिकार क्षेत्र को लागू करने की आवश्यकता को नकारता है।

    इस मामले की अध्यक्षता कर रहे जस्टिस राकेश कैंथला ने याचिकाकर्ताओं की इस दलील को संबोधित किया कि चूंकि पक्षों ने सौहार्दपूर्ण तरीके से विवाद सुलझा लिया है, इसलिए एफआईआर रद्द कर दी जानी चाहिए। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि कानूनी कार्यवाही जारी रखना न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा।

    हालांकि, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि एफआईआर में उल्लिखित अपराध CrPC की धारा 320(1) के तहत कम करने योग्य हैं, जिससे पक्षों को न्यायालय के हस्तक्षेप की आवश्यकता के बिना मामले को सुलझाने की अनुमति मिलती है।

    जस्टिस कैंथला ने कहा,

    "जब वैकल्पिक उपाय उपलब्ध है तो CrPC की धारा 482 के तहत इस न्यायालय में निहित असाधारण शक्ति का प्रयोग करने का कोई कारण नहीं है।"

    इस निष्कर्ष पर पहुंचने में न्यायालय ने कई प्रमुख कानूनी मिसालों का हवाला दिया। मधु लिमये बनाम महाराष्ट्र राज्य (1977) के फैसले को विशेष रूप से रेखांकित किया गया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने माना कि धारा 482 के तहत निहित शक्तियों का प्रयोग तब नहीं किया जाना चाहिए, जब कोई विशिष्ट कानूनी उपाय पहले से ही उपलब्ध हो।

    याचिकाकर्ताओं ने अपने तर्क का समर्थन करने के लिए ज्ञान सिंह बनाम पंजाब राज्य, (2012) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी हवाला दिया कि हाईकोर्ट समझौता योग्य अपराधों से जुड़े मामलों में भी एफआईआर रद्द कर सकता है।

    हालांकि, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ज्ञान सिंह का फैसला CrPC की धारा 320(1) द्वारा स्थापित स्पष्ट वैधानिक ढांचा रद्द नहीं करता है, जो स्पष्ट रूप से हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बिना कुछ अपराधों के समझौता करने की अनुमति देता है।

    जस्टिस कैंथला ने आगे बी.एस. जोशी बनाम हरियाणा राज्य, (2003) का हवाला देते हुए कहा कि धारा 482 के तहत हाईकोर्ट की अंतर्निहित शक्तियों का संयम से प्रयोग किया जाना चाहिए, खासकर जब कानून विशिष्ट उपाय प्रदान करता है।

    अपने फैसले में हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने गोपाल दास बनाम राज्य, एआईआर 1978 डेल 138 में दिल्ली हाईकोर्ट की फुल बेंच के फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें CrPC की धारा 482 के तहत हाईकोर्ट की अंतर्निहित शक्तियों की सीमाओं पर जोर दिया गया। दिल्ली हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया था कि हाईकोर्ट की अंतर्निहित शक्तियां, हालांकि व्यापक हैं केवल उन मामलों में प्रयोग की जानी चाहिए, जहां दंड प्रक्रिया संहिता में इस मुद्दे को संबोधित करने के लिए कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं है। यह कहते हुए कि इन शक्तियों का उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकना या न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करना है लेकिन उनका उपयोग स्पष्ट वैधानिक प्रावधानों को दरकिनार करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए।

    अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि याचिकाकर्ताओं द्वारा धारा 320(1) के तहत उपलब्ध वैधानिक उपाय का पालन करने में विफलता ने धारा 482 के तहत एफआईआर रद्द करने की उनकी याचिका को अस्थिर बना दिया। यह चेतावनी देते हुए कि ऐसी स्थितियों में हाईकोर्ट की अंतर्निहित शक्तियों का आह्वान करना विशेष रूप से अपराधों के संयोजन को संबोधित करने के लिए डिज़ाइन किए गए वैधानिक प्रावधानों को कमजोर करेगा अदालत ने याचिका खारिज कर दी।

    केस टाइटल- मोहन सिंह एवं अन्य बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य

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