COVID-19 महामारी के दौरान पारित तलाक के फैसले को कर्नाटक हाइकोर्ट ने किया रद्द, कहा -विवाह पवित्र है, पत्नी की निंदा अनसुनी नही की जा सकती
Amir Ahmad
9 Jan 2024 1:50 PM IST
कर्नाटक हाइकोर्ट ने 2021 में ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित तालक डिक्री रद्द कर दी। ट्रायल कोर्ट ने साक्ष्यों की रिकॉर्डिंग सहित सुनवाई तब की थी, जब दुनिया COVID-19 महामारी की चपेट में थी।
जस्टिस केएस मुदगल और जस्टिस केवी अरविंद की खंडपीठ ने पत्नी द्वारा दायर अपील स्वीकार कर ली और पति द्वारा दायर हिंदू विवाह अधिनियम (Hindu Marriage Act) की धारा 13(1)(i-a) के तहत क्रूरता के आधार पर तलाक की मांग करने वाली याचिका पर ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित डिक्री रद्द कर दी।
खंडपीठ ने दोनों पक्षकारों को उचित अवसर देने के बाद मामले को नए सिरे से विचार के लिए ट्रायल कोर्ट में वापस भेज दिया।
पत्नी की प्राथमिक दलील यह थी कि ट्रायल कोर्ट ने मामले की सुनवाई की और हाईकोर्ट द्वारा जारी एसओपी के तहत निर्देशों के विपरीत COVID-19 महामारी अवधि के दौरान इसका निपटारा कर दिया। इसके अलावा, उसने तर्क दिया कि क्रूरता के आरोप या मूलभूत तथ्य प्रमुख स्वीकार्य सबूतों से साबित नहीं हुए।
रिकॉर्ड देखने पर खंडपीठ ने कहा कि तलाक के लिए याचिका COVID-19 महामारी की अवधि के दौरान दायर की गई थी और ट्रायल कोर्ट ने सबूतों की रिकॉर्डिंग सहित सुनवाई की थी, जब मामलों के संचालन को विनियमित करने के लिए एसओपी लागू थी।
हाइकोर्ट ने कहा कि यदि भरण-पोषण या सुरक्षा आदेशों से संबंधित तत्काल मामलों को उठाया गया तो एसओपी में अपवाद लिया जा सकता है, "कल्पना के किसी भी स्तर से यह नहीं कहा जा सकता कि महामारी अवधि के दौरान तलाक की डिक्री के मामले को उठाना अत्यधिक जरूरी था।
इसके अलावा, खंडपीठ ने टिप्पणी की कि तलाक की डिक्री सिर्फ इसलिए नहीं दी जा सकती, क्योंकि प्रतिवादी-पत्नी ने मामला नहीं लड़ा। न्यायालय को स्वयं को संतुष्ट करना होगा कि आरोपित आधार सिद्ध हो गए हैं।
इसमें कहा गया,
"यद्यपि याचिकाकर्ता ने दावा किया कि प्रतिवादी/पत्नी के माता-पिता के बीच तलाक हो गया था जिससे उसकी मानसिक स्वास्थ्य स्थिति खराब हो गई, अपने स्वयं के बयान को छोड़कर उसने ऐसे तलाक का कोई सबूत पेश नहीं किया।"
यह देखते हुए कि मानसिक स्वास्थ्य स्थिति का आरोप बहुत गंभीर है, मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 (Mental Healthcare Act 2017) के प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए, हाइकोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट को स्वीकार्य साक्ष्य के अभाव में ऐसे आरोपों को स्वीकार नहीं करना चाहिए।
इसमें आगे कहा गया,
"याचिकाकर्ता ने यह दिखाने के लिए कोई मेडिकल सबूत या मेडिकल रिकॉर्ड पेश नहीं किया कि प्रतिवादी मूड स्विंग या अन्य मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों से पीड़ित थी।"
ट्रायल कोर्ट द्वारा दिए गए इस तर्क में गलती पाते हुए कि विवाह अपरिवर्तनीय रूप से टूट गया है, हाईकोर्ट ने कहा,
“विवाह का अपरिवर्तनीय रूप से टूटना एक्ट की धारा 13 (1) के तहत विवाह के विघटन की डिक्री देने का आधार नहीं है। ऐसी शक्ति का प्रयोग केवल माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए किया जाता है। ट्रायल कोर्ट को ऐसी शक्ति प्राप्त नहीं है। निर्णय बिना विवेक का प्रयोग किए और साक्ष्य की सराहना या साक्ष्य के मूल्यांकन के मूल सिद्धांत के बिना दिया गया।''
अपील स्वीकार करते हुए पीठ ने कहा,
“कहने की जरूरत नहीं कि विवाह पवित्र संस्था है। इस जोड़े का 13 साल का वैवाहिक जीवन और दो बच्चे है। ऐसे में उसे बिना सुने उक्त संस्थान से बाहर नहीं निकाला जाना चाहिए।”
अपीयरेंस: याचिकाकर्ता के लिए सुयोग हेरेले की ओर से एच शांतिभूषण।
प्रतिवादी की ओर से वकील- सिद्धार्थ सुमन की ओर से के.सुमन।
साइटेशन नंबर- लाइव लॉ (कर) 12 2024
केस टाइटल- एबीसी और एक्सवाईजेड
केस नंबर- विविध प्रथम अपील नंबर 6578/2021