संविदा कर्मचारियों को निष्पक्ष सुनवाई के बिना बर्खास्त नहीं किया जा सकता: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट
Shahadat
28 Dec 2023 12:32 PM IST
जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि संविदात्मक नियुक्तियों (Contractual Employees) को भी सुनवाई का अवसर दिए बिना समाप्त नहीं किया जा सकता, यदि समाप्ति कदाचार के आरोपों पर आधारित है, जो कर्मचारी पर कलंक लगाती है।
जस्टिस एम ए चौधरी ने जम्मू-कश्मीर हस्तशिल्प निगम से कर्मचारियों की वापसी को संबोधित करते हुए कहा,
"यदि कोई आदेश आरोपों पर आधारित है तो आदेश कलंकपूर्ण और दंडात्मक है। किसी कर्मचारी की सेवाओं को पूर्ण जांच में उसके खिलाफ लगाए गए आरोपों/आरोपों का बचाव करने का अवसर दिए बिना समाप्त नहीं किया जा सकता।"
इस मामले में जम्मू-कश्मीर हस्तशिल्प निगम में आकस्मिक आधार पर लगे याचिकाकर्ता शामिल थे। उनकी नियुक्तियों में अनियमितताओं का आरोप लगाते हुए भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (एसीबी) द्वारा जारी 'अलर्ट नोट' के बाद उनकी सेवाएं अचानक समाप्त कर दी गईं।
उनकी समाप्ति को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व सीनियर एडवोकेट जेड.ए. कुरैशी ने किया। उन्होंने तर्क दिया कि उन्हें सुनवाई का अवसर दिए बिना ही अलगाव हुआ, जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है। यह तर्क दिया गया कि प्रबंध निदेशक को संविदा कर्मचारियों की नियुक्ति के संबंध में नीति बनाने के लिए गठित एक समिति के बारे में पता था।
याचिकाकर्ताओं ने प्रस्तुत किया कि कथित तौर पर दंडात्मक प्रकृति का विघटन उचित जांच किए बिना एसीबी की सिफारिशों पर आधारित है।
याचिका का विरोध करते हुए उत्तरदाताओं ने कहा कि याचिकाकर्ता संविदा कर्मचारी हैं, जिनके पास लगातार रोजगार का कोई निहित अधिकार नहीं है। निगम ने विश्वसनीय भ्रष्टाचार विरोधी संस्था एसीबी की सिफारिशों पर कार्रवाई की और इसलिए इन बर्खास्तगी का आदेश दिया।
जस्टिस चौधरी ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि बर्खास्तगी का विवादित आदेश निगम के तत्कालीन प्रबंध निदेशक के खिलाफ लगाए गए आरोपों पर आधारित है, न कि याचिकाकर्ताओं के खिलाफ। उन्होंने पाया कि समाप्ति आदेश ने याचिकाकर्ताओं पर एक कलंक लगा दिया, जिससे उनकी प्रतिष्ठा और भविष्य की संभावनाओं पर असर पड़ा।
संविदा नियुक्तियों से जुड़े मामलों में भी निष्पक्ष सुनवाई के महत्व पर जोर देते हुए पीठ ने बताया कि खुद का बचाव करने का मौका दिए बिना आरोपों के आधार पर रोजगार समाप्त करना, प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विपरीत है। साथ ही कर्मचारी की प्रतिष्ठा को गलत तरीके से नुकसान पहुंचा सकता है।
कोर्ट ने माना कि एसीबी की रिपोर्ट में याचिकाकर्ताओं की नियुक्तियों में अनियमितता को लेकर चिंता जताई गई। हालांकि, यह माना गया कि निगम अपनी स्वयं की जांच किए बिना और याचिकाकर्ताओं को सुनवाई का अवसर प्रदान किए बिना उनकी सेवाओं को समाप्त करने के लिए केवल रिपोर्ट पर भरोसा नहीं कर सकता।
पीठ ने के.सी. जोशी बनाम भारत संघ एवं अन्य'' की रिपोर्ट (1985) को पुनः प्रस्तुत करते हुए कहा,
“सेवा का अनुबंध भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 के अनुरूप होना चाहिए। यदि यह सुझाव दिया जाता है कि कोई किसी को भी पूछताछ के बिना या प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों की जानकारी के बिना बर्खास्त कर सकता है तो ऐसा दृष्टिकोण अच्छी तरह से नजरअंदाज करता है। स्थापित सिद्धांत है कि यदि राज्य की कार्रवाई आजीविका को प्रभावित करती है, या कलंक लगाती है तो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए जांच के बाद ही दंडात्मक कार्रवाई की जा सकती है।
तदनुसार, न्यायालय ने समाप्ति आदेश रद्द कर दिया और निगम को याचिकाकर्ताओं को बहाल करने का निर्देश दिया।
अदालत ने निगम को याचिकाकर्ताओं का रुका हुआ वेतन जारी करने और प्रबंध निदेशक द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावित नीति के अनुसार नियमितीकरण के लिए उनके मामलों पर विचार करने का भी आदेश दिया।
केस टाइटल: फ़िरोज़ अहमद शेख बनाम केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर
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