न्यायिक मजिस्ट्रेट को अपराध की जांच के लिए अभियुक्तों के वॉइस सैंपल मांगने का अधिकार: गुजरात हाईकोर्ट

Amir Ahmad

6 Aug 2024 11:21 AM GMT

  • न्यायिक मजिस्ट्रेट को अपराध की जांच के लिए अभियुक्तों के वॉइस सैंपल मांगने का अधिकार: गुजरात हाईकोर्ट

    गुजरात हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि न्यायिक मजिस्ट्रेटों के पास अपराध की जांच के लिए अभियुक्तों सहित व्यक्तियों को वॉइस सैंपल देने का आदेश देने का अधिकार है।

    रितेश सिन्हा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला देते हुए जस्टिस गीता गोपी की एकल न्यायाधीश पीठ ने 16 जुलाई को अपने निर्णय में कहा,

    "न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास किसी व्यक्ति को उसकी वॉइस सैंपल देने का आदेश देने का अधिकार है, ऐसा आदेश किसी अभियुक्त के विरुद्ध भी दिया जा सकता है जो अपराध की जांच के उद्देश्य से हो।”

    यह निर्णय महिला द्वारा दायर अपील के जवाब में आया, जिसमें मजिस्ट्रेट और सत्र न्यायालय के आदेशों को चुनौती दी गई, जिसने घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत क्रूरता के दावों को प्रमाणित करने के लिए उसके पति के वॉइस सैंपल देने की उसकी याचिका खारिज कर दी थी।

    महिला ने अपने पति और ससुराल वालों के साथ बातचीत रिकॉर्ड की थी और सबूत के तौर पर एक सीडी पेश की थी। मजिस्ट्रेट अदालत ने पहले फैसला सुनाया था कि इस तरह के आदेश को अधिकृत करने वाले कानूनी प्रावधान के बिना वह ऐसा आदेश जारी नहीं कर सकती, क्योंकि इसमें कोई अपराध जांच शामिल नहीं थी।

    मजिस्ट्रेट को पक्षों की आवाज़ों की तुलना करनी थी।

    जस्टिस गोपी ने कहा कि इस मामले में निचली अदालत के लिए पक्षों की वॉइस सैंपल भेजना ज़रूरी नहीं था, क्योंकि पति-पत्नी और उनके परिवार के रिकॉर्ड किए गए साक्ष्य पक्षों द्वारा अदालत के समक्ष मौखिक रूप से" बयान दिए जाने के बाद ही थे। उन्होंने आगे कहा कि संबंधित मजिस्ट्रेट को केवल सीडी में मौजूद आवाज़ों की तुलना करने की आवश्यकता थी।

    हाईकोर्ट ने रेखांकित किया,

    "दोनों पक्षों की आवाज़ें अदालत द्वारा सुनी जाती हैं। मजिस्ट्रेट को केवल सीडी में दर्ज पक्षों की आवाज़ों की तुलना करने की आवश्यकता थी। दोनों पक्षों की वॉइस सैंपल भेजने की प्रार्थना अदालत की सहायता के लिए थी। ऐसी प्रार्थना को केवल इस आधार पर अस्वीकार किया जा सकता है कि अदालत किसी विशेषज्ञ की राय के बिना वॉइस की तुलना करने में सक्षम है। अदालत भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 73 के प्रावधान के तहत तुलना करने का अधिकार प्राप्त कर सकती है।”

    यह देखते हुए कि अदालत के पास तुलना करने की पर्याप्त शक्ति है, उसके बाद हाईकोर्ट ने कहा कि वर्तमान मामले में दोनों पक्षों की वॉइस निचली अदालत के समक्ष सुनी गई थी, क्योंकि उन्होंने क्रॉस एग्जामिनेशन में उसके समक्ष गवाही दी थी और इसलिए तुलना के लिए वॉइस पहले से ही उसके समक्ष थी।

    हाईकोर्ट ने कहा,

    "इस प्रकार अदालत अपने आप वॉइस की तुलना कर सकती थी।

    क्या मजिस्ट्रेट किसी व्यक्ति को वॉइस सैंपल देने का निर्देश दे सकता है?

    यह संबोधित करते हुए कि क्या मजिस्ट्रेट के पास किसी व्यक्ति को वॉइस सैंपल देने का निर्देश देने की शक्ति है, हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि डीवी अधिनियम के तहत कार्यवाही आपराधिक प्रक्रिया संहिता का पालन करती है और आंशिक रूप से अर्ध-नागरिक प्रकृति की होती है।"

    जस्टिस गोपी ने कहा,

    "न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष कार्यवाही डीवी अधिनियम के तहत होती है और कार्यवाही आपराधिक प्रक्रिया संहिता के अनुसार निपटाई जाती है। कानून के प्रावधान के अनुसार, प्रतिवादी को तब तक आरोपी नहीं माना जा सकता, जब तक कि सुरक्षा आदेश का उल्लंघन न हो। यहां प्रार्थना किसी भी पुलिस को किसी भी आरोपी की वॉइस सैंपल एकत्र करने का निर्देश देने के लिए नहीं थी, बल्कि दोनों पक्षों को अपनी आवाज़ का नमूना देने का आदेश देने के लिए थी।"

    सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा

    हाईकोर्ट ने अपने फैसले में रितेश सिन्हा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य में सुप्रीम कोर्ट के 2019 के फैसले का संदर्भ दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब तक संसद द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता में स्पष्ट प्रावधान नहीं किए जाते, तब तक न्यायिक मजिस्ट्रेट को किसी व्यक्ति को अपराध की जांच के उद्देश्य से अपनी वॉइस सैंपल देने का आदेश देने की शक्ति दी जानी चाहिए।

    हाईकोर्ट ने विधि आयोग की 87वीं रिपोर्ट के अंश पर गौर किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख किया गया, जिसमें कहा गया कि यदि अभियुक्त ऐसी आवाज देने से इनकार करता है तो उसे ऐसा करने के लिए बाध्य करने के लिए कोई कानूनी मंजूरी नहीं है। उस उद्देश्य के लिए बल का प्रयोग अवैध होगा।

    DV Act के तहत मुकदमा सिविल मुकदमे जैसा

    इसके विपरीत हाईकोर्ट ने कहा कि वर्तमान मामला डीवी एक्ट के तहत मुकदमे से संबंधित है, जो आंशिक रूप से अर्ध सिविल प्रकृति का है। इसने आगे कहा कि आपराधिक कार्यवाही में - जहाँ अभियुक्त को चुप रहने का अधिकार है, वहाँ उसे चुप रहने के लिए "कोई बाध्यता" नहीं होगी। अभियोजन पक्ष को आरोपी के खिलाफ़ मामले को उचित संदेह से परे साबित करना होगा, इसलिए वॉइस सैंपल लिया जाना चाहिए।

    इसके विपरीत जस्टिस गोपी ने कहा कि डी.वी. अधिनियम के तहत दोनों पक्ष मुकदमे के निर्णय में समान रूप से योगदान करते हैं।

    हाईकोर्ट ने आगे कहा कि DV Act के तहत कार्यवाही आपराधिक प्रक्रिया संहिता का पालन करते हुए अर्ध-नागरिक प्रकृति की होती है। वादी और प्रतिवादी के बीच सिविल मुकदमे के समान होती है।

    हाईकोर्ट ने कहा कि आखिर में कहा कि वैवाहिक कार्यवाही में जब तक कि यह भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत न हो, पति-पत्नी के बीच विवाह के दौरान उनके बीच हुए संचार को प्रकट करने पर कोई रोक नहीं होगी।

    न्यायालय ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 122 का हवाला दिया और कहा कि पति या पत्नी एक के द्वारा दूसरे के विरुद्ध दायर की गई कार्यवाही में "विवाह के दौरान संचार को प्रकट न करने का कोई विशेषाधिकार नहीं मांग सकते"।

    हाईकोर्ट ने कहा कि महिला द्वारा सीडी में दर्ज संचार डीवी अधिनियम के तहत कार्यवाही का हिस्सा बन जाएगा। इसके बाद उसने महिला की याचिका स्वीकार कर ली और मजिस्ट्रेट और सेशन कोर्ट द्वारा पारित आदेशों को रद्द कर दिया।

    केस टाइटल - जेआईएल डब्ल्यू/ओ प्रियांक मनुभाई चोकसी बनाम गुजरात राज्य और अन्य।

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