सार्वजनिक हित में दी गई अनिवार्य रिटायरमेंट दंड नहीं: गुजरात हाईकोर्ट ने न्यायिक अधिकारी की समयपूर्व रिटायरमेंट को सही ठहराया
Amir Ahmad
4 Oct 2025 4:11 PM IST

गुजरात हाईकोर्ट ने वर्ष 2016 में न्यायिक अधिकारी को दी गई समयपूर्व रिटायरमेंट को बरकरार रखते हुए यह स्पष्ट किया कि सार्वजनिक हित या प्रशासनिक हित में दी गई अनिवार्य अथवा समयपूर्व रिटायरमेंट को दंड नहीं माना जा सकता।
यह आदेश जस्टिस ए.एस. सुपेहिया और जस्टिस एल.एस. पिरजादा की खंडपीठ ने पारित किया। अदालत ने उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें पूर्व न्यायिक अधिकारी ने 2016 की अधिसूचना को चुनौती दी, जिसके तहत उन्हें 53 वर्ष की आयु में सार्वजनिक हित में सेवा से समयपूर्व रिटायरमेंट किया गया।
खंडपीठ ने अपने निर्णय में कहा,
“सार्वजनिक या प्रशासनिक हित में दी गई अनिवार्य/समयपूर्व रिटायरमेंट दंडात्मक कार्रवाई नहीं होती। इस स्थिति में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन आवश्यक नहीं है, इसलिए कारण बताओ नोटिस जारी करने की भी आवश्यकता नहीं होती। यदि सेवा रिकॉर्ड में कोई एक भी प्रतिकूल टिप्पणी हो या ईमानदारी पर संदेह उत्पन्न हो तो न्यायिक अधिकारी को सार्वजनिक हित में रिटायर किया जा सकता है।”
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि किसी अधिकारी को दी गई पदोन्नति या उच्च वेतनमान समयपूर्व रिटायरमेंट के आदेश को प्रभावित नहीं कर सकता।
खंडपीठ ने कहा कि फुल बेंच सभी जजों की सामूहिक समझ पर किसी न्यायिक अधिकारी की समग्र प्रतिष्ठा और सेवा रिकॉर्ड को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय ले सकती है कि उसे सार्वजनिक हित में रिटायर किया जाए।
आगे कहा गया,
“कभी-कभी किसी अधिकारी की ईमानदारी पर संदेह को ठोस साक्ष्य से साबित करना कठिन होता है। ऐसे में रिपोर्टिंग अधिकारी या नियंत्रण अधिकारी के लिए हर कमी को प्रमाण सहित दर्ज करना संभव नहीं होता। न्यायिक अधिकारी की समग्र प्रतिष्ठा और कार्यशैली के मूल्यांकन के आधार पर गठित राय को अनुच्छेद 226 के तहत चुनौती नहीं दी जा सकती, जब तक कि निर्णय स्पष्ट अवैधता या प्रक्रिया के उल्लंघन से ग्रसित न हो।”
मामले में तीन जजों की एक समिति ने सभी न्यायिक अधिकारियों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट निस्तारण दर, शिकायतें सतर्कता रिपोर्ट और विभागीय जांचों की समीक्षा की थी। समिति ने 18 न्यायिक अधिकारियों को सार्वजनिक हित में समयपूर्व रिटायर करने की सिफारिश की थी।
राज्य सरकार को इन सिफारिशों के आधार पर तीन माह के वेतन के बदले रिटायरमेंट की अधिसूचना जारी करने का सुझाव दिया गया था।
खंडपीठ ने पाया कि 2001 से 2015 तक के सेवा रिकॉर्ड में याचिकाकर्ता का कार्य “अच्छा” और “बहुत अच्छा” आंका गया था, किंतु अन्य वर्षों में उसका प्रदर्शन केवल संतोषजनक या “औसत” रहा। एक सतर्कता शिकायत भी दर्ज थी, जिसे बाद में बंद कर दिया गया।
अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता इन आकलनों से अवगत था और समिति ने सभी पहलुओं को ध्यान में रखकर अपने विवेकाधिकार का प्रयोग किया।
खंडपीठ ने कहा,
"जब समिति और फुल बेंच की राय सावधानीपूर्वक विचार-विमर्श के बाद बनी हो, तब अदालत इस विषयक राय को प्रतिस्थापित नहीं कर सकता।"
गुजरात हाईकोर्ट ने यह दोहराया कि सार्वजनिक हित में समयपूर्व रिटायरमेंट न तो सजा है न ही उसके लिए सुनवाई आवश्यक है, यह प्रशासनिक विवेक पर आधारित निर्णय है।

