UAPA ट्रिब्यूनल के कार्य सिविल कोर्ट के समान क्यों नहीं हैं? दिल्ली हाईकोर्ट ने PFI मामले में दिया जवाब

Amir Ahmad

14 Oct 2025 1:50 PM IST

  • UAPA ट्रिब्यूनल के कार्य सिविल कोर्ट के समान क्यों नहीं हैं? दिल्ली हाईकोर्ट ने PFI मामले में दिया जवाब

    दिल्ली हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) के तहत गठित ट्रिब्यूनल (UAPA Tribunal) के कार्यों को एक सिविल कोर्ट के कार्यों के बराबर नहीं माना जा सकता।

    चीफ जस्टिस डी.के. उपाध्याय और जस्टिस तुषार राव गडेला की खंडपीठ ने कहा कि UAPA ट्रिब्यूनल का कार्य केंद्र सरकार द्वारा भेजे गए संदर्भ पर निर्णय लेना है कि क्या किसी संगठन को गैरकानूनी घोषित करने का पर्याप्त कारण मौजूद है या नहीं। ट्रिब्यूनल का कार्यक्षेत्र किसी सिविल कोर्ट की तरह पक्षों के बीच विवाद (lis) का निर्णय देने तक विस्तारित नहीं होता है।

    कोर्ट ने कहा,

    "बल्कि ट्रिब्यूनल का कार्य एक तरह से अधिनियम की धारा 3(1) के तहत केंद्र सरकार द्वारा की गई घोषणा की पुष्टि करना है।"

    सिविल कोर्ट और ट्रिब्यूनल की भूमिका में अंतर

    कोर्ट ने यह टिप्पणी पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) द्वारा दायर याचिका को सुनवाई योग्य मानते हुए की। PFI ने ट्रिब्यूनल के उस आदेश को चुनौती दी, जिसमें संगठन पर लगाए गए पांच साल के प्रतिबंध की पुष्टि की गई।

    कोर्ट ने स्वीकार किया कि UAPA ट्रिब्यूनल को अपने कार्यों के निर्वहन से उत्पन्न होने वाले सभी मामलों में अपनी प्रक्रिया को विनियमित करने की शक्ति है, जिसमें बैठने का स्थान भी शामिल है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उसके पास सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के तहत सिविल कोर्ट में निहित सभी शक्तियां होंगी।

    कोर्ट ने जोर दिया कि ट्रिब्यूनल को सौंपा गया प्राथमिक कार्य किसी संगठन को गैरकानूनी घोषित करने वाली अधिसूचना की पुष्टि करना है। केंद्र सरकार द्वारा की गई घोषणा केवल आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचित होने मात्र से अंतिम नहीं हो जाती, यह तभी प्रभावी होती है जब ट्रिब्यूनल धारा 4 के तहत आदेश द्वारा इसकी पुष्टि करता है।

    कोर्ट ने कहा,

    "धारा 3(1), 3(3), धारा 4 और 9 के साथ पठित अधिनियम में निहित योजना हमें यह देखने के लिए प्रेरित करती है कि धारा 3(1) के तहत केंद्र सरकार द्वारा की गई कोई भी घोषणा केवल तभी अंतिम रूप प्राप्त करती है जब ट्रिब्यूनल अधिनियम की धारा 4 के तहत ऐसी अधिसूचना की पुष्टि करता है। इस दृष्टिकोण में, हम अपनी राय व्यक्त करते हैं कि अधिनियम की धारा 4 के तहत ट्रिब्यूनल को सौंपे गए कार्यों को सामान्य सिविल कानून के तहत सिविल कोर्ट को सौंपे गए कार्यों के समान या सदृश नहीं कहा जा सकता है।"

    कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि हाई कोर्ट के पास UAPA ट्रिब्यूनल द्वारा पारित आदेश के खिलाफ रिट ऑफ सर्टिओरारी (Writ of Certiorari) जारी करने का क्षेत्राधिकार होगा। यह आदेश केंद्र सरकार द्वारा धारा 3(1) के तहत की गई घोषणा की पुष्टि करता है।

    कोर्ट ने कहा कि यह असंगत होगा कि हाईकोर्ट का अनुच्छेद 226 के तहत रिट क्षेत्राधिकार UAPA ट्रिब्यूनल के आदेश के खिलाफ तो उपलब्ध न हो, जबकि धारा 3(1) के तहत किसी संगठन को गैरकानूनी घोषित करने के केंद्र सरकार के कार्य के खिलाफ वह उपलब्ध हो।

    इसके अलावा कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 227 (अधीक्षण की शक्ति) के तहत क्षेत्राधिकार पर विचार किया। कोर्ट ने कहा कि ट्रिब्यूनल पर अनुच्छेद 227 के तहत अधीक्षण का प्रयोग नहीं किया जा सकता, क्योंकि ट्रिब्यूनल की अध्यक्षता एक सेवारत हाईकोर्ट जज करते हैं। अधिनियम की धारा 5(5) के तहत ट्रिब्यूनल को अपनी कार्यवाही को विनियमित करने की शक्ति है, जिसमें बैठने का स्थान भी शामिल है। यदि ट्रिब्यूनल दिल्ली के क्षेत्रों के बाहर भी बैठ सकता है तो यह मानना ​​कि इस कोर्ट के पास अनुच्छेद 227 के तहत अधीक्षण की शक्ति होगी यह एक त्रुटि होगी।

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