MBBS सीट विवाद: दिल्ली हाईकोर्ट ने जामिया हमदर्द को संबद्धता देने का आदेश रद्द किया
Amir Ahmad
20 Dec 2025 12:50 PM IST

दिल्ली हाईकोर्ट ने MBBS सीटों से जुड़े महत्वपूर्ण मामले में ट्रायल कोर्ट का आदेश रद्द करते हुए स्पष्ट किया कि निष्पादन न्यायालय (एग्जीक्यूटिंग कोर्ट) अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर न तो मध्यस्थता आदेश की व्याख्या कर सकता है और न ही किसी गैर-पक्षकार पर वैधानिक दायित्व थोप सकता है। अदालत ने जामिया हमदर्द डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी को 150 MBBS सीटों के लिए सहमति-पत्र (कंसेंट ऑफ एफिलिएशन) जारी करने के निर्देश को अवैध ठहराया।
जस्टिस अनिल झेत्रपाल और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन शंकर की खंडपीठ ने 17 दिसंबर को पारित अपने फैसले में 8 दिसंबर, 2025 के उस आदेश को निरस्त कर दिया था, जिसमें सिंगल जज की अदालत ने जामिया हमदर्द को हमदर्द इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज एंड रिसर्च (HIMSR) के पक्ष में सात दिनों के भीतर संबद्धता की सहमति देने का निर्देश दिया था।
खंडपीठ ने कहा कि यह स्थापित सिद्धांत है कि एग्जीक्यूटिंग कोर्ट केवल उसी डिक्री या आदेश को लागू कर सकता है, जिसे निष्पादित करने के लिए उसे बुलाया गया हो और वह उसके दायरे से बाहर जाकर नए अधिकार या दायित्व तय नहीं कर सकता।
मामले की पृष्ठभूमि वर्ष 2019 के फैमिली सेटलमेंट डीड से जुड़ी है, जिसके तहत हमदर्द परिवार के विभिन्न समूहों के बीच संस्थानों का बंटवारा हुआ था। इसी से संबंधित विवाद के चलते मध्यस्थता कार्यवाही शुरू हुई थी। मध्यस्थ ने 12 अगस्त 2025 को जामिया हमदर्द को निर्देश दिया था कि वह MBBS दाखिलों के संबंध में HIMSR को कानून के दायरे में रहते हुए हरसंभव सहयोग प्रदान करे। हालांकि, जामिया हमदर्द ने बाद में UGC और राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) जैसी वैधानिक संस्थाओं की आपत्तियों का हवाला देते हुए संबद्धता की सहमति वापस ले ली थी। उल्लेखनीय है कि जामिया हमदर्द स्वयं उस मध्यस्थता समझौते की पक्षकार नहीं थी।
8 दिसंबर, 2025 को पारित आदेश में एग्जीक्यूटिंग कोर्ट ने माना था कि सहमति-पत्र की वापसी से मध्यस्थता प्रक्रिया विफल हुई है। यह लागू करने योग्य मध्यस्थता आदेशों का उल्लंघन है। इसी आधार पर जामिया हमदर्द को सहमति-पत्र जारी करने का निर्देश दिया गया, जिसे यूनिवर्सिटी ने हाईकोर्ट में चुनौती दी।
हाईकोर्ट के समक्ष मुख्य प्रश्न यह था कि क्या मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 17 के तहत कोई एग्जीक्यूटिव कोर्ट किसी गैर-पक्षकार को निर्देश दे सकता है और क्या वह वैधानिक निर्णयों जैसे संबद्धता की वापसी की वैधता तय कर सकता है।
जामिया हमदर्द की ओर से दलील दी गई कि एग्जीक्यूटिव कोर्ट ने “सकारात्मक बाध्यता” लगाते हुए नए सिरे से सहमति-पत्र जारी करने का आदेश देकर मध्यस्थता आदेश की सीमा लांघी है। यह भी कहा गया कि संबद्धता और नियामक अनुपालन से जुड़े प्रश्न NMC और UGC Act के तहत वैधानिक दायरे में आते हैं, जिनका निपटारा न तो मध्यस्थता के जरिए और न ही निष्पादन कार्यवाही में किया जा सकता है।
खंडपीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि भले ही जामिया हमदर्द मध्यस्थता की पक्षकार न हो, फिर भी उसका अपील दायर करना सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत स्वीकार्य है, क्योंकि मध्यस्थता अधिनियम में ऐसे मामलों में निष्पादन के लिए कोई अलग तंत्र निर्धारित नहीं किया गया।
अदालत ने कहा कि मध्यस्थ का आदेश केवल “कानून के दायरे में सहयोग” तक सीमित था, न कि संबद्धता जारी करने के लिए कोई निषेधाज्ञा या विशिष्ट प्रदर्शन का आदेश। ऐसे में ऑर्डर 21 रूल 32 सीपीसी लागू नहीं होता। कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि सहमति-पत्र की वैधता का निर्धारण UGC और NMC जैसे वैधानिक ढांचों के तहत होना है। इसे एग्जीक्यूटिव कोर्ट तय नहीं कर सकता। अदालत ने टिप्पणी की कि जो कार्य प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया जा सकता, उसे अप्रत्यक्ष रूप से भी नहीं किया जा सकता, विशेषकर तब जब वैधानिक अपीलीय उपाय उपलब्ध हों।
इन निष्कर्षों के साथ दिल्ली हाईकोर्ट ने जामिया हमदर्द के पक्ष में अपील स्वीकार करते हुए 8 दिसंबर, 2025 के सिंगल जज का आदेश रद्द कर दिया, जिससे यूनिवर्सिटी को HIMSR के लिए 150 एमबीबीएस सीटों की संबद्धता देने के निर्देश से राहत मिली।

