प्रेमालाप के बाद शादी से इनकार विवाह का वादा तोड़ना नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट ने आरोपी को दी ज़मानत
Amir Ahmad
4 Oct 2025 3:30 PM IST

दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि कोर्टशिप यानी विवाह से पहले के परिचय या संबंध के बाद अगर कोई व्यक्ति सोच-समझकर शादी से इनकार करता है तो उसे विवाह का वादा तोड़ना नहीं माना जा सकता।
जस्टिस अरुण मोंगा ने यह टिप्पणी ऐसे मामले में आरोपी को ज़मानत देते हुए की, जिस पर महिला के साथ विवाह के झूठे वादे पर यौन संबंध बनाने का आरोप था।
अदालत ने कहा,
“यह एक दुर्भाग्यपूर्ण मामला प्रतीत होता है, जहां दो वयस्क आपसी सहमति से विवाह की संभावना तलाशने के लिए रिश्ते में आए। हालांकि, एक-दूसरे को बेहतर जानने के बाद एक पक्ष ने विवाह आगे न बढ़ाने का निर्णय लिया। यह वैध निर्णय स्वतंत्र इच्छा का हिस्सा है, जिसे झूठे वादे का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता।”
अदालत ने आगे कहा,
“कोर्टशिप का उद्देश्य ही यह है कि दोनों पक्ष एक-दूसरे की अनुकूलता का आकलन कर सकें। यदि यह कहा जाए कि ऐसा करने के बाद कोई अपना निर्णय नहीं बदल सकता तो यह अवधारणा ही निष्प्रभावी हो जाएगी।”
मामला
शिकायतकर्ता महिला की मुलाकात आरोपी से अप्रैल माह में मैट्रिमोनियल वेबसाइट पर हुई। महिला ने आरोप लगाया कि आरोपी ने खुद को दुबई में अच्छी तरह स्थापित बताया और कहा कि उसका परिवार भी विवाह के लिए सहमत है।
FIR के अनुसार भारत आने पर आरोपी ने महिला को होटल में बुलाया, शारीरिक संबंध बनाने की कोशिश की और उसे भरोसा दिलाया कि वे जल्द ही शादी करेंगे और दुबई में बसेंगे।
महिला ने यह भी आरोप लगाया कि आरोपी ने उसकी आपत्तिजनक तस्वीरें लीं और बाद में जब उसने शादी का दबाव बनाया तो आरोपी और उसके परिवार ने दहेज जैसी अवैध मांगें रखीं, जिनमें दुबई में फ्लैट, लग्ज़री कार और नकद शामिल थे।
अदालत की टिप्पणी
अदालत ने कहा कि पहली नज़र में कुछ तर्क आरोपी के पक्ष में मज़बूत लगते हैं परंतु वे ट्रायल का विषय हैं। वर्तमान चरण में यह ज़मानत योग्य मामला है।
अदालत ने कहा,
“एक चरण पर स्वयं शिकायतकर्ता ने व्हाट्सएप संदेश में स्वीकार किया कि कोई शारीरिक संबंध नहीं हुआ, जो उसकी FIR के विपरीत है। यदि यह माना भी जाए कि संबंध बने तो भी असफल विवाह-इरादे के आधार पर बने संबंध को बलात्कार नहीं कहा जा सकता।”
जस्टिस मोंगा ने यह भी कहा कि यदि ब्लैकमेल या दहेज मांगने के आरोप सही भी हों तो भी ये स्वतंत्र अपराध हैं और भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 69 के अंतर्गत नहीं आते।
अदालत ने स्पष्ट किया,
“दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3 और 4 के तहत अपराध किसी भी स्थिति में जमानती हैं। यह ऐसा मामला नहीं है, जहां कोई दहेज वास्तव में दिया गया हो यहां केवल मांग का आरोप है।”
अदालत ने आगे कहा कि आरोपी की निरंतर हिरासत उसके परिवार के लिए अनुचित कठिनाई का कारण बनेगी और कोई व्यावहारिक उद्देश्य पूरा नहीं करेगी विशेष रूप से जब ट्रायल जल्दी समाप्त होने की संभावना नहीं है।
अदालत ने दोहराया,
“जमानत नियम है और जेल अपवाद यह आपराधिक न्याय का मूल सिद्धांत है।”
अदालत ने यह भी कहा कि आरोपी के फरार होने या साक्ष्य से छेड़छाड़ करने की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि वह समाज में अच्छी स्थिति में है और उसका परिवार यहीं है।
अदालत ने कहा,
“जमानत का प्रमुख उद्देश्य केवल अभियुक्त की ट्रायल के दौरान उपस्थिति सुनिश्चित करना है। जब वह किसी प्रकार का जोखिम नहीं पैदा कर रहा तो उसकी निरंतर कैद का कोई औचित्य नहीं।”

