शिक्षा और उच्च पद कार्यस्थल पर महिलाओं को यौन उत्पीड़न से नहीं बचाते, कड़े कानूनों के बावजूद पुरुषों की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट

Amir Ahmad

9 Sept 2025 11:53 AM IST

  • शिक्षा और उच्च पद कार्यस्थल पर महिलाओं को यौन उत्पीड़न से नहीं बचाते, कड़े कानूनों के बावजूद पुरुषों की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट

    शेक्सपियर का हवाला देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि कड़े कानूनों और लैंगिक तटस्थता व समानता के बार-बार विलाप के बावजूद कार्यस्थल पर पुरुषों का मनोविज्ञान और मानसिकता जहां यौन उत्पीड़न महिलाओं को परेशान करता रहता है, अपरिवर्तित बनी हुई है। खासकर जब इसमें शक्ति-गतिशीलता शामिल हो।

    जस्टिस नीना बंसल कृष्णा ने कहा,

    "अब, अनिच्छा से ही सही, महिलाओं के काम के समान अवसर के अधिकार को मान्यता मिल गई। हालांकि, कार्यस्थल पर आने वाली चुनौतियां दुर्गम हैं। अभी भी मर्दाना रणनीतिकारों द्वारा उनका विरोध किया जाता है, जिनके पास अपने कृत्यों और व्यवहारों को सही ठहराने के लिए दिखावटी कारण होते हैं। अंतर्निहित चुनौती कम रिपोर्टिंग है जो मुख्यतः सामाजिक दबाव प्रतिशोध के डर और अपराधी से प्रतिशोध के कारण होती है।”

    न्यायालय ने आगे कहा कि शिक्षा या उच्च सरकारी पद किसी महिला को यौन उत्पीड़न से सुरक्षा नहीं दे सकता।

    जस्टिस कृष्णा एक ऐसे व्यक्ति द्वारा दायर याचिका पर विचार कर रहे थे, जिसके विरुद्ध एक महिला ने कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम 2013 के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर सरकार के आतिथ्य एवं प्रोटोकॉल विभाग में शिकायत दर्ज कराई। जांच में यह निष्कर्ष निकला कि उसके विरुद्ध लगाए गए आरोप सिद्ध नहीं हुए।

    एक FIR भी दर्ज की गई, जिसमें दिल्ली पुलिस ने इस आधार पर एक क्लोजर रिपोर्ट दाखिल की कि शिकायत प्रेरित है। उस व्यक्ति के विरुद्ध लगाए गए आरोपों का समर्थन करने वाला कोई साक्ष्य रिकॉर्ड में नहीं था। एक पूरक क्लोजर रिपोर्ट भी दाखिल की गई।

    मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने कहा कि शिकायत समिति की कार्यवाही को आपराधिक मुकदमे के बराबर नहीं माना जा सकता और जांच अधिकारी द्वारा निकाले गए निष्कर्ष सही नहीं हैं। तदनुसार, आरोपी को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 354ए और 509 के तहत अपराध के लिए मुकदमे का सामना करने के लिए बुलाया गया।

    सेशन कोर्ट ने समन आदेश के विरुद्ध अभियुक्त की आपराधिक पुनर्विचार याचिका यह कहते हुए खारिज कर दी कि आपराधिक कार्यवाही और विभागीय कार्यवाही दो अलग-अलग प्रक्रियाएं हैं और विशिष्ट उद्देश्यों के साथ अलग-अलग क्षेत्रों में संचालित होती हैं।

    इसके बाद अभियुक्त ने समन आदेश के विरुद्ध हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और तर्क दिया कि (POSH Act) के तहत जम्मू और कश्मीर सरकार द्वारा गठित जांच समिति एक वैधानिक रिपोर्ट है। अदालतों द्वारा इसे नज़रअंदाज़ या दरकिनार नहीं किया जा सकता।

    यह प्रस्तुत किया गया कि शिकायतकर्ता के अभियुक्त के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध थे और उसने अभियुक्त की एक कुशल अधिकारी के रूप में प्रशंसा की और उसके सहयोग के लिए उसे धन्यवाद दिया। यह भी कहा गया कि शिकायतकर्ता द्वारा अपने समर्थन में प्रस्तुत किए गए गवाह यौन उत्पीड़न के आरोपों की पुष्टि नहीं करते।

    याचिका खारिज करते हुए न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि यद्यपि राज्य ने दो बार समापन रिपोर्ट दायर की थी। फिर भी मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट को संज्ञान लेने के लिए स्वतंत्र राय बनाने हेतु की गई जांच और एकत्र किए गए साक्ष्यों का मूल्यांकन करने का पूरा अधिकार है।

    उन्होंने आगे कहा कि विभागीय जांच में केवल दोषमुक्ति ही FIR में अभियुक्तों को दोषमुक्त करने का एकमात्र आधार नहीं हो सकती।

    न्यायालय ने कहा,

    “यह एक ऐसा मामला है, जहां तमाम बाधाओं के बावजूद प्रतिवादी नंबर 2/शिकायतकर्ता ने न केवल अपने वरिष्ठ द्वारा किए गए उत्पीड़न की रिपोर्ट करने का साहस जुटाया बल्कि सभी विपरीत परिस्थितियों का सामना किया। अपने लिए न्याय पाने के लिए अदालत तक बहादुरी से अपनी लड़ाई लड़ी। राज्य की शक्ति और उसकी शक्ति और साहस को कम करने के प्रयास को इस तथ्य से भी देखा जा सकता है कि राज्य ने FIR में एक बार नहीं बल्कि दो बार समापन रिपोर्ट दायर की। दुर्भाग्य से न्यायालय ने विवेकपूर्ण तरीके से कानून का पक्ष लिया, जो संयोगवश वर्तमान मामले में शिकायतकर्ता के पक्ष में है।”

    यह निष्कर्ष निकाला गया कि शिकायतकर्ता और गवाहों के बयान के माध्यम से पर्याप्त सामग्री मौजूद थी, जो प्रथम दृष्टया आरोपी के खिलाफ IPC की धारा 354ए और 509 के तहत अपराध का खुलासा करती है।

    केस टाइटल: आसिफ हामिद खान बनाम राज्य एवं अन्य

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