दिल्ली हाईकोर्ट ने नाबालिग बेटी से बार-बार बलात्कार के दोषी पिता की 20 साल की जेल की सजा बरकरार रखी

Amir Ahmad

29 Sept 2025 12:20 PM IST

  • दिल्ली हाईकोर्ट ने नाबालिग बेटी से बार-बार बलात्कार के दोषी पिता की 20 साल की जेल की सजा बरकरार रखी

    दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में अपनी 17 वर्षीय नाबालिग बेटी से बार-बार बलात्कार के दोषी पिता को दी गई 20 साल के कठोर कारावास की सजा बरकरार रखी।

    जस्टिस संजीव नरूला ने कहा कि यह सजा न्यायोचित और आनुपातिक है, जो अपराध की गंभीरता और पॉक्सो अधिनियम के वैधानिक प्रावधानों को दर्शाती है।

    अदालत ने कहा,

    "पीड़िता की गवाही हालांकि दोषरहित नहीं है। मूल आरोप पर विश्वसनीय है और DNA रिपोर्ट से भी इसकी पुष्टि होती है। झूठे आरोप लगाने का कोई कारण साबित नहीं हुआ है। उसके जननांगों के नमूनों में अपीलकर्ता के वीर्य की उपस्थिति हमले का निर्विवाद वैज्ञानिक प्रमाण है।"

    अदालत ने 2018 में दर्ज मामले में पिता को दोषी ठहराने और सज़ा सुनाने के निचली अदालत के आदेश के खिलाफ उनकी अपील खारिज कर दी। पिछले साल नवंबर में निचली अदालत ने उन्हें भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860 की धारा 376(2)(एन)(के) और यौन अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 की धारा 6 के तहत दंडनीय अपराधों के लिए दोषी ठहराया था। उन्हें 20 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई थी।

    पिता की सज़ा और दोषसिद्धि बरकरार रखते हुए अदालत ने कहा कि गंभीर अपराध स्पष्ट थे। अदालत ने आगे कहा कि यह अपराध कोई अकेली चूक नहीं थी बल्कि बॉयोलोजिकल पिता द्वारा अपनी नाबालिग बेटी पर धमकियों और जबरदस्ती के साथ लगातार यौन हमले किए जाने का मामला था।

    अदालत ने कहा,

    "ऐसा आचरण जो कानून और सबसे पवित्र पारिवारिक विश्वास दोनों का उल्लंघन करता है, न्यूनतम से कहीं अधिक सज़ा को उचित ठहराता है। इसलिए बीस साल के कठोर कारावास की सज़ा को न तो अवैध कहा जा सकता है और न ही अत्यधिक। इसके विपरीत यह अपराध की गंभीरता के अनुपात में एक प्रतिक्रिया है, जो वैधानिक व्यवस्था में दृढ़ता से निहित है और स्थापित कानूनी सिद्धांतों के अनुरूप है।"

    नाबालिग ने आरोप लगाया कि काफी समय से उसके पिता ने सोते समय उसका यौन उत्पीड़न किया और खुलासा न हो इसके लिए धमकियों और हिंसा का इस्तेमाल किया। मई, 2018 में नाबालिग के एक अस्पताल में जांच के दौरान गर्भवती पाए जाने के बाद उसे गिरफ्तार कर लिया गया।

    जस्टिस नरूला ने कहा कि निचली अदालत ने सही कहा था कि पिता को गर्भावस्था का स्रोत नहीं दिखाया गया। हालांकि, नाबालिग के योनि और गर्भाशय ग्रीवा के सैंपल में उसके वीर्य की उपस्थिति संबंधित अवधि के दौरान प्रवेशात्मक यौन उत्पीड़न का निर्णायक संकेत हैं।

    अदालत ने कहा कि पितृत्व का अभाव अपराध को मिटा नहीं देता यह केवल इसके एक संभावित परिणाम को खारिज करता है।

    पिता ने दलील दी कि 2019 से पहले हुए संशोधन के तहत POCSO Act की धारा 6 के तहत ट्रायल कोर्ट के पास 20 साल के कठोर कारावास की निश्चित अवधि लगाने का अधिकार नहीं है।

    अदालत ने कहा,

    "इसमें प्रयुक्त भाषा, यानी दस साल से कम नहीं लेकिन जो आजीवन कारावास तक बढ़ सकती है।"

    एक निश्चित न्यूनतम से अधिकतम तक की अवधि का पाठ्यपुस्तकीय संकेत है, जिसके भीतर अदालत सजा सुनाने के अपने विवेक का प्रयोग करती है। अपीलकर्ता का यह दृष्टिकोण वास्तव में IPC की धारा 307 के मॉडल पर पोक्सो की धारा 6 का पुनर्लेखन करेगा, जो कि पाठ में नहीं है।

    अदालत ने आगे कहा,

    "इन दो ध्रुवों के बीच न्यायिक कार्य सज़ा को दोषसिद्धि के आधार पर वर्गीकृत करना है। कुछ मामले स्पष्ट रूप से आजीवन कारावास की सज़ा के योग्य होंगे, जबकि अन्य न्यूनतम से अधिक गंभीर आजीवन कारावास की मांग नहीं कर सकते हैं। अदालतों को मान लीजिए 15 या 20 साल की सज़ा देने की क्षमता से वंचित करना इस श्रेणीबद्ध योजना को या तो सब कुछ या कुछ भी नहीं के विकल्प में बदल देगा, जो न तो शाब्दिक रूप से बाध्यकारी है और न ही मानक रूप से सही है।”

    अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि सज़ा देना कोई अंकगणितीय अभ्यास नहीं है बल्कि एक गंभीर न्यायिक कार्य है, जिसके लिए व्यक्तिगत परिस्थितियों और समाज की न्याय की मांग के बीच संतुलन की आवश्यकता होती है।

    अदालत ने कहा,

    “जहां पीड़िता एक नाबालिग बेटी है और अपराधी उसका अपना पिता है। वहां उल्लंघन दोगुना गंभीर है जो गहरा शारीरिक और मनोवैज्ञानिक आघात पहुंचता है। घर के भीतर उसकी सुरक्षा की भावना को चकनाचूर कर देता है। इस संदर्भ में दी गई सज़ा पीड़िता की गरिमा की पुष्टि करती है। ऐसे अपराधों के प्रति समाज की घृणा को दर्शाती है और POCSO के सुरक्षात्मक जनादेश को बरकरार रखती है।”

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