प्रतीक्षा सूची के उम्मीदवार को नियुक्ति का अंतर्निहित अधिकार नहीं, एक वर्ष के बाद चयनित उम्मीदवारों की सूची को चुनौती नहीं दे सकते: दिल्ली हाइकोर्ट

Amir Ahmad

4 Jun 2024 7:01 AM GMT

  • प्रतीक्षा सूची के उम्मीदवार को नियुक्ति का अंतर्निहित अधिकार नहीं, एक वर्ष के बाद चयनित उम्मीदवारों की सूची को चुनौती नहीं दे सकते: दिल्ली हाइकोर्ट

    जस्टिस तुषार राव गेडेला की दिल्ली हाइकोर्ट की पीठ ने माना कि प्रतीक्षा सूची वाले उम्मीदवार को किसी भी तरह का अधिकार नहीं होगा, विचार किए जाने का अधिकार तो दूर की बात है। इसके अलावा पीठ ने माना कि एक बार उम्मीदवारों की अंतिम चयन सूची को पद पर नियुक्ति की पेशकश की गई और ऐसे पदाधिकारियों द्वारा उक्त प्रस्ताव स्वीकार करने और उक्त पद पर कब्जा करने के बाद उम्मीदवार को एक वर्ष से अधिक समय बीतने के बाद इसे चुनौती देने की अनुमति नहीं दी जा सकती।

    संक्षिप्त तथ्य:

    याचिकाकर्ता ने दिल्ली हाइकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज दिल्ली द्वारा जारी भर्ती अधिसूचना रद्द करने और याचिकाकर्ता को असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर विचार करने का निर्देश देने के लिए रिट याचिका दायर की। याचिकाकर्ता ने स्वीकार किया कि वह चयनित उम्मीदवारों की अंतिम सूची में नहीं आ पाया था, लेकिन उसे प्रतीक्षा सूची में क्रमांक 3 पर रखा गया। इंटरव्यू और चयन समिति की सिफारिशों के आधार पर जारी नोटिस में प्रतिवादी क्रमांक 3 को ओबीसी श्रेणी में क्रमांक 2 पर सफल के रूप में सूचीबद्ध किया गया।

    याचिकाकर्ता का मुख्य तर्क यह था कि प्रतिवादी क्रमांक 3 बिहार राज्य की केंद्रीय सूची के अनुसार ओबीसी उम्मीदवार नहीं है। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि यदि प्रतिवादी क्रमांक 3 की उम्मीदवारी अमान्य कर दी जाती है तो याचिकाकर्ता रिक्त पद के लिए हकदार होगा। तर्क यह था कि प्रतीक्षा सूची में पहला उम्मीदवार पीडब्ल्यूबीडी श्रेणी का है, जो ओबीसी श्रेणी के लिए योग्य नहीं है। प्रतीक्षा सूची में दूसरा उम्मीदवार, जो ओबीसी उम्मीदवार भी था दुर्भाग्य से मर चुका है। इससे याचिकाकर्ता इस पद के लिए एकमात्र योग्य ओबीसी उम्मीदवार रह गया।

    हाइकोर्ट द्वारा अवलोकन:

    हाइकोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता द्वारा दाखिल दस्तावेजों में बिहार राज्य द्वारा जारी प्रमाण पत्र शामिल था, जो प्रतिवादी नंबर 3 को बिहार के लिए ओबीसी श्रेणी के व्यक्तियों की केंद्रीय सूची में शामिल करने को प्रमाणित करता था। यह प्रमाण पत्र याचिकाकर्ता की रिट याचिका में संदर्भित सूची से मेल खाता था। प्रतिवादी के जाति प्रमाण पत्र ने इस वर्गीकरण की पुष्टि की।

    यह देखते हुए कि यह प्रमाण पत्र सक्षम प्राधिकारी द्वारा याचिकाकर्ता के समान ही जारी किया गया, हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता द्वारा प्रतिवादी संख्या 3 के पद के अधिकार को चुनौती देने का कोई आधार नहीं पाया।

    हाइकोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि यदि याचिकाकर्ता को प्रमाण पत्र की प्रामाणिकता पर संदेह है तो वह कानून के अनुसार इसे चुनौती देने के लिए स्वतंत्र है। हालांकि प्रतिवादी नंबर 3 की नियुक्ति को बिना किसी ठोस सबूत के याचिकाकर्ता द्वारा दी गई चुनौती को अस्थिर माना गया।

    हाइकोर्ट ने माना कि प्रतीक्षा सूची में शामिल उम्मीदवार को नियुक्ति का कोई अंतर्निहित अधिकार नहीं है। इसने कर्नाटक राज्य और अन्य बनाम भारती एस. मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रतीक्षा सूची के प्रकाशन से नियुक्ति का अधिकार नहीं बनता। ऐसी सूची से रिक्तियों को भरना तब तक अनिवार्य नहीं है, जब तक कि विशिष्ट नियमों द्वारा अनिवार्य न किया गया हो। हाइकोर्ट ने माना कि प्रतीक्षा सूची से रिक्तियों को भरने का निर्णय राज्य के विवेक पर है, बशर्ते कि यह मनमाने ढंग से न किया जाए और न्यायिक पुनर्विचार के अधीन रहे।

    हाइकोर्ट ने माना कि याचिका तुच्छ और बिना योग्यता वाली थी। इसलिए हाइकोर्ट ने याचिका खारिज कर दी। याचिकाकर्ता को दिल्ली हाइकोर्ट विधिक सेवा प्राधिकरण को 15,000 रुपये का खर्च अदा करने का आदेश दिया गया।

    केस यूनिवर्सिटी: मोहम्मद इनामुल हक बनाम दिल्ली यूनिवर्सिटी और अन्य।

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