प्रक्रिया न्याय की दासी, इसे मूल अधिकारों के नाम पर पराजित नहीं किया जा सकता: दिल्ली हाईकोर्ट
Amir Ahmad
11 Sept 2025 2:38 PM IST

दिल्ली हाईकोर्ट ने बुधवार को कहा कि प्रक्रिया न्याय की दासी है और तकनीकी पहलुओं को पक्षकारों के मूल अधिकारों का उल्लंघन करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। हालांकि, मूल अधिकारों के नाम पर प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं को नष्ट नहीं किया जा सकता।
जस्टिस गिरीश कठपालिया ने कहा,
"मूल अधिकारों का दावा और प्रदानीकरण भी कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन करते हुए किया जाना चाहिए...यदि इसका पालन नहीं किया गया तो दीवानी प्रक्रिया के संहिताकरण का पूरा उद्देश्य ही निरर्थक हो जाएगा।"
पीठ ICAR राष्ट्रीय पादप जैव प्रौद्योगिकी अनुसंधान केंद्र द्वारा दायर याचिका पर विचार कर रही थी, जो धन वसूली के एक मुकदमे में प्रतिवादी है, जिसने उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसके तहत उसके बचाव को रद्द कर दिया गया था।
हाईकोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता-प्रतिवादी को जुलाई, 2018 में मुकदमे में सम्मन जारी किया गया। हालांकि, वह जनवरी 2019 तक लिखित बयान दाखिल करने में विफल रहा, जिसके कारण निचली अदालत ने उसका बचाव खारिज कर दिया।
लगभग एक वर्ष की भारी देरी और प्रतिवादी द्वारा सरकारी तंत्र में देरी के नियमित स्पष्टीकरण पर चिंता जताते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि याचिका नोटिस जारी करने के लिए भी उपयुक्त नहीं है।
कहा गया,
"सरकारी प्राधिकारियों के लिए कोई अलग प्रक्रियात्मक कानून नहीं है। वर्तमान याचिकाकर्ता को लिखित बयान दाखिल करने के पर्याप्त अवसर दिए गए लेकिन उनका लाभ नहीं उठाया गया। याचिकाकर्ता द्वारा स्थापित मामले में किसी भी असाधारण परिस्थिति को दर्शाने वाले किसी भी कथन का लेशमात्र भी उल्लेख नहीं है, जो देरी को क्षमा करने को उचित ठहरा सके।"
इसमें आगे कहा गया,
“याचिकाकर्ता राज्य का एक अंग होने के नाते अवैयक्तिक तंत्र के कारण कुछ सुस्ती और लापरवाही या जानबूझकर दूसरे पक्ष की मदद करने में चूक की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसे मामले में, जहां सरकारी अधिकारी चूक का कारण धोखाधड़ी या अपने अधिकारियों की विरोधी पक्ष के साथ मिलीभगत साबित कर पाते हैं, स्थिति अलग हो सकती है। हालांकि, वर्तमान मामला ऐसा नहीं है।”
इस प्रकार याचिका खारिज कर दी गई।

