क्या AFT को मिल सकता है संविधानिक वैधता पर फैसला सुनाने का अधिकार? दिल्ली हाईकोर्ट ने फुल बेंच को सौंपी बड़ी बहस
Amir Ahmad
26 Sept 2025 5:27 PM IST

दिल्ली हाईकोर्ट की फुल बेंच यह तय करेगी कि आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्यूनल (AFT) को AFT Act के अलावा अन्य वैधानिक कानूनों की संवैधानिक वैधता पर निर्णय देने का अधिकार है या नहीं।
जस्टिस सी. हरि शंकर और जस्टिस ओम प्रकाश शुक्ला की खंडपीठ ने इस सवाल को तीन जजों वाली फुल बेंच के पास भेजा है।
फुल बेंच यह भी देखेगी कि हाईकोर्ट की पूर्व की तीन जजों वाली बेंच का फैसला क्या AFT को नेवी एक्ट जैसी अन्य वैधानिक व्यवस्थाओं की संवैधानिकता पर विचार करने का अधिकार देता है। इसके साथ ही यह सवाल भी तय होगा कि यदि इस प्रकार की व्याख्या स्वीकार की जाती है तो क्या यह सिद्धांत उन सभी ट्रिब्यूनलों पर भी लागू होगा जो संविधान के अनुच्छेद 323A और 323B के अंतर्गत गठित नहीं हैं।
मामला मनीष कुमार गिरी नामक याचिकाकर्ता का है, जिन्हें भारतीय नौसेना में नाविक (सीनियर सेकेंडरी रिक्रूट) के रूप में भर्ती किया गया। वर्ष 2017 में उन्हें सर्विसेज़ नो लॉन्गर रिक्वायर्ड के आधार पर सेवा से प्रशासनिक रूप से मुक्त कर दिया गया। उन्होंने अपने निष्कासन आदेश को चुनौती दी और पुनर्बहाली के साथ समस्त बकाया वेतन की मांग की।
याचिका में नौसेना अधिनियम की धारा 9 तथा नौसेना विनियमों (भाग III) की विनियम 261, 268, 269, 278 और 279 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई। तर्क दिया गया कि ये प्रावधान असंवैधानिक हैं, क्योंकि इनमें ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की पहचान को मान्यता नहीं दी गई।
याचिकाकर्ता ने कहा कि नौसेना सेवा के दौरान वह धीरे-धीरे महिला के रूप में स्वयं की पहचान करने लगे और 2015 में नौसेना अधिकारियों को इस बारे में सूचित किया कि वह जेंडर डिस्फोरिया से पीड़ित हैं और मेडिकल हस्तक्षेप की आवश्यकता है। हालांकि, अधिकारियों ने उनकी बात पर ध्यान न देकर उन्हें मनोचिकित्सीय परामर्श में भेज दिया।
अक्टूबर, 2016 में उन्होंने दिल्ली प्राइवेट अस्पताल में सेक्स चेंज की सर्जरी कराई। आरोप है कि इसकी जानकारी मिलते ही नौसेना अधिकारियों ने उन्हें पांच महीने तक मनोचिकित्सीय वार्ड में रखा और कई मेडिकल जांच से गुजरने के लिए विवश किया।
अप्रैल, 2017 में काम पर लौटने के बाद उन्हें नोटिस दिया गया और उत्तर देने के बावजूद सेवा से मुक्त कर दिया गया। आदेश में कहा गया कि “मौजूदा सेवा नियम और विनियम नाविक की परिवर्तित सेक्स स्थिति, मेडिकल अवस्था और परिणामी कार्यक्षमता की वजह से उसकी सेवाएं जारी रखने की अनुमति नहीं देते।”
अदालत ने कहा कि AFT में एकल सदस्यीय पीठ की कोई अवधारणा नहीं है और अधिनियम की धारा 5(2) के अनुसार प्रत्येक पीठ में प्रशासनिक सदस्य और न्यायिक सदस्य होता है। इस प्रकार, AFT के पास संवैधानिक वैधता से जुड़ी चुनौतियों पर विचार करने की क्षमता है, विशेष रूप से उसके न्यायिक सदस्यों के अनुभव को देखते हुए।
हालांकि अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि AFT, अनुच्छेद 323A के तहत गठित ट्रिब्यूनल नहीं है और न ही सशस्त्र बलों से संबंधित विवाद अनुच्छेद 323B के दायरे में आते हैं। AFT को संसद के अधिनियम (AFT Act, 2007) के तहत गठित किया गया, जबकि अन्य प्रशासनिक ट्रिब्यूनल सीधे संविधान से शक्ति प्राप्त करते हैं।
नीलम चाहर मामले में दिए गए फुल बेंच निर्णय का हवाला देते हुए अदालत ने कहा,
“एक अतिरिक्त चिंता यह भी है कि यदि AFT को संसदीय कानूनों की संवैधानिक वैधता पर निर्णय देने में सक्षम माना जाता है तो क्या यह सिद्धांत उन सभी ट्रिब्यूनलों तक विस्तारित होगा, जो अनुच्छेद 323A या 323B के अंतर्गत गठित नहीं हैं।”
अदालत ने कहा कि इस प्रश्न का महत्व सार्वजनिक है और इसे फुल बेंच के समक्ष रखा जाना उचित है। इसलिए मामले को चीफ जस्टिस द्वारा गठित की जाने वाली फुल बेंच को भेजा जाता है।

