लंबे समय तक कारावास जीवन के अधिकार को कमजोर करता है, सशर्त स्वतंत्रता को MCOCA के तहत जमानत की पाबंदियों पर प्राथमिकता दी जानी चाहिए: दिल्ली हाईकोर्ट
Amir Ahmad
14 May 2025 1:25 PM IST

दिल्ली हाईकोर्ट ने यह निर्णय दिया कि महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (MCOCA) की धारा 21 के तहत जमानत पर लगाए गए वैधानिक प्रतिबंधों की तुलना में सशर्त स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
जस्टिस अमित महाजन ने कहा कि हालांकि किसी आरोपी को जमानत देने के लिए कानून द्वारा कठोर शर्तें तय की गई, फिर भी यदि मुकदमे में अत्यधिक देरी हो रही हो तो उस आधार पर जमानत दी जा सकती है।
कोर्ट ने कहा,
“विभिन्न न्यायालयों ने इस बात को स्वीकार किया कि लंबे समय तक कारावास व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त) को कमजोर करता है। इसलिए सशर्त स्वतंत्रता को धारा 21 के अंतर्गत जमानत पर रोक की तुलना में प्राथमिकता दी जानी चाहिए।”
कोर्ट ने यह टिप्पणी करते हुए राजेश कुमार उर्फ राजे को जमानत दी, जो 2018 में विशेष प्रकोष्ठ द्वारा दर्ज FIR में आरोपी है। उस पर MCOCA की धारा 3 और 4 के तहत संगठित अपराध से संबंधित अपराधों का आरोप था।
एक छापेमारी में आरोपी को 3 किलोग्राम हेरोइन के साथ पकड़ा गया था। आरोप था कि जब उसे गिरफ्तार किया गया तब वह एक कार में यात्रा कर रहा था, जो एक अन्य सह-अभियुक्त के नाम पर थी। उस सह-अभियुक्त पर मादक पदार्थ अधिनियम (NDPS Act) 1985 के तहत पहले से 20 मामले दर्ज है।
अभियोजन पक्ष के अनुसार आरोपी ने पूछताछ में अपराध सिंडिकेट के अन्य सदस्यों के नाम बताए, जिससे आगे गिरफ्तारी और मादक पदार्थों की जब्ती हुई।
बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि आरोपी केवल सह-अभियुक्त का ड्राइवर था और उसे गाड़ी में मौजूद नशीले पदार्थों की कोई जानकारी नहीं थी। जमानत इस आधार पर मांगी गई कि आरोपी लंबे समय से जेल में है। मुकदमे में अत्यधिक देरी हो रही है। बचाव पक्ष ने यह भी कहा कि MCOCA की धाराओं को आरोपी पर गलत तरीके से लागू किया गया।
विशेष लोक अभियोजक ने जमानत का विरोध करते हुए कहा कि आरोप गंभीर प्रकृति के हैं। आरोपी को राहत देने के बजाय मुकदमे को तेज़ी से पूरा किया जाना चाहिए।
कोर्ट ने पाया कि आरोपी पहले ही छह साल से अधिक समय से हिरासत में है, जबकि अब तक अभियोजन पक्ष केवल 100 में से 11 गवाहों की ही गवाही करवा पाया।
कोर्ट ने टिप्पणी की,
“ऐसे मामले में त्वरित न्याय की संभावना नहीं दिखती और मुकदमा पूरा होने में लंबा समय लग सकता है।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि इस मामले में आरोपित सिंडिकेट की गतिविधियों के कारण किसी की मृत्यु नहीं हुई और आरोपित अपराधों के लिए न्यूनतम सजा केवल 5 वर्ष है।
कोर्ट ने यह भी नोट किया कि अभियोजन पक्ष का यह भी दावा नहीं है कि आरोपी उस कथित सिंडिकेट का प्रमुख है। साथ ही आरोपी को NDPS अधिनियम के तहत दर्ज मामले में पहले ही जमानत मिल चुकी है और दूसरे मामले में वह बरी हो चुका है।
कोर्ट ने यह भी ध्यान में रखा कि आरोपी का आचरण संतोषजनक रहा है, जब उसे पहले अंतरिम जमानत पर छोड़ा गया था, तब उसने किसी भी प्रकार से अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग नहीं किया।
कोर्ट ने कहा,
“ऐसी परिस्थितियों में मामले की मेरिट पर कोई टिप्पणी किए बिना यह अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि आवेदक ने मुकदमे में अत्यधिक देरी के आधार पर जमानत पाने का प्रथम दृष्टया मामला प्रस्तुत किया है।”
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस आदेश में की गई कोई भी टिप्पणी केवल वर्तमान जमानत याचिका के निर्णय तक सीमित है। इसका ट्रायल की प्रक्रिया या उसके परिणाम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
केस टाइटल: राजेश कुमार उर्फ राजे बनाम राज्य, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार

