शारीरिक दंड शिक्षा का हिस्सा नहीं, अनुच्छेद 21 के विरुद्ध: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने स्टूडेंट की आत्महत्या के मामले में शिक्षक को राहत देने से किया इनकार
Amir Ahmad
6 Aug 2024 3:23 PM IST
यह देखते हुए कि किसी बच्चे को सुधारने के लिए उसे शारीरिक दंड देना शिक्षा का हिस्सा नहीं हो सकता और यह अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत बच्चे की जीवन और स्वतंत्रता की स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है, उसकी गरिमा को छीनता है, छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने हाल ही में शिक्षक द्वारा दायर याचिका खारिज की। उक्त याचिका में 12 वर्षीय स्टूडेंट को आत्महत्या के लिए उकसाने के संबंध में एफआईआर रद्द करने की मांग की गई थी।
चीफ जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस रवींद्र कुमार अग्रवाल की खंडपीठ ने अपने आदेश में कहा,
"हमें यह भी लगता है कि शारीरिक दंड बच्चे की गरिमा के अनुरूप नहीं है। इसके अलावा अनुशासन या शिक्षा के नाम पर स्कूल में बच्चे को शारीरिक हिंसा के अधीन करना क्रूरता है। बच्चा अनमोल राष्ट्रीय संसाधन है, जिसका पालन-पोषण और देखभाल कोमलता और देखभाल के साथ की जानी चाहिए, न कि क्रूरता के साथ। बच्चे को सुधारने के लिए उसे शारीरिक दंड देना शिक्षा का हिस्सा नहीं हो सकता।”
29 जुलाई के अपने आदेश में न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि किसी बच्चे को शारीरिक दंड देना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसके जीवन के अधिकार का उल्लंघन करता है, जो क्रूरता, शारीरिक या मानसिक हिंसा, चोट या दुर्व्यवहार, शोषण और यौन दुर्व्यवहार के विरुद्ध स्वतंत्रता की गारंटी देता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि ये अधिकार बच्चों पर भी लागू होते हैं, जो समान रूप से मानव हैं और सम्मान के पात्र हैं।
इसके अलावा, न्यायालय ने बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ एवं अन्य 1997 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि जब तक बच्चे के सामाजिक और शारीरिक स्वास्थ्य के अनुकूल माहौल नहीं बनाया जाता, तब तक वह समाज का जिम्मेदार और उत्पादक सदस्य नहीं बन सकता।
न्यायालय ने ये टिप्पणियां राज्य के सरगुजा जिले के स्कूल में शिक्षिका सिस्टर मर्सी उर्फ एलिजाबेथ जोस द्वारा दायर याचिका खारिज करने वाली एफआईआर और चार्जशीट पर विचार करते हुए कीं। उन पर छठी कक्षा की छात्रा को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 305 के तहत मामला दर्ज किया गया।
स्टूडेंट ने इस साल फरवरी में फांसी लगा ली थी और सुसाइड नोट छोड़ गई थी, जिसमें याचिकाकर्ता (उसकी शिक्षिका) पर उत्पीड़न का आरोप लगाया गया। कथित तौर पर याचिकाकर्ता (शिक्षिका) ने पीड़ित लड़की को उसकी दो सहपाठियों के साथ स्कूल के शौचालय में पाया और उनके पहचान पत्र जब्त कर लिए थे।
पीड़िता ने इसलिए आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसे डर था कि उसे अपने माता-पिता को घटना के बारे में बताना होगा और उन्हें स्कूल लाना होगा।
मामले में राहत की मांग करते हुए याचिकाकर्ता ने अदालत का रुख किया और तर्क दिया कि उसने स्कूल में सामान्य अनुशासनात्मक प्रक्रिया के अनुसार केवल स्टूडेंट को डांटा था और उसका आईडी कार्ड ले लिया था।
उसके वकील ने आगे दलील दी कि उसका कभी भी स्टूडेंट को आत्महत्या के लिए उकसाने का कोई इरादा नहीं था। वह केवल स्कूल में अनुशासन बनाए रखने के लिए शिक्षक के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन कर रही थी।
शुरू में अदालत ने कहा कि निरस्तीकरण याचिका पर सुनवाई के चरण में अदालत को केवल अभियोजन पक्ष की सामग्री पर विचार करना होता है। वह अभियुक्त के बचाव में गहराई से नहीं जा सकती और फिर प्रस्तुत किए गए साक्ष्यों का मूल्यांकन करके मामले की योग्यता के आधार पर जांच नहीं कर सकती।
इस पृष्ठभूमि में अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ता के खिलाफ विशिष्ट आरोप लगाया गया कि उसने कथित तौर पर स्टूडेंट को आत्महत्या के लिए उकसाया था।
न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि याचिका में किए गए दावे कि याचिकाकर्ता के खिलाफ लगाए गए आरोप झूठे हैं और BNSS की धारा 528 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते समय उन पर गौर नहीं किया जा सकता।
इसे देखते हुए न्यायालय ने उनकी याचिका खारिज कर दी।
केस टाइटल - सिस्टर मर्सी @ एलिजाबेथ जोस (देवसिया) बनाम छत्तीसगढ़ राज्य