'पत्नी के धैर्य को कमजोरी या झूठी कहानी गढ़ने की कोशिश न समझें': मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने के आरोपी पति की जमानत रद्द की

Manisha Khatri

10 May 2022 6:17 AM GMT

  • Writ Of Habeas Corpus Will Not Lie When Adoptive Mother Seeks Child

    MP High Court

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट, ग्वालियर बेंच ने हाल ही में अपनी पत्नी के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने के आरोपी एक व्यक्ति की जमानत रद्द कर दी।

    अदालत ने कहा कि निचली अदालत ने आरोपी/पति को अग्रिम जमानत देते समय आवेदक/पत्नी की ओर से भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत अपराध के खुलासे में देरी करने को आधार बनाया था,जो अनुचित है। वहीं आसपास के हालात पर विचार किए बिना ही इस देरी को जमानत देने का आधार बना दिया गया।

    जमानत रद्द करने की अर्जी पर फैसला सुनाते हुए जस्टिस जीएस अहलूवालिया ने कहा-

    ''यह अदालत इस तथ्य को नहीं भूल सकती है कि एक पत्नी उत्पीड़न या दुर्व्यवहार के प्रत्येक कृत्य की शिकायत करने के लिए पुलिस स्टेशन जाने में धीमी रहती है। पत्नी का पहला इरादा अपने विवाहित जीवन को बचाना और अपने ससुराल वालों के साथ-साथ उसके पति को पर्याप्त समय देना होता है, ताकि स्थिति में सुधार हो सके। पत्नी द्वारा दिखाए गए इस धैर्य को कमजोरी या झूठी कहानी बनाने का प्रयास नहीं माना जाना चाहिए। इस प्रकार, यदि आवेदक एक वर्ष तक चुप रही और उसने अपने माता-पिता को अपने पति द्वारा किए गए अप्राकृतिक यौन संबंध के बारे में कुछ नहीं बताया, तो यह नहीं कहा जा सकता है कि चुप रहने का उसका आचरण और कुछ नहीं बल्कि देरी को समझाने का एक प्रयास है।''

    अभियोजन के अनुसार, आवेदक/पत्नी को उसके पति/आरोपी और उसके ससुराल वालों द्वारा दहेज के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा था। हालांकि, अपने माता-पिता के गौरव को बचाने के लिए, उसने अपने माता-पिता के साथ अपनी पीड़ा साझा किए बिना चुपचाप उत्पीड़न को सहन किया। इसके अलावा, उसका पति नियमित रूप से उससे अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने के लिए कहता था। इसका विरोध करने पर आरोपी ने उसे जान से मारने की धमकी दी। अंततः उसे उसके ससुराल वालों ने उसे ससुराल से निकाल दिया, लेकिन उसने अपनी शादी को बचाने की उम्मीद में एफआईआर दर्ज कराने से पहले 10 महीने तक इंतजार किया। इसके बाद ही उसने अपने पति के खिलाफ दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3,4 और भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए, 323, 377, 506 के तहत दंडनीय अपराधों के लिए एफआईआर दर्ज करवाई।

    पति ने निचली अदालत के समक्ष अग्रिम जमानत के लिए एक आवेदन दायर किया और उसके आवेदन को स्वीकार कर लिया गया। उक्त आदेश से व्यथित होकर आवेदक/पत्नी ने सीआरपीसी की धारा 439(2) के तहत आरोपी की जमानत रद्द करने के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।

    आवेदक ने हाईकोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किया कि निचली अदालत ने अग्रिम जमानत देते समय यह आधार लिया कि एफआईआर दर्ज करने में देरी हुई क्योंकि उसने अपना वैवाहिक घर छोड़ने के 10 महीने बाद और कथित अप्राकृतिक यौन संबंध के 13 महीने बाद अपराध दर्ज कराया। परंतु ऐसा करते समय महत्वपूर्ण तथ्यों पर विचार नहीं किया गया। उसने तर्क दिया कि अदालत यह मानने में विफल रही है कि उसकी पहली प्राथमिकता उसकी शादी को बचाना था। उन्होंने जोर देकर कहा कि यदि कोई लड़की अपने विवाहित जीवन को बचाने के लिए कड़ी मेहनत कर रही है, तो इस तरह के आचरण को अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने के आरोपों (आरोप लगाने में हुई देरी के कारण)पर अविश्वास करने का आधार नहीं बनाया जा सकता है। उसने आगे कहा कि जब तक किसी आरोप को लिमिटेशन द्वारा वर्जित/बाधित नहीं किया जाता है, निचली अदालत को जमानत देने के स्तर पर विलंबित आरोपों के संबंध में कोई निष्कर्ष नहीं देना चाहिए था। उसने यह भी तर्क दिया कि निचली अदालत ने यह मानने में भी महत्वपूर्ण अनियमितता की है कि उसके पति को हिरासत में लेकर पूछताछ करने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए, उसने अदालत से प्रार्थना करते हुए कहा कि उसके पति की जमानत रद्द कर दी जाए।

    दूसरी तरफ पति/आरोपी ने तर्क दिया कि जमानत रद्द करने का मानदंड जमानत देने के मानदंड से पूरी तरह अलग है। उन्होंने कहा कि ऐसा कोई आरोप नहीं है कि अग्रिम जमानत मिलने के बाद उसने स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया या जांच में सहयोग नहीं किया है।

    अदालत ने रिकॉर्ड पर आए दस्तावेजों और पार्टियों की प्रस्तुतियों पर विचार करते हुए कहा कि दहेज की मांग और उक्त मांग को पूरा न करने के कारण शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न करने के संबंध में विशिष्ट आरोप लगाए गए हैं-

    वहीं एफआईआर में विशिष्ट आरोप है कि उसके पति द्वारा अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने के कृत्य के बारे में आवेदक ने अपने सास-ससुर को बताया था। इसलिए, कल्पना के किसी भी स्तर से यह नहीं कहा जा सकता है कि प्रतिवादी नंबर-1 द्वारा बनाए गए अप्राकृतिक यौन संबंध के बारे आवेदक चुप रही है। इसके अलावा रूपाली देवी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2019) 5 एससीसी 384 के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित निर्णय के आलोक में दहेज की मांग पूरी न होने के कारण एक विवाहित महिला को अपने पैतृक घर में रहने के लिए मजबूर करना भी एक क्रूरता है।

    इस प्रकार, न्यायालय ने नोट किया कि निचली अदालत ने आक्षेपित आदेश पारित करते समय महत्वपूर्ण अवैधता की है-

    दहेज की मांग के साथ-साथ आवेदक के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने के आरोपों की गंभीरता को देखते हुए, इस न्यायालय का विचार है कि निचली अदालत ने प्रतिवादी नंबर-1 को अग्रिम जमानत देकर एक महत्वपूर्ण/भौतिक अवैधता की है। तद्नुसार, जमानत आवेदन संख्या 407/2021 में प्रथम अपर सत्र न्यायाधीश, गंज बसौदा, जिला विदिशा द्वारा पारित आदेश दिनांक 5/10/2021 को रद्द किया जाता है।

    उपरोक्त टिप्पणियों के साथ, अदालत ने आवेदन को स्वीकार कर लिया और पति/आरोपी को पुलिस अधिकारियों के समक्ष आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया है।

    केस का शीर्षक-मेघना अग्रवाल बनाम अनुराग बगड़िया व अन्य

    आदेश पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें



    Next Story