करदाताओं के पैसे और न्यायिक समय की बर्बादी : कोर्ट ने दंगों के मामलों की 'घटिया' जांच पर दिल्ली पुलिस को फटकार लगाई -10 बयान
LiveLaw News Network
3 Sept 2021 5:31 PM IST
दिल्ली की एक कोर्ट ने दिल्ली दंगों में निष्पक्ष जांच के मुद्दे पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए गुरुवार को तीन लोगों दंगे, आगजनी, और विभिन्न अपराधों में दर्ज मामले में जमानत दे दी।
दिल्ली की कोर्ट ने दंगों में हुई हिंसा की 'घटिया', 'कठोर' और 'उदासीन' जांच के लिए दिल्ली पुलिस को कड़ी फटकार लगाई। उल्लेखनीय है कि दिल्ली दंगे में लगभग 53 लोग मारे गए और 200 अन्य लोग घायल हो गए (आधिकारिक तौर पर)।
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव ने कहा , 'जब इतिहास दिल्ली में विभाजन के बाद के सबसे भीषण सांप्रदायिक दंगों को देखेगा, तो नवीनतम वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करके उचित जांच करने में जांच एजेंसी की विफलता निश्चित रूप से लोकतंत्र के प्रहरी को पीड़ा देगी।'
कोर्ट ने आप के पूर्व पार्षद ताहिर हुसैन के भाई शाह आलम, राशिद सैफी और शादाब सहित तीन आरोपियों को बरी करते हुए उक्त टिप्पणियां की।
संक्षिप्त में मामला
मामले में धारा 147, 148, 149, 427, 380, 454, 436, 435 और 120-बी आईपीसी के तहत दो शिकायतों के आधार पर प्राथमिकी दर्ज की गई थी। शिकायतों में आरोप लगाया गया था कि चांद बाग इलाके में दिल्ली दंगों के दौरान एक दुकान को जला दिया गया, हमला किया गया और लूट लिया गया।
मामले के तथ्यों को देखते हुए, अदालत ने इस तथ्य पर ध्यान दिया कि आरोपियों का न तो प्राथमिकी में विशेष रूप से नाम था और न ही मामले में उन्हें कोई विशिष्ट भूमिका सौंपी गई थी।
अदालत ने यह भी कहा कि घटना का कोई सीसीटीवी फुटेज नहीं था, जिससे अपराध स्थल पर आरोपी की मौजूदगी की पुष्टि की जा सके और कथित आपराधिक साजिश के संबंध में कोई स्वतंत्र चश्मदीद या सबूत पेश नहीं किया गया।
इस पृष्ठभूमि में अदालत द्वारा की गई कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियों पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है, जो यह संकेत देती हैं कि दिल्ली पुलिस द्वारा अदालत को धोखा देने का प्रयास किया गया था।
इस मामले पर अदालत के शीर्ष दस उद्धरण इस प्रकार हैं:
-यह न्यायालय ऐसे मामलों को न्यायिक प्रणाली के गलियारों में बिना सोचे-समझे इधर-उधर भटकने की अनुमति नहीं दे सकता है, यह इस न्यायालय के कीमती न्यायिक समय को नष्ट कर देता है जब यह बिलकुल साफ मामला होता है ।
-(दिल्ली दंगों के मामले में) बड़ी संख्या में ऐसे आरोपी व्यक्ति हैं, जो पिछले डेढ़ साल से जेल में केवल इस कारण से बंद हैं कि उनके मामलों में मुकदमा शुरू नहीं किया जा रहा है। पुलिस अभी भी पूरक चार्जशीट दाखिल करने में व्यस्त नजर आ रही है। इस न्यायालय का कीमती न्यायिक समय उन मामलों में तारीखें देकर बर्बाद किया जा रहा है।
-इस न्यायालय का बहुत समय मौजूदा मामले की तरह के मामलों में व्यतीत हो रहा है, जहां पुलिस द्वारा शायद ही कोई जांच की जाती है।
-इस मामले की पीड़ा शिकायतकर्ता/पीड़ित की पीड़ा है, जिसका मामला वस्तुतः अनसुलझा है; कठोर और अकर्मण्य जांच; वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा जांच के पर्यवेक्षण की कमी और करदाता के समय और धन की आपराधिक बर्बादी।
-इस मामले में जिस तरह की जांच की गई और वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा उसकी निगरानी की कमी स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि जांच एजेंसी ने केवल अदालत की आंखों पर पट्टी बांधने की कोशिश की है और कुछ नहीं।
-यह मामला करदाताओं की गाढ़ी कमाई की भारी बर्बादी है, इस मामले की जांच करने का कोई वास्तविक इरादा नहीं है।
-चश्मदीद गवाहों, असली आरोपियों और तकनीकी सबूतों का पता लगाने के लिए कोई वास्तविक प्रयास किए बिना इस आरोप पत्र को दाखिल करने से मामला सुलझा हुआ प्रतीत होता है।
-यह बात समझ में नहीं आती है कि किसी ने दंगाइयों की इतनी बड़ी भीड़ को नहीं देखा जब वे बर्बरता, लूटपाट और आगजनी की होड़ में थे।
-शिकायत की उचित मात्रा में संवेदनशीलता और कुशलता के साथ जांच की जानी थी, लेकिन इस जांच में वह गायब है।
-मामले में कोई वास्तविक/प्रभावी जांच नहीं की गई है और केवल कांस्टेबल का बयान दर्ज करके, वह भी एक विलंबित चरण में, विशेष रूप से जब आरोपी व्यक्ति पहले से ही गिरफ्तार थे, जांच एजेंसी ने मामले को केवल 'हल के रूप में दिखाने की कोशिश की है।'
उपरोक्त टिप्पणियों के अलावा, न्यायालय ने इस तथ्य को भी ध्यान में रखा कि दिल्ली दंगों मे लगभग 750 मामले दर्ज किए गए थे, और अदालत को लगभग 150 मामले सुनवाई के लिए प्राप्त हुए हैं और केवल 35 मामलों में अब तक आरोप लगे हैं।
'बड़ी संख्या में दंगों के मामलों में जांच का मानक बहुत खराब है': दिल्ली कोर्ट
एक संबंधित मामले में इसी अदालत ने 28 अगस्त को, उत्तर पूर्वी दिल्ली दंगों से संबंधित मामलों की जांच के तरीके के लिए दिल्ली पुलिस की खिंचाई की थी, जिसमें आरोप-पत्रों को आधा-अधूरा दाखिल करना और जांच अधिकारियों की गैर-मौजूदगी शामिल थी।
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव ने भी तत्काल उपचारात्मक कार्रवाई का आह्वान किया था और पूर्वोत्तर जिले के डीसीपी और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों को स्थिति का संज्ञान लेने को कहा था।
उस मामले में न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणियों पर भी ध्यान देना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। हमने उस मामले में न्यायालय द्वारा की गई 7 ऐसी टिप्पणियों को संकलित किया है-
-यहां यह नोट करना वास्तव में दर्दनाक है कि इस न्यायालय के समक्ष बड़ी संख्या में दंगों के मामले आरोप पर विचाराधीन हैं और अधिकांश मामलों में जांच अधिकारी या तो शारीरिक रूप से या वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से अदालत में पेश नहीं हो रहे हैं।
-मुझे यह भी बताया गया है कि वे विद्वान विशेष पीपी को आरोपों के तर्क के लिए जानकारी नहीं दे रहे हैं। चार्ज पर सुनवाई की तारीख की सुबह में, वे बस चार्जशीट के पीडीएफ को विद्वान स्पेशल पीपी को ई-मेल करते हैं और मामले को चार्ज पर बहस करने के लिए छोड़ देते हैं...
-यह और भी दुखदायी है कि दंगों के बड़ी संख्या में मामलों में जांच का स्तर बहुत खराब होता है।
-कोर्ट में चार्जशीट दाखिल करने के बाद न तो आईओ और न ही एसएचओ और न ही उपरोक्त पर्यवेक्षण अधिकारी यह देखने की जहमत उठाते हैं कि मामलों में अन्य सामग्री एकत्र करने की आवश्यकता है और क्या कदम उठाने की आवश्यकता है।
-यह देखा गया है कि अदालत में आधा-अधूरा आरोप पत्र दाखिल करने के बाद, पुलिस शायद ही जांच को तार्किक अंत तक ले जाने की परवाह करती है।
-कई मामलों में फंसे आरोपी व्यक्ति इसके परिणामस्वरूप जेलों में सड़ रहे हैं।
ऐसे अन्य उदाहरण भी हैं जहां न्यायालय ने या तो दिल्ली पुलिस की 'कठोर' जांच पर ध्यान दिया है या दंगों के मामलों में उनके तरीके की जांच पर सवाल उठाया है।