टून विवाद- "लोगों को नैतिकता नहीं सिखा सकते; कार्टून को अगर संदर्भ के बिना लिया गया तो वह अपना मर्म खो देगा": मद्रास हाईकोर्ट ने आपराधिक मानहानि मामला खारिज किया

LiveLaw News Network

7 Jun 2021 10:02 AM GMT

  • God Does Not Recognize Any Community, Temple Shall Not Be A Place For Perpetuating Communal Separation Leading To Discrimination

    मद्रास हाईकोर्ट

    मद्रास हाईकोर्ट ने फेसबुक पेज पर एक कथित अपमानजनक और मानहानिकारक कार्टून प्रकाशित करने वाले व्यक्ति के खिलाफ दायर आपराधिक मानहानि मामले को खारिज करते हुए कहा कि कोर्ट लोगों को नैतिकता नहीं सिखा सकता है और समाज को नैतिक मानकों को विकसित करना और पालन करना चाहिए।

    न्यायमूर्ति जी. इलांगोवन की खंडपीठ ने टून विवाद पर कहा कि,

    "हाल के दिनों में एक और समस्या जो कार्टूनिस्ट ने दुनिया भर में पैदा की, वह है "टून विवाद"। वह कार्टून पैगंबर मोहम्मद के बारे में था, जिसने दुनिया भर में विवाद पैदा कर दिया था। इस प्रकरण से बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और साथ ही अभद्र भाषा और अभिव्यक्ति के सिद्धांत की सीमाओं पर चर्चा होना शुरू हुआ।"

    कोर्ट के समक्ष मामला

    आरोपी/याचिकाकर्ता ने 23 अक्टूबर, 2017 को हुई आत्मदाह की घटना के संबंध में अपने निजी फेसबुक पेज पर एक कार्टून प्रकाशित किया और कार्टून में उसने बच्चे के जलते हुए शरीर को चित्रित किया, जिसमें जलते हुए बच्चे को तीन व्यक्ति देख रहे हैं और वे अपने निजी अंगों को ढकने के लिए कपड़े और करेंसी नोट का उपयोग करते हुए नजर आ रहे हैं।

    उक्त तीनों को जिला कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के रूप में नामित किया गया है।



    आरोपी/याचिकाकर्ता पर यह आरोप लगाते हुए मामला दर्ज किया गया था कि कार्टून अत्यधिक अपमानजनक और मानहानिकारक है। यह कार्टून तथ्यों के उचित जांच किए बिना बनाया गया है और झूठे आरोप के कारण सरकारी अधिकारियों को उनके कर्तव्यों का निर्वहन करने से भी रोका गया।

    जिला कलेक्टर की शिकायत पर भारतीय दंड सहिंता (आईपीसी) की धारा 501 (आपराधिक मानहानि) और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 67 (इलेक्ट्रॉनिक रूप में अश्लील सामग्री को प्रकाशित या प्रसारित करना) के तहत दंडनीय अपराधों के लिए मामला दर्ज किया गया था।

    कोर्ट का आदेश

    कोर्ट ने शुरुआत में कहा कि इस मामले में इस सवाल पर विचार किया जाना है कि बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहां से शुरू होनी चाहिए और कहां पर खत्म होनी चाहिए।

    कोर्ट ने कहा कि,

    "बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(2) में निर्धारित सीमाओं के अधीन है। किसी भी अन्य नागरिक की तरह एक कार्टूनिस्ट भी कार्टून के रूप में कानून के अधीन है और कानून के मुताबिक वह किसी को भी बदनाम नहीं कर सकता है।"

    पीठ ने मामले के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कहा कि,

    "एक लोकतांत्रिक देश में अभिव्यक्ति और बोलने की स्वतंत्रता वह नींव है जिस पर लोकतंत्र जीवित रहता है, जिसके बिना कोई लोकतंत्र नहीं हो सकता है, नतीजतन मानव समाज का कोई विकास नहीं हो सकता है।"

    पीठ ने यह पाया कि याचिकाकर्ता साहूकारों द्वारा अत्यधिक ब्याज की वसूली को रोकने में प्रशासन, कार्यकारी और पुलिस दोनों की अक्षमता के बारे में अपना गुस्सा, दु:ख और आलोचना व्यक्त करना चाहता था।

    पीठ ने आदेश में कहा कि,

    "एक साहूकार द्वारा अत्यधिक ब्याज की मांग के चलते कलेक्ट्रेट परिसर में तीन लोगों की जान चली गई। समस्या इस बात की नहीं है कि याचिकाकर्ता पीड़ा, आलोचना या सामाजिक हित को लेकर लोगों के मन में जागरूकता पैदा करना चाहता था, लेकिन जिस तरह से उन्होंने इसे व्यक्त किया, वह विवाद बन गया। कार्यपालिका के मुखिया से लेकर जिला पुलिस तक के अधिकारियों को उस रूप में दर्शाने से विवाद पैदा हो गया।"

    कोर्ट ने यह भी कहा कि कुछ लोग इस कार्टून को देखकर ऐसा सोच सकते हैं कि यह कार्टून 'अतिरेक' या 'अश्लील' है और वहीं कई लोगों का मानना है कि इसने लोगों के जीवन को बचाने के लिए प्रशासन द्वारा किए जाने वाले पक्षपात को सही ढंग से दर्शाया है और इसके साथ ही यह भी दिखाया गया है कि अधिकारी ने उचित कदम नहीं उठाए और उन्हें नागरिकों के जीवन की रक्षा करने में कोई दिलचस्पी नहीं है।

    कोर्ट ने कहा कि,

    "इसे लोगों द्वारा भिन्न-भिन्न तरीके से क्षमता के अनुसार देखा जा सकता है।"

    "अधिकारियों को बदनाम करने का कोई इरादा नहीं"

    कोर्ट ने कहा कि कार्टून ने कलेक्टर के मन में अपमान की भावना पैदा की हो, लेकिन याचिकाकर्ता का इरादा साहूकारों द्वारा अत्यधिक ब्याज की मांग के संबंध में अधिकारियों के रवैये को दिखाना था।

    कोर्ट ने आगे कहा कि

    "याचिकाकर्ता का इरादा अधिकारियों को बदनाम करना नहीं है, बल्कि इसमें शामिल मुद्दे की गंभीरता को उजागर करना है।"

    "अपना गुस्सा व्यक्त करना चाहता था"

    कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता का इरादा अपने क्रोध को व्यक्त करने का था और इसे अपमान करने या मानहानि में लिप्त होने के इरादे के रूप में नहीं माना जा सकता है।

    कोर्ट ने अंत में कहा कि,

    "लेकिन जैसा कि पहले उल्लेख किया गया संदर्भ दिखाता है कि याचिकाकर्ता ने जो किया है उसमें कुछ भी आपराधिक नहीं है, हालांकि ये अनैतिक हो सकता है। कोर्ट लोगों को नैतिकता नहीं सिखा सकता है और समाज को नैतिक मानकों को विकसित करना और पालन करना चाहिए।"

    कोर्ट ने उपरोक्त अवलोकन के साथ कहा कि याचिकाकर्ता के खिलाफ जांच का कोई मतलब नहीं है और याचिकाकर्ता ने जो किया है उसमें कुछ भी आपराधिक नहीं है। इसके साथ ही कोर्ट ने याचिकाकर्ता के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही रद्द करने का आदेश दिया।

    केस - बालामुरुगन बनाम तमिलनाडु राज्य

    आदेश की कॉपी यहां पढ़ें:



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