'पीड़िता की अनुमानित उम्र का सबूत सही उम्र के प्रमाण की जगह नहीं ले सकता': पटना हाईकोर्ट ने POCSO मामले में आरोपी को बरी किया

LiveLaw News Network

8 July 2021 11:22 AM GMT

  • पीड़िता की अनुमानित उम्र का सबूत सही उम्र के प्रमाण की जगह नहीं ले सकता: पटना हाईकोर्ट ने POCSO मामले में आरोपी को बरी किया

    पटना हाईकोर्ट ने यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) मामले में एक आरोपी को बरी करते हुए कहा कि पीड़िता की अनुमानित उम्र का सबूत सही उम्र के प्रमाण की जगह नहीं ले सकता है।

    आरोपी-अर्जुन को करीब 13 साल की बच्ची का रेप का दोषी पाया गया था। आरोपी को ट्रायल कोर्ट द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 366A और 376 और POCSO अधिनियम की धारा 4 के तहत दोषी ठहराया गया था।

    उच्च न्यायालय ने अपील में इस प्रश्न पर विचार किया कि क्या अभियोजन पक्ष ने उचित संदेह से परे साबित कर दिया है कि पीड़िता की उम्र अपीलकर्ता के साथ शारीरिक संबंध के समय 18 वर्ष से कम थी ताकि मामले को भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के खंड छह के तहत लाया जा सके।

    अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष का मामला यह है कि पीड़िता की उम्र लगभग 13-14 साल थी और मेडिकल रिपोर्ट से पता चला कि उसकी उम्र 15-16 साल के बीच थी। अभियोजन पक्ष के गवाहों से जिरह नहीं की गई और न ही बचाव पक्ष द्वारा कोई सुझाव दिया गया कि गवाह अभियोजन पक्ष की उम्र के बारे में गलत बयान दे रहे थे, यह नोट किया। अभियोजन का मामला यह है कि, वह एक नाबालिग थी और इसलिए आरोपी के खिलाफ आरोप पर विचार करने के उद्देश्य से उसकी कोई सहमति महत्वहीन है।

    कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों का हवाला दिया। इसमें सुनील बनाम हरियाणा राज्य एआईआर 2010 एससी 392 और मध्य प्रदेश राज्य बनाम मुन्ना @ शंभू नाथ (2016) 1 एससीसी 696 मामला शामिल है, जिसमें यह माना गया कि पीड़ित की अनुमानित उम्र का सबूत सही उम्र के प्रमाण के निष्कर्ष के लिए पर्याप्त नहीं है।

    कोर्ट ने आगे 2013 के जरनैल सिंह बनाम हरियाणा राज्य CRL. LJ 3976 मामले पर भरोसा जताया। अदालत ने कहा कि यह माना जाता है कि रेप पीड़िता की उम्र किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) नियम, 2007 के नियम 12 के तहत निर्धारित तरीके से निर्धारित की जानी चाहिए, कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चे और अपराध के शिकार बच्चे के बीच नाबालिग के संबंध में कोई अंतर नहीं है । नियम 12(3) के तहत पीड़िता की उम्र के निर्धारण में स्कूल के दस्तावेजों को वरीयता दी जानी है। स्कूल के दस्तावेजों के अभाव में ही चिकित्सा विशेषज्ञ की राय स्वीकार्य है।

    कोर्ट ने कहा कि,

    "इस प्रकार उपरोक्त नियम 12 के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि केवल स्कूल के दस्तावेजों के अभाव में पीड़िता की उम्र निर्धारित करने के लिए अन्य साक्ष्य की अनुमति है।"

    कोर्ट ने आगे कहा कि इस मामले में पीड़िता की मां (पीडब्ल्यू -3) ने कहा कि पीड़िता कक्षा-सातवीं की छात्रा थी। इसलिए, पीड़िता की उम्र का स्कूल दस्तावेज है जिसे अभियोजन पक्ष द्वारा जानबूझकर रिकॉर्ड में नहीं लाया गया। यहां तक कि ऑसिफिकेशन/रेडियोलॉजिकल टेस्ट की रिपोर्ट भी पेश नहीं की गई ताकि उसे इस तरह की परीक्षा करते समय उनके द्वारा अपनाई गई वैज्ञानिक पद्धति के बारे में विशेषज्ञों से जिरह करने के लिए बचाव का मौका मिले। इसलिए, पीड़ित के जन्म की सही तारीख का सबूत जो अभियोजन के पास उपलब्ध है, रिकॉर्ड में नहीं लाया गया और अनुमानित उम्र का सबूत सही उम्र के सबूत की जगह नहीं ले सकता। एक बार जब अभियोजन पक्ष यह साबित करने में विफल रहा कि पीड़िता 18 साल से कम उम्र की थी, तो उसकी सहमति के ऊपर चर्चा किए गए सबूत महत्वपूर्ण हो जाते हैं। पीड़िता अपीलकर्ता के साथ सहमति से संबंध में थी। इसलिए, POCSO अधिनियम की धारा 4 और आईपीसी की धारा 376 के तहत आरोप विफल हैं।

    अदालत ने अपील की अनुमति देते हुए यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष का कोई मामला नहीं है कि एक नाबालिग को किसी अन्य व्यक्ति के साथ अवैध संबंध स्थापित करने के लिए प्रेरित किया गया था और इस प्रकार भारतीय दंड संहिता की धारा 366 ए के तहत आरोपी को दोषी ठहराना भी गैर-कानूनी है।

    केस: अर्जुन कुमार @ प्रिंस बनाम बिहार राज्य [CRA (SJ) No.159 of 2018]

    आदेश की कॉपी यहां पढ़ें:



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