धारा 125 सीआरपीसी के तहत मजिस्ट्रेट अपनी शक्तियों को इस्तेमाल करते हुए किसी वयस्क बेटे या बेटी को भरण-पोषण का अधिकार नहीं दे सकताः जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट

Avanish Pathak

6 Sep 2022 5:04 AM GMT

  • धारा 125 सीआरपीसी के तहत मजिस्ट्रेट अपनी शक्तियों को इस्तेमाल करते हुए किसी वयस्क बेटे या बेटी को भरण-पोषण का अधिकार नहीं दे सकताः जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट

    जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में कहा एक मजिस्ट्रेट सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए एक वयस्क बेटा या बेटी के पक्ष में भरण-पोषण का फैसला नहीं दे सकता, जबकि एक उपयुक्त मामले में फैमिली कोर्ट के पास सीआरपीसी की धारा 125 और हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम की धारा 20(3) के संयुक्त पठन के आधार पर एक वयस्क हिंदू बेटी के पक्ष में भरण-पोषण का फैसला देने का अधिकार क्षेत्र है।

    जस्टिस संजय धर ने यह टिप्पणी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए की। याचिकाकर्ता ने धारा 482 सीआरपीसी के तहत अदालत के अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल किया था और न्यायिक मजिस्ट्रेट, प्रथम श्रेणी श्रीनगर के आदेश को चुनौती दी थी।

    न्यायिक मजिस्ट्रेट ने अपने आदेश में प्रतिवादी के पक्ष में दिए गए भरण-पोषण आदेश को रद्द करने की मांग वाले याचिकाकर्ता के आवेदन को खारिज कर दिया था। याचिका के माध्यम से अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, श्रीनगर द्वारा पारित आदेश को भी चुनौती भी दी गई, जिन्होंने ट्रायल मजिस्ट्रेट के उपरोक्त आदेश के खिलाफ पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी थी।

    याचिकाकर्ता ने इस आदेश को मुख्य रूप से इस आधार पर चुनौती दी थी कि प्रतिवादी, वयस्क होने पर अपने पिता यानी याचिकाकर्ता से भरण-पोषण के हकदार नहीं थे।

    याचिकाकर्ता ने तर्क दिया था कि धारा 125 सीआरपीसी के तहत केवल वैध या अवैध नाबालिग बच्चे, जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं, वे ही अपने पिता से भरण-पोषण का दावा करने के हकदार हैं। इस आधार पर, यह आग्रह किया जाता है कि प्रतिवादी वयस्क हो चुके हैं और वयस्क होने की तारीख से वे याचिकाकर्ता से भरण-पोषण पाने के हकदार नहीं हैं।

    मामले पर फैसला सुनाते हुए अदालत ने कहा कि प्रावधान की शाब्दिक व्याख्या यह स्पष्ट करती है कि वैध या अवैध नाबालिग बेटा, चाहे विवाहित हो या नहीं, जो खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, अपने पिता से भरण-पोषण का दावा करने का हकदार है।

    कोर्ट ने कहा स्पष्टीकरण के अनुसार "नाबालिग" शब्द एक ऐसा व्यक्ति है, जिसे मेजॉरिटी एक्ट के प्रावधानों के तहत, वयस्कता की आयु प्राप्त नहीं करने वाला माना जाता है। इसका मतलब है कि एक नाबालिग वह व्यक्ति होगा, जिसने 18 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं की है।

    मामले के विवाद को तय करते हुए पीठ ने नूर सबा खातून बनाम मोहम्मद मामले कासिम, (1997) मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों को दर्ज किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एक मुस्लिम पिता का अपने नाबालिग बच्चों का भरण-पोषण करने का दायित्व सीआरपीसी की धारा 125 द्वारा शासित होता है। उनके भरण-पोषण का उनका दायित्व तब तक होगा, जब तक वे वयस्क नहीं हो जाते या खुद के भरण-पोषण में सक्षम नहीं हो जाते, इनमें से जो भी पहले हो।

    सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा था कि लड़कियों के मामले में, यह दायित्व उनकी शादी तक बढ़ाया जाता है। जस्टिस धर की पीठ ने इस मामले पर में अभिलाषा बनाम प्रकाश और अन्य 2020 पर भी भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था,

    "ऐसा मामला हो सकता है जहां फैमिली कोर्ट के पास सीआरपीसी की धारा 125 के साथ-साथ हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम 1956 की धारा 20 के तहत मुकदमा तय करने का अधिकार क्षेत्र हो, ऐसी स्थिति में फैमिली कोर्ट दोनों कानूनों के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर सकता है और एक उपयुक्त मामले में अविवाहित बेटी को भरण-पोषण प्रदान कर सकता है, भले ही वह वयस्क हो गई हो और अधिनियम, 1956 की धारा 20 के तहत अपने अधिकार को लागू कर सकती हो। ऐसा इसलिए कि कार्यवाही की बहुलता से बचा जा सके। हालांकि, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए मजिस्ट्रेट ऐसा आदेश पारित नहीं कर सकते"।

    वर्तमान में याचिका पर विचार करते हुए पीठ ने कहा कि वर्तमान मामले में, प्रतिवादियों ने स्वीकार किया है कि उन्होंने वयस्कता की आयु प्राप्त कर ली है, इसलिए वे वयस्क होने के बाद अपने पिता से भरण-पोषण का दावा करने के हकदार नहीं हैं। ट्रायल मजिस्ट्रेट के पास इस प्रकार, प्रतिवादियों के पक्ष में उनके वयस्‍क होने पर, भरण-पोषण देने का अधिकार क्षेत्र नहीं था और इसलिए ट्रायल मजिस्ट्रेट द्वारा भरण-पोषण के आदेश को रद्द करने के लिए याचिकाकर्ता के आवेदन को खारिज करने के आदेश अध‌िकार क्षेत्र के बिना है।

    याचिका की अनुमति देते हुए अदालत ने ट्रायल मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आक्षेपित आदेश को रद्द कर दिया, जिसे पुनरीक्षण न्यायालय ने बरकरार रखा था।

    केस टाइटल: शौकत अजीज जरगर बनाम नबील शौकत और अन्य।

    साइटेशन: 2022 लाइव लॉ (जेकेएल) 139

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