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देश की रक्षा और सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण, देशद्रोह के आरोपी कश्मीरी छात्रों को हुबली कोर्ट ने जमानत देने से इनकार किया

LiveLaw News Network
10 March 2020 7:35 AM GMT
देश की रक्षा और सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण, देशद्रोह के आरोपी कश्मीरी छात्रों को हुबली कोर्ट ने जमानत देने से इनकार किया
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हुबली की एक अतिरिक्त जिला न्यायाधीश अदालत ने सोमवार को सोशल मीडिया पर पाकिस्तान के समर्थन में एक वीडियो पोस्ट करने के बाद देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार तीन कश्मीरी छात्रों की ज़मानत अर्ज़ी खारिज कर दी।

न्यायाधीश गंगाधर के.एन ने आरोपी बासित आशिक सोफी (22), तालिब मजीद (20) और अमीर मोहि उद्दीन वानी(20) को जमानत देने से इनकार करते हुए कहा,

''इस देश की रक्षा और सुरक्षा प्राथमिक है। हमें जांच एजेंसी को किसी भी निकाय के हस्तक्षेप के बिना अपना काम करने की अनुमति देनी चाहिए। आरोप की प्रकृति पर विचार करते हुए, जांच पूरी होने तक, याचिकाकर्ता जमानत के लिए हकदार नहीं हैं। यहां तक कि उन आधारों पर भी नहीं,जो उन्होंने ज़मानत के आधार नहीं बनाए हैं।''

याचिकाकर्ताओं ने इस आधार पर जमानत मांगी थी कि वे निर्दोष हैं, उन्होंने कथित रूप से कोई अपराध नहीं किया है। वे छात्र हैं और अपने छात्रावास में रह रहे हैं। वह अपनी कक्षाओं में जाते हैं और उनको अपने टर्म एग्जाम की तैयारी भी करनी है। ऐसी स्थिति में याचिकाकर्ताओं को अगर जमानत नहीं दी गई तो उन्हें गंभीर कठिनाई होगी और इससे उनकी शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

इसके अलावा इस बारे में उल्लेख किया गया था कि पुलिस पहले ही उन्हें धारा 169 के तहत जमानत दे चुकी है और उन्होंने पुलिस के समक्ष नियत उपस्थिति के लिए बांड भी भर दिए हैं। इतना ही नहीं उनका ऐसा कोई इरादा नहीं था कि वे सत्ता या इस देश के खिलाफ किसी भी अस्वीकृति या अप्रभाव को हवा देकर किसी भी तरह के सार्वजनिक विकार को पैदा करें। याचिकाकर्ता जांच अधिकारी के सामने ,जब भी वह बुलाएंगे, पेश होने के लिए तैयार हैं।

अभियोजन पक्ष ने यह कहते हुए इन अर्जियों का विरोध किया कि ''अपराध की गंभीरता की प्रकृति काफी संगीन है, जो इतनी व्यापक है कि इस देश की अखंडता को प्रभावित कर सकती है। यदि याचिकाकर्ताओं को ट्रायल अदालत द्वारा दोषी पाया जाता है, तो उन्हें उम्रकैद के कारावास तक की सजा हो सकती है।

चूंकि उनके खिलाफ आरोपित अपराध प्रकृति में बहुत संवेदनशील हैं, जिसकी विस्तृत जांच की आवश्यकता है। याचिकाकर्ता जम्मू और कश्मीर के निवासी हैं, इस स्तर पर अगर उन्हें जमानत पर रिहा किया जाता है, तो जब जांच अधिकारी को उनकी आवश्यक होगी,उस समय उनकी उपस्थिति को सुनिश्चित करना मुश्किल होगा।''

न्यायाधीश ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद कहा,

''भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 ए (जे) के तहत रखी गई भावना को पूरा करते हुए प्रत्येक युवा को इस देश के विकास का हिस्सा बनने की आवश्यकता है। देश की सुरक्षा के लिए मजबूत खतरे के कारणों को देखते हुए भारत के साथ द्विपक्षीय गतिविधियों को प्रभावित करने वाले देश के प्रति स्नेह विकसित करने के लिए कोई अच्छे कारण नहीं दिए गए हैं।

यह एक ऐसा युग है जहां विचार महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और अच्छा सम्मान और आज्ञा प्राप्त करते हैं, यहां तक कि वे किसी देश के आर्थिक विकास में तेजी लाने में योगदान करते हैं। लेकिन बुरे विचार न केवल प्रगति को बिगाड़ते है बल्कि समाज में शांति को नष्ट कर देते हैं। इसलिए सबसे पहले बुरे को रोकना जरूरी है कि इसे पनपे की अनुमति न दी जाए।

दूसरी बात यह है कि इस हद तक निगरानी की जानी चाहिए कि ऐसा कोई विचार अपने ढ़ांचे से बाहर ही न निकल पाए। एहतियात के तौर पर ऐसे विचारों को जल्दी साफ करना आज के समय की जरूरत है, चूंकि इसमें विफल रहने पर देश की आजादी प्रभावित होगी, क्योंकि यह एक बड़ा मामला है, जो देश के पुरुषों के अमूल्य जीवन के बलिदान की कीमत पर कमाया जाता है।''

अदालत ने उस तर्क को खारिज कर दिया,जिसमें कहा गया था कि नारे से कोई असहमति पैदा नहीं हुई थी और धारा 124 ए, राजद्रोह के आरोप को आकर्षित करने या लगाने की आवश्यकता नहीं थी। इस धारा को ब्रिटिश शासक स्वतंत्रता सेनानियों की जांच के लिए लाए थे।

अदालत ने कहा कि

''अगर शिकायत में दी जानकारी को देखा जाए तो प्रावधान को लागू करने के लिए उचित आरोप लगाए गए हैं। यदि देश के लोगों की भावनाओं को समझा जाए तो पाकिस्तान के पक्ष में नारे लगाना गंभीर और अस्वीकार्य है। याचिकाकर्ताओं द्वारा कथित तौर पर किए गए कृत्य की प्रकृति अंतर्निहित भारतीय सामाजिक ताने-बाने को बिगाड़ सकती है।

किसी को भी बच्चों के उस खेल पर जाने या खेलने की अनुमति नहीं देनी चाहिए, जो देश के निर्दोष लोगों के जीवन, स्वतंत्रता और विश्वास पर भारी पड़ सकता है। इस देश की अखंडता और सुरक्षा सभी के सामने लंबी या महत्वपूर्ण है।''

नारे लगाए जाने पर अदालत ने कहा ''लगाए गए नारे का स्वरूप अस्वास्थ्यकर माहौल बनाता है, जो इस हद तक जा सकता है कि सामंजस्य में गंभीर गड़बड़ी पैदा कर सकें और नागरिकों के दिमाग में तरंग पैदा करने या उनके दिमाग को हिलोरने के समान है।

याचिकाकर्ताओं ने पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाए गए थे, जिनका इरादा भारत में नफरत पैदा करने के लिए उकसाने या उकसाने का प्रयास हो सकता है। भारतीय होने के नाते, अगर वे पाकिस्तान के देश के प्रति अपना स्नेह व्यक्त करते हैं, जिनके साथ हमने सभी प्रकार की द्विपक्षीय गतिविधियों को खत्म दिया है, तो साफ है कि मामले की गंभीरता वहां पहुंच चुकी है,जहां पहले कभी नहीं पहुंची थी।''

कोर्ट ने कहा कि

''अपने इतिहास और प्रावधान को बनाने के इरादे को देखते हुए यह चरण या समय इस प्रावधान को विच्छेद करने का नहीं है। इसके अलावा, उनके खिलाफ आरोप साबित करने के लिए उपलब्ध कराए गए सबूतों की गुणवत्ता की जांच करना भी अभी जल्दबाजी होगी।''

हुबली बार एसोसिएशन ने 15 फरवरी को एक प्रस्ताव पारित किया था कि इसके सदस्यों में से कोई भी आरोपी के लिए पेश नहीं होगा। जिसके बाद यह मामला प्रकाश में आया था। 15 फरवरी को पारित इस प्रस्ताव को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी।

24 फरवरी को, हाईकोर्ट ने पुलिस आयुक्त को निर्देश दिया था कि वह बेंगलुरु से आए उस अधिवक्ता को पुलिस सुरक्षा प्रदान करें,जो अभियुक्तों का प्रतिनिधित्व करने का इच्छुक था। परंतु स्थानीय अधिवक्ताओं ने उसे जमानत की अर्जी दाखिल करने से रोका दिया था।

हाईकोर्ट ने इस कृत्य को 'शीर मिलिटेंसी या विशुद्ध आतंकवाद' करार दिया था। बाद में, महाधिवक्ता प्रभुलिंग नवदगी के व्यक्तिगत हस्तक्षेप के बाद हुबली बार एसोसिएशन के पदाधिकारी हाईकोर्ट के समक्ष पेश हुए और विवादास्पद प्रस्ताव वापस ले लिया।

आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करेंं




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