भरण पोषण मामला-पक्षकार अक्सर अपनी वास्तविक आय का खुलासा नहीं करते, उनके स्टे्टस और जीवन शैली को ध्यान में रखते हुए भरण-पोषण दिया जा सकता है : दिल्ली हाईकोर्ट

Manisha Khatri

20 July 2022 6:00 AM GMT

  • दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि वैवाहिक विवादों के मामलों में,यह देखा गया है कि कथित तौर पर भरण-पोषण के दायित्व से बचने के लिए पक्षकार अक्सर अपनी वास्तविक आय का खुलासा अदालत में नहीं करते हैं। इस प्रकार, यह न्यायालय के लिए ओपन है कि वह उनके स्टे्टस और जीवन शैली के आधार पर भरण-पोषण का निर्धारण करे।

    जस्टिस पुरुषेंद्र कुमार कौरव ने कहा,

    ''यहां तक कि अनुभव से पता चलता है कि आम तौर पर पक्षकारों द्वारा वास्तविक आय का खुलासा नहीं किया जाता है। ऐसी परिस्थितियों में, पक्षकारों की स्थिति/स्टे्टस और उनकी जीवन शैली आदि को देखते हुए एक यथार्थवादी निष्कर्ष पर आना हमेशा सुरक्षित होता है।''

    इस मामले में पति ने फैमिली कोर्ट वेस्ट के एक आदेश को चुनौती दी थी,जिस पर सुनवाई करते हुए पीठ ने यह टिप्पणी की है। फैमिली कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत उसकी पत्नी की तरफ से दायर आवेदन को आंशिक तौर पर अनुमति दे दी थी और प्रति माह 10,000 रुपये भरण-पोषण के तौर पर देने का निर्देश दिया था।

    पति ने तर्क दिया था कि वह बेरोजगार है, जबकि उसकी पत्नी पढ़ी-लिखी है और अच्छी कमाई कर रही है, इसलिए वह किसी भी तरह का भरण-पोषण पाने के लिए हकदार नहीं है।

    हाईकोर्ट ने कहा कि पति ने कहा था कि वह एक 3 बीएचके फ्लैट में रहता है और लगभग 2,000 रुपये के बिजली शुल्क के अलावा प्रतिमाह 12,000 रुपये का किराया दे रहा है।

    यह भी नोट किया गया कि पति का मासिक खर्च लगभग 35,210 रुपये प्रति माह था और उसने म्यूचुअल फंड में पैसा लगाया था और उससे नियमित लाभांश प्राप्त कर रहा है।

    कोर्ट ने कहा कि,

    ''इस प्रकार यह देखा गया है कि प्रतिवादी पर अपने पति के आय के साधन दिखाने के लिए ड़ाले गए प्रारंभिक बोझ का पर्याप्त रूप से निर्वहन किया गया है। याचिकाकर्ता का यह तर्क अपुष्ट है कि याचिकाकर्ता दिल्ली सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी के बराबर कमा रहा है। याचिकाकर्ता का जीवन मानक, न्यायालय से प्रासंगिक जानकारी को छिपाने का उसका आचरण और यह तथ्य कि वह न केवल योग्य है, बल्कि अच्छा पैसा कमाने में सक्षम है, यह दर्शाता है कि फैमिली कोर्ट ने आक्षेपित आदेश पारित करने में कोई त्रुटि नहीं की है।''

    अदालत ने यह भी माना कि याचिकाकर्ता पति के पास आय का कोई स्रोत नहीं होने के संबंध में दी गई बेबुनियाद दलील, वर्तमान मामले के तथ्यों के तहत अपनी पत्नी को बनाए रखने के दायित्व से उसे मुक्त करने का कोई आधार नहीं हो सकती है।

    पक्षकारों के बीच विवाह 25.10.2015 को संपन्न हुआ था। शादी के तुरंत बाद, उनके बीच हुए कुछ पारिवारिक विवादों के कारण वह अलग रहने लग गए थे। प्रतिवादी पत्नी ने फैमिली कोर्ट के समक्ष सीआरपीसी की धारा 125 के तहत एक आवेदन दायर किया था।

    उसने आरोप लगाया कि ससुराल में पति द्वारा प्रताड़ित किए जाने के कारण उसे काफी मनोव्यथा का सामना करना पड़ा। उसने अपने आवेदन में विभिन्न उदाहरण बताए और उसने आगे कहा कि उसका पति यानी संशोधनवादी गुरुग्राम में एनआईआईटी कंपनी में ग्राफिक डिजाइनर की नौकरी कर रहा है और प्रति माह 40,000 रुपये कमा रहा है।

    उसने यह भी कहा कि उसके पति को घर से किराये के तौर पर आय मिलती है और इस प्रकार उसे प्रतिमाह 40,000 रुपये की अतिरिक्त राशि मिल रही है। उसने यह भी बताया कि उसके पति पर कोई देनदारी नहीं है और उसके पति की मां को भी 25,000 रुपये प्रतिमाह पेंशन मिलती है और वह इकलौता बेटा है।

    तदनुसार, उसने भरण-पोषण के लिए 40,000 रुपये प्रति माह और मुकदमेबाजी खर्च के लिए 25,000 रुपये की राशि के अनुदान के लिए प्रार्थना की।

    पति ने कहा कि प्रतिवादी-पत्नी स्वयं उसे मानसिक प्रताड़ना और यातना देने की दोषी है। उसने कहा कि पत्नी ने बिना किसी कारण और औचित्य के वैवाहिक घर छोड़ दिया था और सीएडब्ल्यू सेल के समक्ष झूठी शिकायत भी दायर की थी और उसके बाद वह स्वयं परामर्श कार्यवाही के दौरान अनुपस्थित रही थी।

    हाईकोर्ट ने कहा कि पत्नी को वित्तीय सहायता प्रदान करना पति का पवित्र कर्तव्य है और जब तक न्यायालय से यह आदेश नहीं मिलता है कि पत्नी कानूनी रूप से अनुमेय आधार पर पति से भरण-पोषण प्राप्त करने की हकदार नहीं है, तब तक उसके पास इस कर्तव्य से बचने का कोई रास्ता नहीं है।

    कोर्ट ने यह भी कहा,

    ''जहां तक प्रतिवादी द्वारा याचिकाकर्ता की कंपनी को स्वेच्छा से छोड़ने के संबंध में याचिकाकर्ता की ओर से उपस्थित एडवोकेट द्वारा दिए गए तर्क का संबंध है तो याचिकाकर्ता के साक्ष्य से यह देखा गया है कि उसे दिन-प्रतिदिन उत्पीड़न का शिकार बनाया गया था और इसलिए, मजबूर परिस्थितियों में उसने याचिकाकर्ता की कंपनी छोड़नी पड़ी, और इसप्रकार, उसके पास अलग रहने का उचित औचित्य है।''

    तदनुसार याचिका खारिज कर दी गई।

    केस टाइटल- संदीप वालिया बनाम मोनिका उप्पल

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