स्वास्थ्य का अधिकार उन लोगों द्वारा बाधित नहीं किया जा सकता है जो मास्क पहनने और सामाजिक दूरी बनाने के इच्छुक नहीं हैंः कर्नाटक हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

15 April 2021 1:30 PM GMT

  • स्वास्थ्य का अधिकार उन लोगों द्वारा बाधित नहीं किया जा सकता है जो मास्क पहनने और सामाजिक दूरी बनाने के इच्छुक नहीं हैंः कर्नाटक हाईकोर्ट

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा है कि स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार भारत के संविधान के आर्टिकल 21 का एक अभिन्न अंग है।

    कोर्ट ने कहा कि,

    ''एक स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार उन व्यक्तियों द्वारा बाधित नहीं किया जा सकता है जो मास्क पहनने,सोशल डिस्टेंसिग और भीड़ एकत्रित न करने आदि के नियमों का पालन करने की चिंता नहीं करते हैं।''

    मुख्य न्यायाधीश अभय ओका और न्यायमूर्ति सूरज गोविंदराज की खंडपीठ ने गुरुवार को स्पष्ट किया "मास्क न पहनना और सोशल डिस्टेंसिंग के नियम का पालन न करना धारा 5 की उपधारा 1 (कर्नाटक महामारी रोग अधिनियम) के तहत एक अपराध है,जो रैली के आयोजकों/नेताओं पर ही नहीं बल्कि प्रत्येक उस व्यक्ति पर भी लागू होता है जो उस रैली में भाग लेते हैं और मास्क न पहनने व सामाजिक दूरी बनाए रखने के नियमों का पालन नहीं करते हैं। इसके अलावा, कोई भी व्यक्ति जो किसी अपराध को अबेट करता है, उक्त अधिनियम की धारा 8 में दिए गए अनुसार वह भी अपराध कर रहा है।''

    इसके अलावा, ''ऐसे मामले भी हैं जहां मण्डली, रैलियों के कार्यों में लगे लोक सेवक के अधिकारियों को उनके कर्तव्यों का निर्वहन करने से रोका गया है। यहां तक​कि ऐसे मामले में अपराधी न केवल आयोजक या नेता हैं, बल्कि वे सभी हैं जो अधिकारी या लोक सेवक के कार्य को बाधित करते हैं।''

    अदालत ने कहा ''कुछ हद तक पुलिस मशीनरी धारा 5 के तहत दंडनीय अपराध को बहुत हल्के में ले रही है, हम पाते हैं कि जब तक अदालत द्वारा आदेश नहीं दिए जाते हैं,तब तक एफआईआर भी दर्ज नहीं की जाती है।''

    इसप्रकार, पीठ ने पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) को निर्देश दिया है कि वे सभी पुलिस अधिकारियों के साथ-साथ उन अधिकारियों को भी दिशा-निर्देश जारी करें, जो कर्नाटक महामारी रोग अधिनियम, 2020 की धारा 10 की उपधारा 1 के तहत कंपाउंडिंग की कार्रवाई करने के लिए अधिकृत हैं ताकि उक्त अधिनियम के दंड प्रावधान को प्रभावी तरीके से लागू किया जा सकें।

    अदालत ने डीजीपी को यह भी निर्देश दिया है कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की एक टीम गठित करें, जो उक्त अधिनियम के तहत दंडनीय अपराधों के पंजीकरण व उनकी जांच की निगरानी कर सके।

    राज्य सरकार को इस तथ्य का व्यापक प्रचार करने के लिए निर्देश दिया गया है कि मास्क पहनने, सामाजिक दूरी न बनाने आदि के नियमों का उल्लंघन संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध हैं।

    साथ ही, उक्त अधिनियम की धारा 5, 8 और 9 के प्रावधानों के बारे में पुलिस अधिकारियों को शिक्षित किया जाए क्योंकि इन धाराओं के तहत एफआईआर के पंजीकरण के बहुत कम मामले सामने आए हैं, हालांकि धारा 5 की उप धारा 2, 3 और 3 (ए) के तहत दंडनीय अपराध संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध हैं।

    पीठ ने कहा,''कोई भी व्यक्ति राज्य को सार्वजनिक स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए धारा 4 के तहत मिली शक्तियों को नहीं भूल सकता है। स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार भारत के संविधान के आर्टिकल 21 का एक अभिन्न अंग है। स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार उन व्यक्तियों द्वारा बाधित नहीं किया जाना चाहिए जो मास्क पहनने, सामाजिक दूरी बनाए रखने, एकत्रीकरण आदि के लिए नियमों की चिंता नहीं नहीं करते हैं या उनका पालन करने के इच्छुक नहीं हैं।''

    यह भी कहा गया है, ''इसलिए, जब राज्य एजेंसियां उल्लंघन पर कड़ा रुख अपनाती हैं, तो यह याद रखना चाहिए कि यह सब भारत के संविधान के आर्टिकल 21 के तहत नागरिकों के मौलिक अधिकारों को बनाए रखने के लिए किया जा रहा है, जिसमें स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार भी शामिल है।''

    उल्लंघन करने वाले किसी भी व्यक्ति को बख्शा न जाए

    अदालत ने अपने आदेश में कहा कि धारा 5 के तहत अपराध संज्ञेय और गैर-जमानती हैं। इसलिए, सीआरपीसी की धारा 154 का जनादेश, यदि किसी थाने के प्रभारी अधिकारी को अपराध के बारे में जानकारी दी जाती है तो स्क्वेयरली लागू होता है, क्योंकि वह एफआईआर दर्ज करने के लिए बाध्य है। तत्पश्चात जांच 30 दिनों के भीतर एक निरीक्षक स्तर के अधिकारी द्वारा की जानी चाहिए।

    अदालत ने अपने पहले के आदेशों का हवाला दिया और कहा,''इस अदालत द्वारा पारित विभिन्न आदेशों से संकेत मिलता है कि शहर की मण्डली में हजारों लोगों ने भाग लिया था। इन मण्डली के आयोजकों ने भी मास्क नहीं पहन रखे थे और इनमें भाग लेने वाले लोगों ने भी नहीं।'' यह भी देखा गया कि पिछले कुछ दिनों के दौरान राज्य में और विशेष रूप से बेंगलुरु जैैसे शहरों और कुछ अन्य जिलों में कोरोना के मामलों की संख्या में वृद्धि हुई है।

    जिसके बाद कोर्ट ने कहा कि,''उक्त अधिनियम को (कर्नाटक महामारी रोग अधिनियम 2020), COVID19 की महामारी के दौरान कानून की किताब में शामिल हुआ है। जिसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सरकार को प्रतिबंध लगाने के लिए निर्देश जारी करने की शक्तियाँ प्राप्त हो सकें और धारा 4 के तहत शक्तियों का प्रयोग करने के लिए नियम और आदेश जारी कर सकें। धारा 4 के तहत शक्तियां बहुत व्यापक हैं। सभी शक्तियों का इरादा राज्य सरकार के हाथों में एक टोल प्रदान करना है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोरोना जैसी महामारी न फैल पाए।''

    कोर्ट ने कहा कि, ''इस एक्ट के तहत दिए गए दंडात्मक प्रावधानों जैसे धारा 5 से 9 और विशेष रूप से धारा 5 को कड़ाई से लागू नहीं किया जाता है,तब तक धारा 4 के तहत किए गए उपायों का कोई परिणाम नहीं होगा और न ही कोई प्रभाव होगा।''

    अदालत ने कहा ''राज्य सरकार को उक्त अधिनियम के दंड प्रावधानों को लागू करने में पुलिस मशीनरी की ओर से अनिच्छा को बर्दाश्त नहीं करनी चाहिए। इस अदालत द्वारा पारित आदेशों से पता चलता है कि एफआईआर दर्ज करने के लिए पुलिस की ओर से बहुत अधिक अनिच्छा थी। कारण यह है कि बड़े राजनीतिक और धार्मिक नेता उक्त अधिनियम की धारा 4 के तहत पारित नियमों और आदेशों का उल्लंघन करने के मामले में शामिल हैं।''

    पीठ ने कहा ''वास्तव में राजनीतिक नेताओं और धार्मिक नेताओं को उदाहरण पेश करने चाहिए,इसलिए एक सही संकेत देने के लिए यह अधिक आवश्यक है कि पुलिस मशीनरी उन मामलों में बहुत तेजी से और सख्ती से कार्रवाई करें,जब नियमों का उल्लंघन नागरिकों द्वारा और विशेष रूप से प्रमुख नेताओं और धार्मिक नेताओं द्वारा किया गया हो।''

    ''जो नेता और धार्मिक नेताओं की श्रेणी के लिए लागू होता है, वह उन पर लागू होगा जो सेलिब्रिटी होने का दावा करते हैं या जिन्हें सेलिब्रिटी माना जाता है। हम यह जोड़ना चाहते हैं कि अधिनियम,विनियम और आदेशों का उल्लंघन करने वाले किसी को भी बख्शा नहीं जाना चाहिए।''

    नियमों से राहत देना आर्टिकल 14 के उल्लंघन के समान होगा

    एडवोकेट जी आर मोहन और एडवोकेट पुतिगे आर रमेश ने याचिकाकर्ताओं की तरफ से पेश होते हुए कोर्ट को बताया कि 3 अप्रैल के आदेश के तहत सिनेमाघरों को अधिकतम 50 प्रतिशत क्षमता के साथ चलाने संबंधी लगाए गए प्रतिबंध में एक संगठन के कहने पर सात अप्रैल तक छूट दे दी गई।

    अदालत ने कहा ''हालांकि धारा 4 के तहत जारी किए गए विनियमन और आदेश प्रत्यायुक्त कानून की प्रकृति के हैं, एक रिट कोर्ट यह तय नहीं कर सकता है कि इसे किस तरीके से जारी किया जाना चाहिए। इस स्थिति की गंभीरता को देखते हुए हमें यह कहने की जरूरत नहीं है कि हम आशा करते हैं और भरोसा करते हैं कि छूट देने की शक्ति का उपयोग कुछ व्यक्तियों के अनुरोध पर न किया जाए। इस तरह की कार्रवाई का कारण भारत के संविधान के आर्टिकल 14 के उल्लंघन के समान हो सकता है।''

    आदतन अपराधियों को कड़ी सजा देने पर विचार करेंः

    इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कि धारा 5 की उपधारा 1 के तहत जो अपराध किए जाते हैं, वो उपधारा 3 (ए) के तहत दंडनीय है, को समाधेय/कंपाउंडेबल अपराध बनाया गया है। उक्त आरोपियों द्वारा कई अपराध करने के मामले हो सकते हैं, विधायिका को इस पहलू पर गौर करना चाहिए और विचार करना चाहिए कि क्या दूसरे अपराध के लिए कोई कठोर सजा दी जा सकती है।

    केएसआरटीसी के कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई करेंः

    याचिकाकर्ताओं के वकील ने कई तस्वीरों को रिकॉर्ड में रखा, जो दिखा रही थी कि केएसआरटीसी संघ के कर्मचारियों और राज्य में राजनीतिक नेताओं ने भीड़ एकत्रित की थी। अदालत ने कहा ''राज्य सरकार को उक्त तस्वीरों पर ध्यान देना होगा और कानून के अनुसार कड़ी कार्रवाई करनी होगी।''

    अदालत ने राज्य सरकार को गुरुवार 22 अप्रैल को एक अनुपालन रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया है।

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