जब आरोपों से सम्मानजनक रूप से बरी न हो, सेवा में फिर से बहाली अधिकार के रूप में प्रवाहमान नहीं हो सकती: दिल्ली हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

13 Feb 2022 9:45 AM GMT

  • दिल्ली हाईकोर्ट, दिल्ली

    दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने एक आपराधिक मामले में दोषी ठहराए जाने पर सेवा से बर्खास्तगी को चुनौती देने वाली एक अकाउंटेंट की याचिका खारिज करते हुए कहा कि जब सरकारी कर्मचारी को सम्मानजनक तरीके से अपराध से बरी नहीं किया गया है तो नौकरी में उसकी पुनर्बहाली अधिकार के तौर पर प्रवाहित नहीं हो सकती।

    लेखाकार ग्रेड-I पद पर कार्यरत याचिकाकर्ता ने 19 मार्च, 2013 के उस आदेश को चुनौती देते हुए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसके तहत उन्हें भ्रष्टाचार निवारण कानून, 1988 की धारा 7 और 15 के तहत दोषसिद्धि के आधार पर सीसीएस (सीसीए) नियमावली, 1965 के नियम 19 (i) के तहत उन्हें बर्खास्त कर दिया गया था। उनके खिलाफ आरोप था कि याचिकाकर्ता ने एक विक्रेता को बकाया राशि जारी करने की प्रक्रिया के लिए रिश्वत लेने का प्रयास किया।

    हाईकोर्ट ने तब अपने 4 मई, 2020 के आदेश के माध्यम से याचिकाकर्ता को सभी आरोपों से बरी कर दिया था।

    जस्टिस वी कामेश्वर राव ने कहा,

    "अपराध की प्रकृति को देखते हुए जिसके लिए याचिकाकर्ता के खिलाफ कार्रवाई की गई थी, और दोषसिद्धि को केवल इस तकनीकी आधार पर खारिज कर दिया गया था कि अपराध को अभियोजन पक्ष द्वारा उचित संदेह से परे साबित नहीं किया जा सका था। इस प्रकार आरोप से बरी किया जाना सम्मानजनक बरी नहीं था। इसलिए यह माना जाना चाहिए कि याचिकाकर्ता की बहाली उसके अधिकार के रूप में प्रवाहित नहीं हो सकती है।"

    याचिकाकर्ता की ओर से यह तर्क दिया गया कि वह छठे और सातवें वेतन आयोग के लाभों के हकदार हैं और उन नियमों के अनुसार सामान्य भत्तों के साथ संशोधित वेतनमान में वरिष्ठ लेखाकार के उच्चतर पद पर पदोन्नति के भी हकदार हैं जिसके तहत प्रतिवादी के कर्मचारियों को उस पद पर प्राप्त होता है ।

    यह भी दलील दी गयी थी कि याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोप एक नियमित विभागीय जांच के माध्यम से स्थापित किए गए थे और उन्हें अपना बचाव करने के लिए उचित अवसर से वंचित कर दिया गया था। यह तर्क दिया गया था कि सेवा से बर्खास्तगी की सजा सुनाने से पहले सक्षम प्राधिकारी द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार कोई जांच नहीं की गई थी। याचिकाकर्ता के अनुसार, इस तरह की कार्रवाई भारत के संविधान के अनुच्छेद 311 का उल्लंघन है।

    दूसरी ओर प्रतिवादी का मामला था कि याचिका किसी भी संचार के अभाव में सुनवाई योग्य नहीं थी, जिसमें कहा गया था कि सीबीआई का सुप्रीम कोर्ट के समक्ष उक्त फैसले को चुनौती देने का कोई इरादा नहीं था। यह तर्क दिया गया कि यह एक स्थापित कानून है कि सक्षम प्राधिकारी अब भी यह तय कर सकता है कि क्या याचिकाकर्ता की सेवाओं को बहाल किया जाना चाहिए या एक विक्रेता से रिश्वत मांगने के उसके आचरण को देखते हुए हटा दिया जाना चाहिए।

    यह भी दलील दी गयी थी कि याचिकाकर्ता का बरी होना सम्मानजनक बरी नहीं था और यह गुणदोष के आधार पर नहीं था, क्योंकि याचिकाकर्ता को केवल संदेह का लाभ दिया गया था। प्रतिवादी के अनुसार, ऐसे मामले में, याचिकाकर्ता की सेवाओं को अनिवार्य रूप से बहाल करने के लिए उसकी ओर से कोई बाध्यता नहीं थी।

    न्यायालय ने कहा,

    "... याचिकाकर्ता के खिलाफ लगाए गए आरोपों की प्रकृति, इस तथ्य के साथ कि उन्हें केवल संदेह का लाभ दिया गया था, क्योंकि अभियोजन पक्ष अपने मामले को उचित संदेह से परे साबित करने में विफल रहा। ऐसी स्थिति में जहां तक सरकारी सेवा में पुनर्नियुक्ति/पुनर्स्थापन के लिए उसकी उपयुक्तता का संबंध है, नियोक्ता की नजर में संदेह के बादल मंडराते रहेंगे।"

    कोर्ट ने कहा कि सेवा न्यायशास्त्र में ऐसा कोई मानक नहीं है कि किसी कर्मचारी की सत्यनिष्ठा, ईमानदारी और विश्वसनीयता को कैसे मापा जा सकता है, सामान्य बोलचाल में ऐसी शर्तों के अर्थ को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

    कोर्ट ने कहा,

    "इसमें कोई संदेह नहीं है कि सार्वजनिक सेवा में अकाउंटेंट के पद पर तैनात याचिकाकर्ता को अभियोग में संदेह के लाभ के कारण बरी कर दिया गया है, हालांकि बहाली की मांग करते समय, केवल इस तरह के बरी होने का दावा याचिकाकर्ता के निष्ठापूर्ण आचरण की प्रामाणिकता को साबित नहीं कर सकता है।"

    इसलिए कोर्ट का विचार था कि याचिकाकर्ता 19 मार्च, 2013 को बर्खास्तगी के आदेश को रद्द करने और उसे सेवा में वापस बहाल करने के लिए याचिका में की गई प्रार्थनाओं का हकदार नहीं था।

    कोर्ट ने कहा,

    "अगर इस तरह की राहत दी जाती है, तो इसका मतलब होगा कर्मचारी की ईमानदारी और विश्वसनीयता के बारे में नियोक्ता की चिंता की ओर से आंखें मूंद लेना। नियोक्ता की इस तरह की चिंता को केवल इसलिए नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है क्योंकि याचिकाकर्ता को एक आपराधिक मामले में संदेह का लाभ और इससे इतर ऊपर उल्लिखित निर्णयों के आलोक में बहाली की मंजूरी दे दी गई थी।''

    तदनुसार, याचिका खारिज कर दी गई।

    शीर्षक: जहान सिंह बनाम ट्राइबल कोऑपरेटिव मार्केटिंग डेवलपमेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड ट्राइफेड और अन्य

    साइटेशन: 2022 लाइव लॉ (दिल्ली) 110

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