रेप पीड़िता की पहचान को उजागर करने वाली याचिकाओं पर विचार न करें, राजस्थान हाईकोर्ट ने रजिस्ट्री को दिया निर्देश

SPARSH UPADHYAY

11 Jun 2020 6:06 AM GMT

  • राजस्थान हाईकोर्ट

    राजस्थान हाईकोर्ट 

    राजस्थान उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति संजीव प्रकाश शर्मा की एकल पीठ ने उच्च न्यायालय की रजिस्ट्री को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है कि एक रेप पीड़िता का नाम याचिका में प्रदर्शित नहीं किया जाना चाहिए और ऐसी किसी भी याचिका पर विचार नहीं किया जाना चाहिए जो रेप पीड़िता के नाम का खुलासा करती हो।

    गौरतलब है कि राजस्थान हाईकोर्ट का यह आदेश पिछले हफ्ते एक रेप पीड़िता द्वारा दायर उस याचिका पर आया, जिसमे पीड़िता द्वारा, रेप के परिणामस्वरूप हुए गर्भ धारण की समाप्ति हेतु न्यायिक निर्देशों की मांग की गई थी। रेप पीड़िता (A) ने 22 सप्ताह की गर्भावस्था को समाप्त करने के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है।

    दरअसल इस मामले को, राजस्थान हाईकोर्ट द्वारा पूर्व में एक मामले, याचिकाकर्ता ए बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य [Civil Writ Petition No. 10309/2018] में जारी निर्देशों के बावजूद, पीड़िता के नाम के साथ सूचीबद्ध किया गया था।

    इसी मामले का हवाला देते हुए अदालत ने मौजूदा मामले में रजिस्ट्री (न्यायिक) के लिए यह आदेश देते हुए कहा कि,

    "रजिस्ट्रार (न्यायिक) को यह निर्देश दिया जाता है कि ऊपर उल्लिखित आदेश (Civil Writ Petition No. 10309/2018) को, स्टांप रिपोर्टर्स और रजिस्ट्री द्वारा अनुपालन के लिए इस निर्देश के साथ प्रसारित करें कि वे उन याचिकाओं पर विचार न करें जिनमे पीड़िता के नाम का उल्लेख हो।"

    इसके अलावा अदालत ने मौजूदा मामले के कॉज-टाइटल (शीर्षक) में संशोधन करने का निर्देश भी रजिस्ट्री को दिया और कहा कि पीड़िता के नाम को शीर्षक से हटाया जाए।

    क्या था मौजूदा मामला?

    यह याचिका एक रेप पीड़िता द्वारा अपने अभिभावक के माध्यम से अपनी गर्भावस्था की समाप्ति के लिए न्यायिक निर्देशों को प्राप्त करने के उद्देश्य से दाखिल की गयी थी।

    याचिकाकर्ता के लिए अधिवक्ता ने अदालत को यह बताया कि रेप पीड़िता की गर्भावस्था 22 सप्ताह की है। उपर्युक्त को ध्यान में रखते हुए, अदालत ने जेएनएन मेडिकल कॉलेज, अजमेर के स्त्री रोग विभाग के प्रमुख को अदालत में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने का आदेश दिया और यह जानकारी मांगी कि क्या रेप पीड़िता की गर्भावस्था का समापन इस स्तर पर किया जा सकता है?

    अदालत ने अपने आदेश में कहा,

    "उक्त प्रयोजन के लिए, पीड़िता इस आदेश की प्रति के साथ स्त्री रोग विभाग, जेएलएन मेडिकल कॉलेज, अजमेर के प्रमुख के समक्ष उपस्थित होगी। यह भी निर्देशित किया जाता है कि वकील पीड़िता का एक हलफनामा दायर करेगा कि क्या वह गर्भावस्था को समाप्त करने के लिए अपनी सहमति देती है।"

    न्यायमूर्ति संजीव प्रकाश शर्मा की पीठ से से जुड़ा एक चर्चित मामला

    एक दिलचस्प घटनाक्रम में, बीते अप्रैल में वीडियो कांफ्रेंस सुनवाई के दौरान एक वकील के "बनियान" पहनकर सुनवाई में शामिल होने पर न्यायमूर्ति संजीव प्रकाश शर्मा की पीठ ने ज़मानत अर्ज़ी पर सुनवाई स्थगित कर दी थी।

    सुनवाई के दौरान अधिवक्ता के "अनुचित" पोशाक के कारण न्यायमूर्ति शर्मा ने सुनवाई स्थगित करते हुए कहा कहा था कि वकीलों को वीडियो कॉन्फ्रेंस सुनवाई के दौरान उचित पोशाक में दिखना चाहिए।

    हालाँकि, इसी मामले से जुड़ी एक अन्य बात काफी चर्चा में रही थी जोकि मौजूदा रेप पीड़िता के इस मामले के ही सामान है। दरअसल, इस मामले में दाखिल जमानत अर्जी के शीर्षक (कॉज-टाइटल) में आवेदक की जाति का उल्लेख किया गया था।

    इसके पश्च्यात, वकील अमित पई द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) को एक पत्र लिखकर कोर्ट फाइलिंग के दौरान वाद शीर्षक/ शपथपत्रों/ मेमो (ज्ञापन) में पक्षकार की जाति का उल्लेख करने की 'प्रतिगामी प्रक्रिया' को लेकर चिंता दर्ज करायी गयी थी।

    इस पत्र में यह कहा गया था कि वाद शीर्षक (कॉज-टाइटल) में पक्षकार की जाति का उल्लेख करना समानता के खास सिद्धांत के खिलाफ है। इस निराशाजनक प्रक्रिया को निरस्त करने का सीजेआई से अनुरोध करते हुए पत्र में कहा गया था कि, "हमारी विधिक प्रणाली एवं संविधान में जाति का कोई स्थान नहीं है।"

    इस विवाद के सम्बन्ध में राजस्थान हाईकोर्ट ने 27-अप्रैल-2020 को एक अधिसूचना जारी की थी जिसमे यह कहा गया था कि किसी भी व्यक्ति (जिसमें अभियुक्त भी शामिल हैं) की जाति का किसी भी न्यायिक या प्रशासनिक मामले में उल्लेख नहीं किया जाना चाहिए।

    अधिसूचना में कहा गया था कि जाति का ऐसा उल्लेख "संविधान की भावना" के खिलाफ है और 2018 में हाईकोर्ट द्वारा दिए गए दिशा निर्देशों के भी विपरीत है।

    रेप पीड़िता की पहचान गोपनीय रखने की आवश्यकता पर अदालतों का रहा है जोर

    गौरतलब है कि भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 228-ए कुछ अपराधों के शिकार व्यक्तियों की पहचान का खुलासा करने को दण्डित करती है। इस धारा की उपधारा (1) के अनुसार, जो कोई किसी नाम या अन्य बात को, जिससे किसी ऐसे व्यक्ति की पहचान हो सकती है, जिसके विरुद्ध धारा 376, धारा 376-क, धारा 376-ख, धारा 376-ग, धारा 376-घ, या धारा 376-ड के अधीन किसी अपराध का किया जाना अभिकथित है या किया गया पाया गया है, मुद्रित या प्रकाशित करेगा उसे दण्डित किया जा सकता है।

    हालाँकि, किसी उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के निर्णय का मुद्रण या प्रकाशन इस धारा के अर्थ में कोई अपराध नहीं है। बावजूद इसके, उच्चतम न्यायलय ने भूपिंदर सिंह बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य AIR 2003 SC 468 (जस्टिस अरिजीत परसायत एवं जस्टिस दोरईस्वामी राजू की पीठ) में आईपीसी की धारा 228-A पर चर्चा करने के बाद यह कहा था कि,

    "यौन अपराध की शिकार महिला के सामाजिक उत्पीड़न या उत्पीड़न को रोकने के सामाजिक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, जिसके लिए धारा 228-ए लागू किया गया है, यह उचित होगा कि निर्णयों में, भले वो इस न्यायालय के हों, उच्च न्यायालय के हों या निचली अदालत के हों, पीड़िता के नाम को इंगित नहीं किया जाना चाहिए, और इसलिए हमने (इस) निर्णय में उसे 'पीड़ित' के रूप में वर्णित करना चुना है।"

    इसी बात को उच्चतम न्यायालय के तमाम निर्णयों को दोहराया गया था। कुछ प्रमुख मामले हैं, कर्नाटक राज्य बनाम पुट्टाराजा [(2004) 1 SCC 475], प्रेमिया @ प्रेम प्रकाश बनाम राजस्थान राज्य [2008(4) RCR (Cri.) 539 (SC)], रामकृष्ण बनाम राज्य (2009) 1 SCC 133।

    हालाँकि, ऐसे कई मामले हैं जहाँ उच्चतम न्यायालय ने अपने द्वारा तय किये गए इस नियम का उल्लंघन किया है। उदाहरण के लिए, वर्ष 2013 के एक मामले, कार्थी @ कार्तिक बनाम राज्य AIR 2013 SC 2645 में, उच्चतम न्यायालय द्वारा रेप पीड़िता के नाम का जिक्र 62 बार किया गया।

    हालाँकि वर्ष 2018 में तय किये गए एक मामले, निपुण सक्सेना बनाम भारत संघ [WRIT PETITION (CIVIL) NO. 565 OF 2012] ( ) में शीर्ष अदालत ने रेप पीड़िता की पहचान के संरक्षण के बारे में कुछ दिशानिर्देश दिए थे।

    अदालत ने कहा था कि, कोई भी व्यक्ति प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, सोशल मीडिया, आदि में पीड़िता का नाम या रिमोट तरीके से प्रिंट या प्रकाशित नहीं कर सकता है और ऐसे किसी भी तथ्य का खुलासा नहीं कर सकता, जिससे पीड़िता की पहचान की जा सके और जो बड़े पैमाने पर सार्वजनिक रूप से उसकी पहचान बताए।

    अदालत ने यह भी कहा था कि, IPC की धारा 376, 376A, 376AB, 376B, 376C, 376D, 376DA, 376DB या 376E IPC के तहत, और POCSO के तहत अपराधों से संबंधित एफआईआर सार्वजनिक डोमेन में नहीं डाली जाएंगी।

    इसके अलावा, यदि कोई पीड़िता धारा 372 सीआरपीसी के तहत अपील दायर करती है, तो पीड़िता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह अपनी पहचान बताए और अपील का निपटारा, कानून द्वारा निर्धारित तरीके से किया जाएगा।

    पुलिस अधिकारियों के लिए अदालत द्वारा निर्देश जारी किये गए थे कि उन्हें उन सभी दस्तावेजों को, जिसमें पीड़िता के नाम का खुलासा किया गया है, जहाँ तक संभव हो, एक सीलबंद कवर में रखना चाहिए और इन दस्तावेजों को समान दस्तावेजों द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना चाहिए जिसमें पीड़िता का नाम सभी रिकॉर्डों में हटा दिया गया है, जिसकी जांच सार्वजनिक डोमेन में की जा सकती हो।

    इसके अलावा, अदालत ने यह भी कहा था कि सभी अधिकारियों पर, जिन्हें अन्वेषण एजेंसी या अदालत के जरिये पीड़िता के नाम का पता चलता हो, पीड़िता के नाम और पहचान को गुप्त रखने की बाध्यता है और उन्हें किसी भी तरीके से इसका खुलासा नहीं करना चाहिए, सिवाय रिपोर्ट देने के, जिसे अन्वेषण एजेंसी या अदालत को केवल एक सीलबंद कवर में भेजा जाना चाहिए।

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