संरक्षण याचिका के मामलों में अदालत को नैतिकता पर अपने व्यक्तिगत विचार पेश नहीं करना चाहिए: पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
26 May 2020 1:11 PM IST
हाल ही में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने एक मामले में यह टिप्पणी की कि घर से भागे हुए जोड़ों द्वारा दाखिल संरक्षण की याचिका (Protection plea) पर सुनवाई करने वाली अदालत को, नैतिकता या मानवीय व्यवहार पर उपदेश देने की आवश्यकता नहीं है। अदालत ने यह साफ़ किया कि ऐसे मामलों में, अदालत को नैतिकता को लेकर अपने व्यक्तिगत विचारों को पेश नहीं करना चाहिए।
न्यायमूर्ति राजीव नारायण रैना की पीठ ने यह टिपण्णी उस मामले में की जहाँ घर से भागे हुए एक जोड़े ने, राज्य सरकार द्वारा गिरफ्तार किये जाने एवं अन्य प्रतिवादियों द्वारा शारीरिक क्षति/अपहानि (Bodily harm and injury) पहुंचाए/कारित किये जाने की आशंका के चलते एवं संरक्षण प्राप्त करने के इरादे से हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
दरअसल, याचिकाकर्ताओं ने गिरफ्तारी और खतरे की आशंका से जूझते हुए, पुलिस स्टेशन, चंधेर की स्थानीय पुलिस को यह निर्देश जारी करने के लिए हाईकोर्ट से संपर्क किया था कि उनके जीवन और उनकी स्वतंत्रता की रक्षा की जाए।
याचिकाकर्ताओं द्वारा, अपने आधार कार्ड को अदालत में पेश करते हुए यह दावा किया गया था कि वे दोनों वयस्क हैं।
याचिकाकर्ताओं के अधिवक्ता द्वारा यह दर्शाया गया कि जहाँ लड़की वर्ष 2002 में पैदा हुई थी, वहीँ लड़का वर्ष 1997 में पैदा हुआ था। हालाँकि, राज्य की ओर से पेश अधिवक्ता द्वारा यह दलील दी गयी कि याचिकाकर्ता नंबर 1 (लड़की) नाबालिग है और इस संबंध में एक प्राथमिकी (FIR) दर्ज की गई है।
इसपर अदालत ने कहा कि
"हालांकि लड़की की उम्र के संबंध में एक विवाद है, फिर भी (इस याचिका की) प्रार्थना भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 पर आधारित है, और इसलिए यह पुलिस विभाग के तत्काल ध्यान को आकर्षित करती है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि याचिकाकर्ता, निजी प्रतिवादियों सहित किसी के हाथों भी उत्पीडन का सामना न करें।"
ऐसे मामलों में, अदालत द्वारा नैतिकता को लेकर अपने व्यक्तिगत विचारों को पेश नहीं करने पर जोर देते हुए अदालत ने आगे यह भी कहा कि,
"एक संरक्षण याचिका में यह इस अदालत के लिए नहीं है कि वह सामाजिक रस्म-रिवाज़/अचार-विचार (Social mores), आदर्शों (Norms) और मानव व्यवहार में संलग्न हो या नैतिकता (Morality) पर व्यक्तिगत विचारों को पेश करे।"
अदालत ने इस बात को भी रेखांकित किया कि यदि यह मान भी लिया जाए कि लड़की नाबालिग है, तो यह याद रखा जाना चाहिए कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1956 में, नाबालिग लड़की का विवाह, शून्य (Void) नहीं होता है, बल्कि वह (उसके) विवाह योग्य उम्र (marriageable age) तक पहुँचने पर शून्यीकरण (Voidable) होता है।
इस मामले में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, अमृतसर को यह निर्देश जारी करते हुए याचिका का निपटारा किया गया कि,
"वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, अमृतसर को व्यक्तिगत रूप से मामले को देखने और मदद की पेशकश करने के लिए निर्देशित किया जाता है, जो उनकी (जोड़े) सुरक्षा के अनुरूप हो।
इसके लिए, याचिकाकर्ता, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक कार्यालय, अमृतसर से संपर्क करेंगे, उनको अपना संपर्क नंबर देंगे, जो मामले का संज्ञान लेंगे और कानून के अंतर्गत अधिकृत ऐसी कार्रवाई करेंगे, जिससे याचिकाकर्ताओं को कोई नुकसान न पहुंचे और उन्हें इस संबंध में दर्ज एफआईआर में गिरफ्तार न किया जाए।"
हाईकोर्ट द्वारा ये निर्देश, सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय किये गए मामले, लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य, 2006 (3) RCR (Criminal) 870 में दिए गए मार्गदर्शन के अनुरूप हैं। इन निर्देशों के साथ, हाईकोर्ट ने समाज में याचिकाकर्ताओं की स्थिति पर कोई राय व्यक्त किए बिना याचिका का निपटारा किया।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने, जिसमें जस्टिस अशोक भान और जस्टिस मार्कंडेय काटजू शामिल थे, लता सिंह बनाम यूपी राज्य 2006 (3) RCR (Criminal) 870 के मामले में यह कहा था कि इस बात में कोई विवाद नहीं है कि याचिकाकर्ता-महिला बालिग़ है, और इसलिए वह किसी से भी शादी करने या किसी के साथ रहने के लिए स्वतंत्र है, जिसे वह पसंद करती है।
हालाँकि, मौजूदा मामले में यह तथ्य निर्धारित नहीं किया गया कि क्या वाकई में यह लड़की बालिग हैं, परन्तु जैसा कि अदालत के इस मामले में किये गए अवलोकन से मालूम पड़ता है, अदालत का यह मानना है कि एक लड़का, केवल इस कारण से कि वह एक नाबालिग लड़की से शादी करता है, वह जोड़ा जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा के अपने अधिकारों को खो नहीं देता है।
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