'पीड़िता की गवाही विश्वसनीय नहीं': इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 20 साल जेल में बिताने वाले आरोपी को बलात्कार के मामले में बरी किया

LiveLaw News Network

2 March 2021 1:00 PM GMT

  • पीड़िता की गवाही विश्वसनीय नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 20 साल जेल में बिताने वाले आरोपी को बलात्कार के मामले में बरी किया

    इलाहाबाद हाईकोर्ट हाल ही में उस व्यक्ति के बचाव में आया है,जिसने झूठे बलात्कार के मामले में बीस साल जेल में बिता दिए हैं। कथित तौर पर एक भूमि विवाद के कारण एक महिला ने उसके खिलाफ झूठा बलात्कार का केस दायर किया था।

    न्यायमूर्ति डॉ कौशल जयेंद्र ठाकर और न्यायमूर्ति गौतम चैधरी की खंडपीठ ने एक विष्णु की रिहाई का आदेश पारित करते हुए,वर्ष 2003 में एक ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित आदेश को रद्द कर दिया है। ट्रायल कोर्ट ने आईपीसी की धारा 376 और 506 और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989 की धारा 3 (2) (वी) रिड विद 3 (1) (xii) के तहत विष्णु को दोषी करार दिया था।

    कोर्ट ने माना कि,

    ''हम राज्य की तरफ से पेश एजीए द्वारा प्रस्तुत दलीलों के साथ खुद को सहमत करने में असमर्थ हैं कि वह अत्याचार के साथ-साथ बलात्कार का शिकार हुई है और इसलिए, आरोपी के साथ नरमी से नहीं पेश आना चाहिए।''

    न्यायालय ने आगे कहा कि पीड़िता की एकमात्र गवाही, यदि विश्वसनीय हो तो अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त है। हालाँकि,वर्तमान मामले में यह देखा गया है कि पीड़िता को स्टर्लिंग गवाह नहीं कहा जा सकता है और वह अदालत के विश्वास को प्रेरित नहीं कर पाई है।

    पृष्ठभूमि

    इस मामले में प्राथमिकी सितंबर 2000 में दर्ज की गई थी। अभियोजन पक्ष के अनुसार, पीड़िता 5 महने की गर्भवती थी और अपने ससुर के लिए दोपहर का भोजन देने जा रही थी। तभी रास्ते में आरोपी ने उसे पकड़ लिया और जमीन पर पटक दिया और फिर उसका यौन शोषण किया।

    उनका यह भी कहना था कि पीड़िता की जाति के कारण यह घटना हुई थी और इस तथ्य की जानकारी आरोपी को थी।

    इसके अलावा, पीड़िता के अनुसार आरोपी ने उसे धमकी दी थी कि वह घटना के बारे में किसी को न बताए,वरना बुरे परिणाम भुगतने पड़ेंगे। इसलिए उसके परिवार के सदस्य तीन दिन तक पुलिस स्टेशन नहीं गए। उसके बाद उसके ससुर ने प्राथमिकी दर्ज करवाई थी।

    ट्रायल कोर्ट द्वारा दोषी ठहराए जाने के बाद, अपीलकर्ता ने 2005 में जेल के माध्यम से तत्काल अपील को प्राथमिकता दी थी, जो 16 वर्षों की अवधि के लिए डिफेक्टिव रही। इस डिफेक्टिव अपील को लिस्टिंग एप्लिकेशन के रूप में लिया गया था और कानूनी सेवा प्राधिकरण द्वारा एक विशेष उल्लेख के साथ दायर किया गया था कि अभियुक्त 20 साल से जेल में बंद है।

    कोर्ट का निष्कर्ष

    शुरुआत में, डिवीजन बेंच ने इस बात पर नाराजगी व्यक्त की थी कि एक डिफेक्टिव अपील को 16 वर्षों तक ठीक नहीं किया गया। कोर्ट ने कहा कि,

    ''सबसे दुर्भाग्यपूर्ण, इस मुकदमेबाजी का पहलू यह है कि अपील को जेल के माध्यम से दायर किया गया था। यह मामला 16 साल की अवधि के लिए एक डिफेक्टिव मामले के रूप में रहा और इसलिए, हम आम तौर पर डिफेक्टिव अपील संख्या का उल्लेख नहीं करते हैं लेकिन हमने इसका उल्लेख किया है।''

    कोर्ट ने इसके बाद पीड़िता और उसके परिवार द्वारा लगाए गए आरोपों की सत्यता की जांच की और निष्कर्ष निकाला कि उनके बयानों में काफी विरोधाभास है,जो उनके मौखिक साक्ष्यों को अविश्वसनीय बना रहा है।

    गणेशन बनाम राज्य,आपराधिक अपील संख्या 680/2020 में निर्धारित अनुपात के अनुसार अगर पीड़िता की गवाही विश्वसनीय है, तो सिर्फ उसकी एकमात्र गवाही के आधार पर आरोपी को दोषी करार दिया जा सकता है। इस फैसले को ध्यान में रखते हुए पीठ ने कहा कि,

    ''वर्तमान मामले में जब हम उक्त निर्णय पर भरोसा करते हैं, तो पता चलता है कि पीड़िता को स्टर्लिंग गवाह नहीं माना जा सकता है और चिकित्सा साक्ष्य का मूल्यांकन इस तथ्य को झूठलाता है कि अभियुक्त के खिलाफ कोई मामला बनता है।''

    पीड़िता की गवाही में विरोधाभास

    खंडपीठ ने कहा कि पीड़िता ने अपने अपने बयान में पहले यह बताया कि उसने एफआईआर दर्ज कराई थी,परंतु वह पुलिस स्टेशन के अंदर नहीं गई थी और वह पुलिस स्टेशन के बाहर बैठी थी। हालांकि, अपनी जिरह में उसने स्वीकार किया कि उसके ससुर ने पुलिस थाने के अधिकारी को रिपोर्ट दी थी।

    पीड़िता के अनुसार, जब यह घटना हुई उस समय बारिश का मौसम था। उसे झाड़ियों में फेंक दिया गया था और उसके अनुसार आरोपी ने उसके साथ दस मिनट तक गलत काम किया। उसने तुरंत अपने पति को इस घटना से अवगत नहीं कराया जो उस समय खेतों में था, लेकिन अगले दिन, उसने अपने ससुर को इस बात से अवगत कराया।

    ससुर ने अपने बयान में हालांकि जिरह के दौरान कहा कि इस घटना के बारे में उनकी बहू ने पहले उसकी पत्नी को बताया था और उसके बाद उसकी पत्नी ने उसे बताया था।

    शिकायतकर्ता की ओर से एक उद्देश्य था क्योंकि पक्षकारों के बीच भूमि विवाद था।

    चिकित्सा साक्ष्यों ने अभियोजन के मामले का समर्थन नहीं किया

    डिवीजन बेंच ने कहा कि चिकित्सा साक्ष्यों ने अभियोजन पक्ष के मामले का समर्थन नहीं किया है। हालांकि यह भी सचेत है कि यह जरूरी नहीं है कि पीड़िता की गवाही और चिकित्सा साक्ष्य में पुष्टिकरण हो। बेंच ने कहा कि,

    ''चिकित्सा साक्ष्य में जबरन संभोग के कुछ झलक दिखनी चाहिए, भले ही हम पीड़िता के बयान के अनुसार जाएं कि आरोपी ने दस मिनट के लिए उसका मुंह बंद कर लिया था और उसे जमीन पर पटक दिया था, ऐसे में महिला के शरीर पर कुछ चोटें आई होंगी।''

    कोर्ट ने कहा कि मेडिकल परीक्षक को पीड़िता के शरीर पर कोई बाहरी या आंतरिक चोट नहीं मिली। इस आधार पर कोर्ट ने माना कि,

    ''हम एक और तथ्य यह पाते हैं कि पीड़िता ने कथित तौर पर बलात्कार करने का आरोप लगाया है,परंतु उसके बावजूद भी महिला के निजी अंग पर कोई चोट नहीं है। जबकि वह एक गर्भवती महिला थी और उसके अनुसार उसे जमीन पर पटक दिया गया था।

    हमारे निष्कर्ष में, चिकित्सा साक्ष्य यह दिखा रहे हैं कि डॉक्टर को कोई शुक्राणु नहीं मिला था। डॉक्टर ने स्पष्ट रूप से कहा था कि जबरन संभोग का कोई संकेत नहीं मिला है। यह भी इस निष्कर्ष पर आधारित था कि महिला को कोई अंदरूनी चोट नहीं थी।

    अगर पांच महीने की गर्भवती महिला को जबरदस्ती जमीन पर पटक दिया गया था तो उसे कुछ चोट आई होगी,लेकिन इस तरह की कोई चोट इस मामले में पूरी तरह से अनुपस्थित है।''

    जाति आधारित आरोप साबित नहीं हुए

    अंत में बेंच ने कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर सका कि कथित घटना हुई क्योंकि पीड़िता एक विशेष वर्ग से संबंध रखती थी।

    कोर्ट ने कहा कि,

    ''एफआईआर से लेकर पीडब्लू-1, 2 और 3 के बयानों तक पूरे सबूतों को देखने के बाद हमें ऐसा कुछ नहीं मिला कि अपराध इसलिए हुआ था क्योंकि पीड़िता एक निश्चित समुदाय से संबंध रखती थी।

    निचली अदालत ने वास्तव में गलती की है क्योंकि उन्होंने यह चर्चा नहीं की है कि ऐसे क्या सबूत हैं,जो यह बताते हैं कि पीड़िता की जाति के कारण यह अपराध किया गया था।''

    केस का शीर्षकः विष्णु बनाम यूपी राज्य

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