‘अभियोजन पक्ष पीड़िता की उम्र को संदेह से परे साबित करने में विफल रहा’: गुवाहाटी हाईकोर्ट ने POCSO मामले में सजा रद्द की

Manisha Khatri

11 Aug 2023 12:00 PM GMT

  • ‘अभियोजन पक्ष पीड़िता की उम्र को संदेह से परे साबित करने में विफल रहा’: गुवाहाटी हाईकोर्ट ने POCSO मामले में सजा रद्द की

    Gauhati High Court

    गुवाहाटी हाईकोर्ट ने मंगलवार को एक व्यक्ति को पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के तहत निचली अदालत द्वारा दोषी करार देने और सजा देने के आदेश को इस आधार पर रद्द कर दिया कि अभियोजन पक्ष उचित संदेह से परे यह साबित करने में विफल रहा है कि घटना के समय पीड़िता की उम्र 18 वर्ष से कम थी।

    जस्टिस मालाश्री नंदी की एकल पीठ ने कहाः

    “यह अच्छी तरह से स्थापित है कि ऑसिफिकेशन टेस्ट या अन्य मेडिकल टेस्ट हालांकि उम्र निर्धारित करने के लिए एक मार्गदर्शक कारक है, लेकिन यह निर्णायक या निर्विवाद नहीं है और दोनों तरफ से दो साल की त्रुटि की संभावना छोड़ देता है। यह भी एक स्थापित स्थिति है कि पीड़िता की उम्र के संबंध में संदेह का लाभ हमेशा आरोपी के पक्ष में जाता है। मौजूदा मामले में रेडियोलॉजिस्ट ने पीड़िता की उम्र 16 से 17 साल आंकी है। उम्र में त्रुटि के मार्जिन को एक वर्ष मानते हुए भी पीड़िता की उम्र 18 वर्ष होगी और पॉक्सो अधिनियम की धारा 2 (डी) के अर्थ के तहत वह चाइल्ड नहीं होगी।’’

    पीड़िता ने 31 मार्च, 2017 को एक एफआईआर दर्ज करवाई थी जिसमें आरोप लगाया गया था कि अपीलकर्ता ने उससे शादी करने के बहाने उसके साथ संबंध बनाए और कई बार उसके साथ यौन संबंध बनाने के बाद उसे गर्भवती कर दिया। एफआईआर में आगे कहा गया कि हालांकि पीड़िता ने उससे बार-बार उसे अपने घर ले जाने का अनुरोध किया लेकिन उसने उसके अनुरोध पर ध्यान नहीं दिया।

    शिकायत प्राप्त होने पर, पॉक्सो अधिनियम, 2012 की धारा 6 (ऐग्रावेटिड पेनेट्रेटिव सेक्सुअल एसॉल्ट के लिए सजा) के तहत मामला दर्ज किया गया था। जांच पूरी होने के बाद पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के तहत आरोपी-अपीलकर्ता के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया गया था।

    ट्रायल कोर्ट ने 05 दिसंबर, 2020 को आरोपी-अपीलकर्ता को पॉक्सो अधिनियम की धारा के तहत दोषी ठहराया और उसे दस साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई और उसे सीआरपीसी की धारा 357(3) के तहत पीड़ित लड़की और उसके बेटे को 50,000 रुपये का मुआवजा देने का निर्देश दिया।

    एमिकस क्यूरी जेड हुसैन ने तर्क दिया कि अभियोजन पक्ष ने केवल चिकित्सा साक्ष्य के माध्यम से पीड़िता की उम्र साबित की क्योंकि पीड़िता की वास्तविक उम्र साबित करने के लिए कोई जन्म प्रमाण पत्र या कोई अन्य दस्तावेज नहीं था। आगे कहा गया कि यह कानून का स्थापित सिद्धांत है कि दोनों तरफ से दो साल की त्रुटि की गुंजाइश है और संदेह का लाभ हमेशा आरोपी के पक्ष में जाता है।

    एमिकस क्यूरी ने तर्क दिया कि पीड़िता की मौखिक गवाही के अलावा, यह साबित करने के लिए कोई अन्य सबूत नहीं है कि आरोपी ने पीड़िता के साथ यौन संबंध बनाए और वह उसकी गर्भावस्था के लिए जिम्मेदार था। यह तर्क दिया गया कि बच्चा पैदा हुआ और जीवित था, बच्चे के पितृत्व को साबित करने के लिए कोई डीएनए या किसी भी प्रकार की चिकित्सा जांच नहीं की गई थी।

    दूसरी ओर, अतिरिक्त लोक अभियोजक (एपीपी) एस एच बोरा ने प्रस्तुत किया कि आरोपी-अपीलकर्ता को अच्छी तरह से पता था कि पीड़िता 18 वर्ष से कम उम्र की है, इसके बावजूद उसने पीड़िता के साथ शारीरिक संबंध बनाए।

    अदालत ने कहा कि पीड़िता के साक्ष्य से संकेत मिलता है कि उसके और आरोपी-अपीलकर्ता के बीच संबंध सहमति से बने थे। कोर्ट ने आगे कहा कि रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों से पता चलता है कि पीड़िता की उम्र साबित करने के लिए जन्म प्रमाण पत्र या स्कूल प्रमाणपत्र जैसे कोई दस्तावेज नहीं हैं और अभियोजन पक्ष ने रेडियोलॉजिकल रिपोर्ट के माध्यम से पीड़िता की उम्र साबित की है।

    कोर्ट ने कहा,“हालांकि पीड़िता ने कहा कि उसका जन्म 15.08.2004 को हुआ था लेकिन वह मुकदमे के दौरान अपना जन्म प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने में विफल रही। पीडब्ल्यू-1 और पीडब्ल्यू-2, जो पीड़िता के दादा-दादी हैं, ने कहा कि घटना के समय पीड़ित लड़की की उम्र 13 वर्ष थी, लेकिन उनके मौखिक साक्ष्य को प्रमाणित करने के लिए ट्रायल कोर्ट के समक्ष कोई भी दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किया गया है। इससे पता चलता है कि पीड़िता की उम्र रेडियोलॉजिकल रिपोर्ट से साबित की गई है।”

    अदालत ने आगे कहा कि चिकित्सा अधिकारी (पीडब्ल्यू-6) के साक्ष्य से संकेत मिलता है कि रेडियोलॉजिस्ट ने पीड़िता की उम्र 16 से 17 वर्ष आंकी है। हालांकि, यह भी कहा कि रेडियोलॉजिस्ट, जिसने पीड़िता की उम्र निर्धारित करने के लिए उसकी जांच की थी, उसे रेडियोलॉजिकल रिपोर्ट को साबित करने के लिए ट्रायल कोर्ट के समक्ष पेश नहीं किया गया।

    हाईकोर्ट ने कहा,“पीडब्ल्यू-6,चिकित्सा अधिकारी पीड़िता की उम्र का निर्धारण करने वाली रिपोर्ट का लेखक नहीं है। पीडब्ल्यू-6 ने ट्रायल कोर्ट में गवाही देते हुए कहा था कि रेडियोलॉजिस्ट की रिपोर्ट के अनुसार, संबंधित समय में पीड़िता की उम्र 16 से 17 वर्ष थी। चूंकि अभियोजन पक्ष ने उक्त डॉक्टर (रेडियोलॉजिस्ट) से जिरह नहीं की है जो इस तरह की राय का आधार बता सके, रिपोर्ट का कानून की नजर में कोई साक्ष्य मूल्य नहीं है।’’

    अदालत ने आगे कहा कि अभियोजन पक्ष ने ‘‘पीड़िता की शारीरिक वृद्धि व विकास और सहायक यौन चरित्र’’ के संबंध में भी कोई सबूत पेश नहीं किया है, जो पीड़िता की सही उम्र के संबंध में पर्याप्त संदेह की गुंजाइश छोड़ता है और जिसका लाभ आवश्यक रूप से अपीलकर्ता के पक्ष में जाना चाहिए।

    अदालत ने कहा,

    “इसलिए, अभियोजन पक्ष बिना किसी संदेह के यह साबित करने में विफल रहा है कि पीड़िता की उम्र 18 वर्ष से कम थी। यह प्रासंगिक था क्योंकि रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्य इंगित करता है कि अपीलकर्ता और पीड़िता के बीच शारीरिक संबंध सहमति से बने थे। यह साबित करने के लिए साक्ष्य के अभाव में कि पीड़िता 18 वर्ष से कम उम्र की थी, पॉक्सो अधिनियम के प्रावधानों को लागू नहीं किया जा सकता है और आईपीसी की धारा 375 के अर्थ में सहमति से बना संबंध बलात्कार का अपराध नहीं होगा।’’

    केस टाइटल- एस बनाम असम राज्य

    साइटेशन- 2023 लाइवलॉ (जीएयू) 80

    निर्णय पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



    Next Story