[प्रोजेक्ट 39A – 'डेथ पेनल्टी इंडिया रिपोर्ट'] मृत्यु-दंड पर विचार-विमर्श में प्रणाली-गत वास्तविकताओं को समझने का एक प्रयास

SPARSH UPADHYAY

10 Oct 2020 6:05 AM GMT

  • [प्रोजेक्ट 39A – डेथ पेनल्टी इंडिया रिपोर्ट] मृत्यु-दंड पर विचार-विमर्श में प्रणाली-गत वास्तविकताओं को समझने का एक प्रयास

    आज (10 अक्टूबर) को विश्व भर में 'डेथ पेनल्टी के खिलाफ विश्व दिवस' मनाया जाता है, इस दिन का आयोजन प्रथम बार, वर्ल्ड कोलिशन द्वारा 2003 में किया गया था। इस दिन, मौत की सजा के उन्मूलन की वकालत करने के अलावा, मौत की सजा के साथ-साथ कैदियों को प्रभावित करने वाली अन्य परिस्थितियों के बारे में जागरूकता फैलाई जाती है।

    वास्तव में, गिरफ्तारी, नजरबंदी, परीक्षण और परीक्षण के दौरान और बाद में, प्रभावी कानूनी प्रतिनिधित्व तक पहुंच के बिना, उचित कानूनी प्रक्रिया की गारंटी नहीं दी जा सकती है। यह कहना गलत नहीं होगा कि मृत्यु दंड के मामले में, प्रभावी कानूनी प्रतिनिधित्व की कमी से उत्पन्न होने वाले परिणाम, जीवन और मृत्यु के बीच के अंतर से कम नहीं होते हैं।

    इसी क्रम में, प्रोजेक्ट 39A (NLU-D) द्वारा हाल में 'डेथ पेनल्टी इंडिया' नामक एक रिपोर्ट, हिंदी भाषा में जारी की गयी है, जो मृत्यु-दंड के इर्द-गिर्द मौजूद मुद्दों पर कई चर्चाओं को आगे बढ़ने का काम करती है। लाइव लॉ हिंदी आपके समक्ष इस रिपोर्ट के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं को सामने ला रहा है।

    यह रिपोर्ट क्या है?: संक्षेप में

    जैसा कि हमने कहा कि प्रोजेक्ट 39A (NLU-D) द्वारा जारी 'डेथ पेनल्टी इंडिया' नामक यह रिपोर्ट हिंदी भाषा में है, जिसके अंतर्गत जून 2013 से जनवरी 2015 के बीच मृत्युदंड की सजा पाए कैदियों का साक्षात्कार किया गया है। अध्ययन के लिए भारत के प्रत्येक राज्य को चिन्हित किया गया।

    इस रिपोर्ट का मुख्य उद्देश्य, मृत्यु दंड पाए हुए कैदियों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का दस्तावेजीकरण एवं न्याय प्रणाली के विभिन्न पहलुओं के साथ उनकी बातचीत को समझने का प्रयास है।

    रिपोर्ट में यह पाया गया है कि मृत्युदंड की सजा, वर्ग, लिंग, जाति, धर्म और शैक्षिक स्तर से जुडी है और अधिकतर समाज के हाशिये पर रहने वाला वर्ग ही इसे झेलता है। हालाँकि, यह रिपोर्ट यह अवश्य कहती है कि यह कहना गलत होगा कि आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रत्यक्ष भेदभाव है।

    कुल मिलकर 385 मृत्युदंड पाए कैदियों में से 373 कैदी इस रिपोर्ट का हिस्सा बने। इनमे से भी 17 कैदियों का साक्षात्कार नहीं हो सका, हालाँकि बाकियों का साक्षात्कार किया गया और जहाँ तक संभव हुआ इनके परिवार वालों से भी बातचीत की गयी।

    रिपोर्ट में यह भी देखने को मिलता है कि किस प्रकार से ऐसी कैदियों के परिवार वाले बातचीत करने में झिझक महसूस कर रहे थे, इसलिए जहाँ तक संभव हुआ, कुछ मामलों में ऐसे परिवारवालों को किसी अलग स्थान पर बुलाकर उनका साक्षात्कार किया गया।

    गौरतलब है कि ऐसे मामले भी सामने आये जहाँ परिवार वालों ने मृत्युदंड पाए कैदियों से अपने संबंधों को समाप्त कर लिया था।

    सभी कैदियों की गोपनीयता बनाये रखी गयी है, उनके जिले, राज्य, अपराध की प्रवृति, मामले में फैसला कब और किस कोर्ट द्वारा सुनाया गया, इत्यादि को भी गोपनीय रखा गया है।

    परिवार जनों का साक्षात्कार करते समय इस बात का ध्यान रखा गया कि उनके लिए प्रश्न यातना भरे न हों और उनसे इस संबंध में भी चर्चा नहीं की गयी कि उनसे सम्बंधित कैदी वास्तव में दोषी हैं अथवा नहीं।

    इस परियोजना के दौरान मृत्युदंड की सजा के तहत 385 कैदी थे, 20 राज्य और एक केंद्रशासित प्रदेश (अंडमान निकोबार द्वीप समूह) में से 373 कैदी इस अध्ययन का हिस्सा रहे। शेष 12 कैदी जो इस अध्ययन का हिस्सा नहीं हैं, उन्हें तमिल नाडु में मौत की सजा सुनाई गयी थी। कई प्रयासों के बावजूद तमिलनाडु सरकार से कैदियों के साक्षात्कार की अनुमति नहीं मिल सकी।

    373 में से 361 पुरुष और 12 महिलाएं थीं। जबकि उत्तरप्रदेश में मृत्युदंड पाए कैदियों की पूर्ण संख्या सबसे ज्यादा थी (79)। वहीँ दिल्ली में आबादी की तुलना में सबसे ज्यादा 30 कैदी थे।

    कानूनी सन्दर्भ

    मृत्यु के मामलों के चरण




    आमतौर पर मृत्युदंड के मामले सेशन कोर्ट में आयोजित किये जाते हैं। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 स्पष्ट रूप से आपराधिक मामलों को दो अलग चरणों में मुहैया करवाती है।

    पहले चरण में अभियुक्त के अपराध पर निर्णय लेने के लिए सबूत की आवश्यकता होती है, एक बार जब अपराध सिद्ध हो जाता है, तब एक अलग सुनवाई होनी चाहिए। उपयुक्त सजा निर्धारण करने के लिए न्यायालय कई महत्वपूर्ण तथ्यों को नजर में रखता है।

    यदि मृत्युदंड का फैसला होता है तो सेशन कोर्ट के लिए यह जरुरी है कि वह विशेष कारणों को रिकॉर्ड करे [धारा 354(3) दंड प्रक्रिया संहिता 1973]। यही भी जरुरी है कि सजा की पुष्टि हाईकोर्ट करे [धरा 366 दंड प्रक्रिया संहिता 1973]।

    कुछ परिस्थितियों को छोड़ कर मृत्युदंड पाए कैदियों को सुप्रीम कोर्ट में अपने मामले की सुनवाई का कोई अधिकार उपलब्ध नहीं होता है।

    आपराधिक मामलों में संविधान के अनुच्छेद 132 के तहत, सुप्रीम कोर्ट के सामने अपील रखी जा सकती है, अगर हाईकोर्ट यह प्रमाणपत्र दे कि इस मामले में उन कानूनी सवालों को शामिल किया गया है जो संविधान की व्याख्या से समबन्धित हैं।

    सुप्रीम कोर्ट में संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत भी मामला दर्ज किया जा सकता है। यह न्यायलय के विवेक पर निर्भर है कि जो मामले स्पेशल लीव पिटीशन (एसएलपी) की तरह दायर होते हैं वह उन्हें सुनना चाहता है या नहीं।

    सुप्रीम कोर्ट ने शायद ही कभी मृत्युदंड पाए कैदियों की अपील सुनने से इंकार किया है, लेकिन फिर भी इस तरह के इंकार की काफी घटनाएँ सामने आई हैं जिसके कारण यह गंम्भीर चिंता का कारण बन गया है।

    अनुच्छेद 132 और 136 के अलावा, संविधान के अनुच्छेद 134 के अंतर्गत, मृत्युदंड मामलों में निम्नलिखित 3 उदाहरणों में अपील अनिवार्य है:-

    (1) जब निचली अदालत के रिहाई के आदेश को हाईकोर्ट रद्द कर देता है और मृत्युदंड लागू कर देता है,

    (2) जब हाईकोर्ट निचली अदालत से मुकदमा वापिस लेकर अपनी अदालत में चलाता है और फिर अभियुक्त को मृत्युदंड देता है

    (3) जब हाईकोर्ट यह प्रमाणित करता है कि मामला सुप्रीमकोर्ट में अपील के लिए उपयुक्त है।

    सुप्रीम कोर्ट के निर्णय लेने के बाद उस फैसले पर पुनर्विचार की अपील 30 दिनों के अन्तरगत अनुच्छेद 137 के तहत दायर की जा सकती है।

    बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980) 2 एससीसी 684 के मामले में भारत में मृत्युदंड की संवैधानिकता को मई 1980 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सही ठहराया गया था।

    बहुमत के निर्णय ने यह माना था कि मृत्युदंड केवल 'विरल से विरलतम' (Rarest of the Rare) मामलों में ही लागू करना चाहिए, जिसमे यह ध्यान रखना चाहिए (कि अपराध की परिस्थितियों के साथ साथ अपराधी की परिस्थितियों के सम्बन्ध में उत्तेजक और क्षमायोग्य कारक क्या हैं)

    सामाजिक एवं आर्थिक परिवेश

    आयु



    सजा निर्धारित करने में कैदी की उम्र एक महत्वपूर्ण गुणक है। बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में यह कहा गया था कि "अगर अपराधी युवा या बुजुर्ग है तो उसे मृत्युदंड नहीं दिया जायेगा"।

    तर्क यह है कि जवान व्यक्ति की पूरी जिंदगी उसके सामने पड़ी है और आपराधिक न्याय प्रणाली का झुकाव उनके सुधार पर होता है। वयस्कों के मुकाबले, युवा अधिक संवेदनशील होते हैं इसलिए उनको व्यस्क के सामान सजा देना कठोर होगा।

    दूसरी तरफ एक बुजुर्ग व्यक्ति समाज के लिए ज्यादा खतरा नहीं है, ऐसे व्यक्ति को मृत्युदंड देना न्यायसंगत नहीं है।

    अध्ययन के द्वारा 18 व्यक्तियों ने यह दावा किया कि वे घटना के समय किशोर थे (18 वर्ष से कम आयु के) फिर भी उन्हें मृत्युदंड सुनाया गया।

    रिपोर्ट यह कहती है कि चिंता का विषय यह है कि अदालत में किशोर होने के दावे पर ज्यादातर गौर नहीं किया जाता है।

    18 किशोर कैदियों में से 15 अदालती फैसलों का शोध में पता लगाया जा सका, उनमे से 12 मामलों में किशोर होने का दावा ही नहीं किया गया था।

    गौरतलब है कि अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध नागरिक और राजनीतिक अधिकार के तहत जिनको भारत भी मानता है, किशोरों पर मौत की सजा नहीं लगायी जा सकती है। भारतीय कानून में भी किशोरों पर सामान्य आपराधिक न्याय प्रणाली नहीं लगायी जा सकती और उन्हें किसी भी मामले में मौत की सजा नहीं दी जा सकती है।

    आर्थिक स्थिति




    शैक्षणिक स्थिति

    रिपोर्ट के अनुसार 365 कैदियों में से जिनकी शैक्षणिक स्थिति की जानकारी उपलब्ध थी, 23% कभी स्कूल नहीं गए थे और 61.6% ने माध्यमिक शिक्षा पूरी नहीं की थी।

    हिरासत के अनुभव

    रिपोर्ट में यह पाया गया है कि 80 प्रतिशत कैदियों ने जब पुलिस हिरासत के अपने अनुभवों के बारे में बात की तो यह स्वीकार किया कि उन्हें हिरासत में यातनाएं सहनी पड़ीं। न केवल यह संख्या चौंकाने वाली है, बल्कि पुलिस द्वारा यातना देने के तरीके अमानवीय, अपमानजनक तथा शारीरिक एवं मानसिक पीड़ा देने के चरम रूप थे।

    हिरासत में हिंसा के कुछ स्थायी प्रभाव जिनके बारे में कैदियों ने शिकायत की है वे हैं – स्थायी रूप से आँख और कान को नुक्सान, अंगों और अन्य शारीरिक भागों को अपूरणीय क्षति, रीढ़ की हड्डी पर चोट।

    हिरासत में हिंसा के कारण जो पीड़ा कैदियों ने सही उसके अन्य हानिकारक परिणाम, तीव्र दर्द और सूजन और सूजन के कारण भोजन खाने में अक्षमता, पेशाब में रक्त, शरीर के विभिन्न भागों में फ्रैक्चर, मुहं, कान या गुदा से खून बहना।

    अन्य प्रकार की यातनाएं जो रिपोर्ट में बताई गयी हैं, वे हैं – नाखूनों को खींच कर निकालना, शौचालय में मुंह डालना, हीटर पर पेशाब करने के लिए मजबूर करना, सर को दीवार या कांच पर दे मारना, बहुत देर तक बैठने न देना इत्यादि

    महिला कैदी के एक मामले में यह बताया गया कि गर्भवती महिला के शरीर को रोलर्स से दबाया गया जिसके कारण उसका गर्भपात हो गया।

    एक अन्य महिला ने बताया कि उसे बिजली के झटके दिए गए और उसके घावों पर मिर्च पाउडर माला गया, पीड़ा पहुंचाते वक्त पुलिस वाले टीवी की आवाज़ बढ़ा देते थे जिससे उसकी चीख पुकार सुनी न जा सके।

    इसके अलावा, आतंकी अपराध के लिए मौत की सजा पाए हुए 22 कैदी जिन्होंने हिरासत हिंसा के बारे में बात की उनमे से 16 ने बताया कि उन्हें हिरासत में रहते हुए यातनाएं दी गयीं।

    एक कैदी ने यह बताया कि उसे बुरी तरह से पीटा गया, गुप्तांगों में बिजली के करंट दिए गए, इसके अलावा एक अन्य कैदी ने कहा कि उसके इतना पीटा गया कि कपडे उतारते समय उसकी त्वचा भी छिल कर निकल आई।

    एक अन्य कैदी ने बताया कि पुलिस से उसके शरीर के अन्दर एक लोहे की छड डाली और 20 दिन तक बिजली के करंट दिए।

    यौन अपराध के लिए मौत की सजा पाए कैदियों में से 70 ने हिरासत में रहते हुए यातना के बारे में बात की। उसमे से 63 ने स्वीकार किया कि उनके साथ अत्याचार हुआ।

    एक अपराधी के अनुसार उसके सारे कपडे उतार कर मेज पर बाँध दिया गया और सांप को कमरे में छोड़ दिया गया और उसके लिंग को जकड़कर उसमे से बिजली के करंट पारित किया गए। एक अन्य कैदी के अनुसार उसके लिंग में सुईं डाली गयी

    गौरतलब है कि जिन 92 कैदियों ने कहा कि उन्होंने पुलिस हिरासत में जुर्म कबूल किया, उनमे से 72 (78.3%) ऐसी थे जिन्होंने यातना के कारण बयान देने की बात की।

    इस तरह के बयानों को निकलवाने के लिए अत्यधिक शारीरिक हिंसा से लेकर उनके परिवार के सदस्यों को नुक्सान की धमकी देने तक जैसी तकनीकों को काम में लिया गया।

    रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र मिलता है कि 258 कैदियों में से जिन्होंने मजिस्ट्रेट के सामने लाये जाने के बारे में बात की, 166 ने कहा कि उन्हें 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने नहीं लाया गया था।

    गौरतलब है कि संविधान का अनुच्छेद 22 (2) यह स्पष्ट करता है कि हर व्यक्ति जिसे गिरफ्तार कर हिरासत में रखा गया है उसे 24 घंटे के भीतर निकटतम मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत किया जाए।

    इसके अलावा सीआरपीसी की धारा 57 में यह कहा गया कि मजिस्ट्रेट के सामने लाने से पहले एक पुलिस अधिकारी 24 घंटे से अधिक की अवधि के लिए वारंट के बिना गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को हिरासत में नहीं रख सकता।

    रिपोर्ट महत्वपूर्ण रूप से यह भी बताती है कि 191 कैदियों में से जिन्होंने पूछताछ के समय वकील तक पहुँच के बारे में जानकारी साझा की, 185 कैदियों (97 प्रतिशत) ने कहा कि उनके पास वकील नहीं थे। इन 185 कैदियों में से 144 आर्थिक रूप से कमजोर थे (80%)

    गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने हुसैनारा खातून बनाम अन्य गृह सचिव बिहार राज्य पटना (1980) एससीसी 98 पैराग्राफ 7 में कहा है कि राज्य, गरीब आरोपी को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने के पहले ही निशुल्क वकील उपलब्ध करने के लिए बाध्य है, फिर भी 189 कैदियों में से जिन्होंने मजिस्ट्रेट के सामने लाये जाने के समय उनके पास वकील था या नहीं के बारे में बात की तो 169 (89.4%) के पास वकील नहीं थे।

    मुकदमे के दौरान, अपने अनुभव के बारे में बात करने वाले 286 कैदियों में से 156 (54.6%) ने कहा कि उन्हें कार्यवाही बिलकुल समझ नहीं आई थी।

    कानूनी प्रतिनिधित्व

    कैदियों और परिवार वालों के साक्षात्कार के दौरान इस चलन के कारणों का पता चला कि ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट एक विशाल बहुमत उन कैदियों का था, जिनका प्रतिनिधित्व निजी वकीलों ने किया था।

    हालाँकि 70.6% कैदी जिनका ट्रायल कोर्ट और उच्च अदालतों में निजी वकीलों द्वारा प्रतिनिधित्व हुआ वो आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के हैं। लेकिन वे सरकारी वकीलों के डर से निजी वकीलों को लेने के लिए मजबूर हुए।

    उनका मानना था कि निजी वकील उन्हें बेहतर कानूनी प्रतिनिधित्व प्रदान करेंगे परन्तु वास्तविकता में ऐसा हुआ हो यह जरुरी नहीं था।

    आर्थिक रूप से कमजोर परिवार जिन्होंने ट्रायल कोर्ट या हाईकोर्ट में निजी वकीलों को नियुक्त किया और खर्च के बारे में बात की उनसे पता चला कि निजी कानूनी प्रतिनिधित्व वहां करने के लिए कईयों ने पैसे उधर लिए या उन्हें घर, भूमि, आभूषण, पशुधन या अन्य सामानों को बेचना पड़ा।

    258 कैदियों में से जिन्होंने अपने ट्रायल कोर्ट के वकीलों के साथ बातचीत के बारे में बात की, 181 (70.2 प्रतिशत) ने बताया कि वकील उनके साथ मामलों पर विस्तृत चर्चा नहीं करते।

    हाईकोर्ट में 68.4% कैदियों ने अपने वकीलों से बात नहीं की, यहाँ तक की उनसे उनकी मुलाकात भी नहीं हुई।

    सुप्रीम कोर्ट में तय या लंबित मामलों में से 44.1% कैदियों को उनका प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों के नाम तक नहीं पता थे न ही उनसे उनकी कभी मुलाकात हुई।

    मृत्यु की प्रतीक्षा में जीवन

    रिपोर्ट यह निष्कर्ष निकालती है कि सिर्फ मृत्युदंड सजा नहीं है, कठोर जेल की स्थितियों और अमानवीय व्यवहार, कैदियों को मौत की सजा का अभिन्न अंग लगती है। मौत की सजा पाए कैदियों के संबंध में भारत के जेलों को सुधार और पुनर्वास के संस्थाओं के रूप में देखने का मामला बेहद कमजोर है।

    मौत की सजा पाने वाले कैदियों के प्रति, जेलों की समझ सिर्फ यह है कि ये फांसी का इन्तजार कर रहे व्यक्ति हैं और उनके संभावित भवष्य के लिए कोई सार्थक निवेश नहीं होता है।

    मृत्युदंड के बहुत से मामलों को, अपीलीय अदालतों द्वारा रद्द किये जाने को देखते हुए, जेल में इन कैदियों को बुनियादी अवसरों से दूर रखना अनुचित है, ट्रायल से पूर्व की हिंसा, निर्णायक तंत्र की विमुखता, और कैद की अमानवीय परिस्थतियों से यह स्पष्ट है कि आपराधिक न्याय प्रणाली के विभिन्न बिन्दुओं का किसी व्यक्ति को मृत्यु दंड देने के दंडात्मक पहलु में अधिक योगदान है।

    कुछ अन्य महत्वपूर्ण ग्राफ












    अंत में, रिपोर्ट यह कहती है कि मृत्यु दंड पर विचार-विमर्श में प्रणालीगत वास्तविकताओं को समझे बिना इस सजा के गुणों पर टिप्पणी की जाती है।

    बहुत लम्बे समय से भारत में मृत्युदंड पर विचार-विमर्श में चिंता बनी हुई है, यह देखा गया है कि इस चर्चा के दौरान अपराधिक न्याय प्रणाली की वास्तविकताओं को मोटे तौर पर नजरअंदाज ही नहीं किया जा रहा है बल्कि उसपर बहुत विश्वास का निर्माण किया जा रहा है।

    इस सब के बीच ऊँची अबेध दीवारों के भीतर हमारी नजरों और मन से दूर बंद दुनिया में बसने वाले लोगों की कहानियां नजरअंदाज़ हो रही हैं। यह रिपोर्ट उन आवाजों को आम जनता तक पहुँचाने का एक प्रयास करती हुई नजर आती है।

    रिपोर्ट देखें



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