POCSO केस चार साल से लंबित, आरोपी विलंब करने वाले हथकंडे अपना रहाः मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को दिन-प्रतिदिन सुनवाई करने का निर्देश दिया

LiveLaw News Network

23 April 2022 4:45 AM GMT

  • Writ Of Habeas Corpus Will Not Lie When Adoptive Mother Seeks Child

    MP High Court

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने हाल ही में एक ट्रायल कोर्ट को एक पॉक्सो मामले में दिन-प्रतिदिन के आधार पर जितनी जल्दी हो सके सुनवाई पूरी करने का निर्देश दिया है। हाईकोर्ट ने कहा कि यह मामला 4 साल से लंबित है और आरोपी इसे लंबा खींचने के लिए समय व्यर्थ करने वाले (विलंब करने वाले) हथकंडे अपना रहा है।

    जस्टिस आनंद पाठक ने कहा,

    ''मामले की वास्तविक स्थिति और कानूनी स्थिति को देखते हुए यह आवश्यक है कि पॉक्सो अधिनियम की धारा 35(1) और (2) के मद्देनजर दिन-प्रतिदिन के आधार पर यथासंभव शीघ्रता से सुनवाई की जाए। अभियुक्त द्वारा की जाने वाली किसी भी चूक या अवज्ञा से ट्रायल कोर्ट द्वारा सीआरपीसी में उपलब्ध विभिन्न प्रावधानों के अनुसार सख्ती से निपटा जाए।''

    धारा 35 में प्रावधान है कि विशेष न्यायालय द्वारा अपराध पर संज्ञान लेने के तीस दिनों की अवधि के भीतर बच्चे के बयान को दर्ज किया जाए और देरी के कारणों, यदि कोई हो, तो विशेष न्यायालय द्वारा दर्ज किया जाएगा। इसके अलावा, अपराध पर संज्ञान लेने की तारीख से एक वर्ष की अवधि के भीतर, जहां तक संभव हो, मामले की सुनवाई को पूरा किया जाए।

    अदालत ने एरिया के एसएचओ को निर्देश दिया है कि वह पीड़िता और उसके परिवार के सदस्यों को स्थिति के अनुसार आवश्यकता होने पर सुरक्षा प्रदान करे, खासकर जब पीड़िता और उसके परिवार के सदस्य अभियोजन पक्ष के गवाह के रूप में अदालत की कार्यवाही में भाग लेते हैं, ताकि आरोपी और उसकी ओर से अन्य व्यक्ति उन्हें डरा व धमका ना सके।

    अदालत के समक्ष एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें सुनवाई को जल्द से जल्द पूरा करने और एसएचओ को गवाहों के साथ जाने का निर्देश देने की मांग की गई थी,खासतौर पर जब वे गवाही के लिए ट्रायल कोर्ट के सामने पेश होते हैं।

    याचिकाकर्ता ने नाबालिग पीड़िता के शारीरिक और यौन शोषण से संबंधित मामले की सुनवाई जल्द से जल्द पूरी करने की मांग की थी। यह मामला भारतीय दंड संहिता की धारा 376(2)(एन), 376(2)(i), 354(ए)(i) (ii),354 (डी), 120-बी, 201,यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम(पॉक्सो) 2012 की धारा 3,4,5,6,13,14 और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 67,67 (ए), 67 (बी), 66 (डी), 66 (ई) के तहत किए गए अपराधों के लिए दर्ज किया गया है।

    अदालत के समक्ष पेश दस्तावेजों ने सुझाव दिया है कि इस तरह के जघन्य अपराध में लगभग 4 साल बीत जाने के बावजूद, वर्तमान में केवल पीड़िता से ही आरोपी द्वारा जिरह की गई है और उसके परिवार के सदस्यों से ट्रायल कोर्ट के समक्ष जिरह की जानी अभी बाकी है।

    याचिकाकर्ता ने कहा कि आरोपी मुकदमे में देरी करने और याचिकाकर्ता/पीड़िता व उसके परिवार के सदस्यों को मामला छोड़ने और अपनी शर्तों को मनवाने के लिए परेशान कर रहा है,जिसके लिए वह हर हथकंडा अपना रहा है। चूंकि आरोपी मुकदमे में सहयोग नहीं कर रहा था और लगातार पीड़िता और उसके परिवार के सदस्यों को परेशान कर रहा था, इसलिए जमानत रद्द करने की मांग करते हुए एक आवेदन भी दायर किया गया था।

    अदालत ने कहा, ''शिकायतकर्ता और पीड़िता सहित हर नागरिक का यह मौलिक अधिकार है कि उसे बिना किसी देरी के न्याय प्राप्त हो सके, जबकि प्रतिवादी देरी कर रहा हैं और स्पीडी ट्रायल और न्याय प्राप्त करने के अधिकार के सिद्धांत को विफल कर रहा है।''

    राज्य ने स्वीकार किया कि फेयर ट्रायल और न्याय प्राप्त करने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार है और इसलिए, उचित आदेश पारित किया जा सकता है। आरोपी के वकील ने इस याचिका का जोरदार विरोध किया और कहा कि ट्रायल कोर्ट के पास सीआरपीसी की धारा 317 सहित मुकदमे को संभालने के लिए पर्याप्त साधन हैं और अगर गवाहों से ठीक से जिरह नहीं की जाती है तो यह प्रतिवादियों की अपेक्षा या संभावना पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा और यह उनके मौलिक अधिकारों के खिलाफ होगा।

    दोनों वकीलों की दलीलें सुनने के बाद अदालत ने कहा कि मामला एक नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार के जघन्य अपराध और उसकी अश्लील तस्वीरें/वीडियो इंटरनेट पर वायरल करने से संबंधित है। आरोपों की अवधि और बनावट घटना की गंभीरता को दर्शाती है। यह घटना 2019 में हुई थी और अब तक केवल पीड़िता और उसके पिता से ट्रायल कोर्ट के समक्ष जिरह की गई है, जबकि अभियोजन पक्ष के अन्य गवाहों / पीड़िता के परिवार के सदस्यों के बयान दर्ज किए जाने बाकी है।

    कोर्ट ने यह भी कहा कि ट्रायल कोर्ट के आदेश-पत्रों के अवलोकन से पता चलता है कि आरोपी दोपहर के भोजन के बाद ही अभियोजन पक्ष के गवाहों से जिरह करता था ताकि उस दिन जिरह पूरी न हो सके और गवाहों को फिर से आना पड़े।

    कोर्ट ने कहा कि,''13 बार मामले की सुनवाई स्थगित करने पर, अभियुक्त ने पीड़िता/नाबालिग लड़की से जिरह पूरी की थी। पॉक्सो अधिनियम की धारा 35(1) और (2) के तहत संज्ञान के एक महीने के भीतर बच्चे/पीड़िता का बयान दर्ज करना और अपराध के संज्ञान की तारीख से एक वर्ष के भीतर मुकदमे का निष्कर्ष निकालना अनिवार्य है।''

    अदालत ने यह भी नोट किया कि हाल ही में पीड़िता द्वारा सीआरपीसी की धारा 439 (2) के तहत आरोपी की जमानत रद्द करने के लिए एक आवेदन दायर किया गया था। जिसके बाद उसकी जमानत को रद्द कर दिया गया क्योंकि आरोपी मुकदमे में सहयोग नहीं कर रहा था।

    ''यदि कोई आरोपी जानबूझकर मुकदमे में देरी करता है और पॉक्सो अधिनियम की धारा 35 (1) और (2) के माध्यम से परिलक्षित कानून के जनादेश का पालन करने में सहयोग नहीं करता है, तो वह खुद को जमानत रद्द करने और / या ऐसे अन्य कठोर कदम उठाने के लिए उत्तरदायी बनाता है,जो स्पीडी ट्रायल को सुनिश्चित करने के लिए ट्रायल कोर्ट द्वारा अपनाए जा सकते हैं।''

    अंत में अदालत ने हुसैननारा खातून बनाम भारत संघ मामले में दिए गए फैसले पर भरोसा किया। जिसमें माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा न्याय तक पहुंच और स्पीडी ट्रायल के अधिकार को सर्वाेच्च सम्मान दिया गया है।

    उपरोक्त के आलोक में याचिका का निस्तारण कर दिया गया।

    केस का शीर्षक- प्रॉसिक्युट्रिक्स बनाम मध्य प्रदेश राज्य व अन्य

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