वैवाहिक विवाद में निजता के नाम पर जेंडर पहचान की जांच को रोका नहीं जा सकता : मध्य प्रदेश हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
10 Oct 2019 4:14 PM IST
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने एक फ़ैसले में कहा कि वैवाहिक विवाद में अगर एक पक्ष दूसरे पक्ष के जेंडर के बारे में कोई सवाल उठाता है तो उस स्थिति में अदालत उस पक्ष को मेडिकल जाँच का आदेश दे सकती है और इस संबंध में निजता के उल्लंघन की गुहार कोई मायने नहीं रखती।
यह आदेश न्यायमूर्ति सुबोध अभयंकर ने पास किया। इस बारे में सुरभि त्रिवेदी ने अपने वक़ील सम्पूर्ण तिवारी के माध्यम से एक याचिका दायर की थी जो पारिवारिक अदालत के एक आदेश को चुनौती दी गई थी। पारिवारिक अदालत के प्रधान न्यायाधीश ने उसके जेंडर की जाँच किसी महिला मेडिकल डॉक्टर से कराने का आदेश दिया था।
पति का आरोप, पत्नी ट्रांसजेंडर है
याचिकाकर्ता ने पारिवारिक अदालत में ख़ुद एक आवेदन दायर कर अपने वैवाहिक अधिकारों को दिलाए जाने की मांग की थी जबकि पति गौरव त्रिवेदी ने सीपीसी की धारा 151 के तहत एक आवेदन दायर कर अपील की थी कि याचिकाकर्ता की मेडिकल जांच कराई जाए क्योंकि उसमें महिला-सुलभ गुणों की कमी है और वह ट्रांसजेंडर है।
याचिकाकर्ता ने इस बारे में निजता का मामला उठाया और कहा कि उनकी शादी को आठ साल हो गए हैं और इस दौरान दोनों में शारीरिक संबंध बने हैं पर पारिवारिक अदालत ने उसके मेडिकल जांच का आदेश दिया।
हाईकोर्ट के सामने सुरभि ने कहा कि उसे स्त्रीत्व की मेडिकल जांच के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, क्योंकि इससे संविधान के अनुच्छेद 20(3) और 21 के तहत उसको मिले अधिकारों का उल्लंघन होगा।
प्रतिवादी पति की दलील से सहमति जताते हुए न्यायमूर्ति अभयंकर ने कहा कि पारिवारिक अदालत ने स्त्रीत्व की मेडिकल जांच का आदेश देकर कोई ग़लती नहीं की है और न ही उसने अपने क्षेत्राधिकार का उल्लंघन किया है।
अदालत ने कहा,
"किसी वैवाहिक विवाद में, अगर किसी एक पक्ष के जेंडर के बारे में दूसरा पक्ष सवाल उठाता है, तो इसका महत्व बढ़ जाता है और यह सवाल उठाने वाले पक्ष को इस बारे में सबूत देना होता है और दूसरे पक्ष को इसका खंडन करना होता है," ।
याचिकाकर्ता द्वारा निजता के मामले को उठाने पर उन्होंने कहा,
"यह अदालत इस तथ्य से वाक़िफ़ है कि किसी का लिंग/जेंडर क्या है यह उसका निजी मामला है, पर जब मामला शादी का हो, दूसरे पार्टनर का हित भी इसमें गहराई से जुड़ जाता है क्योंकि यह स्वस्थ और शांतिपूर्ण वैवाहिक जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है। चूंकि पति या पत्नी किसी को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार प्राप्त है, और इस बारे में दोनों के अधिकार समान हैं। इस तरह की परिस्थिति में, निजता या किसी मौलिक अधिकार के उल्लंघन की दलील टिक नहीं सकती,"।
इस बारे में अमोल चव्हाण बनाम श्रीमती ज्योति चव्हाण 2012(1) MPLJ205 मामले में आए फ़ैसले का हवाला दिया गया जिसमें शारदा बनाम धर्मपाल (2003) 4 SCC 493 मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का ज़िक्र किया गया था।
इस फ़ैसले में कहा गया था
"जहां तक अनुच्छेद 21 के तहत याचिकाकर्ता के निजी या मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के उल्लंघन का प्रश्न है, इस अदालत की राय में, अगर पत्नी की नपुंसकता के बारे में कोई सवाल उठाया गया है तो इस तरह की कार्यवाही किसी के अधिकार का उल्लंघन नहीं होता। अदालत याचिकाकर्ता को इस तरह के मेडिकल जांच का आदेश दे सकती है।"
इस तरह, मेडिकल जांच के पारिवारिक अदालत के आदेश को सही ठहराया गया। अदालत ने यह चेतावनी भी दी कि अगर इस तरह परेशान करने की अगर कोई मंशा है, तो अदालत इस तरह का आरोप लगाने वाले से इसकी भारी क़ीमत चुकाने को कह सकती है, ताकि इस तरह के प्रयासों को हतोत्साहित किया जा सके।
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