उत्तर प्रदेश के 'नेम एंड शेम' अध्यादेश के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका

LiveLaw News Network

15 July 2020 11:41 AM IST

  • उत्तर प्रदेश के नेम एंड शेम अध्यादेश के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका

    इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर कर Uttar Pradesh Public and Private Property Damages Recovery Ordinance, 2020 की संवैधानिकता को चुनौती दी गई है।

    यह याचिका हाईकोर्ट के दो वकीलों शाश्वत आनंद और अंकुर आज़ाद ने एक सामाजिक कार्यकर्ता और एक पत्रकार के साथ मिलकर दायर की है। इन लोगों का कहना है कि इस अध्यादेश से हिंसा नहीं रुक पायी।

    इस अध्यादेश को इस साल मार्च में जारी किया गया ताकि सीएए के ख़िलाफ़ होने वाले प्रदर्शनों के दौरान सार्वजनिक संपत्तियों को कथित रूप से नुक़सान पहुंचाने वालों से हर्ज़ाना वसूला जा सके और इसमें ऐसे लोगों के बारे में निजी विवरणों को सार्वजनिक रूप से प्रकाशित करने का भी प्रावधान किया गया है।

    वकीलों का कहना है कि प्रिवेन्शन ऑफ़ डैमिजेज़ टू पब्लिक प्रॉपर्टी ऐक्ट, 1984 के तहत इस मुद्दे को कवर किया गया है और यह अध्यादेश इसके ख़िलाफ़ है और इसलिए संविधान के अनुच्छेद 254 के तहत यह अवैध है।

    याचिककर्ताओं ने कहा कि इस अध्यादेश में लोगों के नाम, फ़ोटो और पते के प्रकाशन का प्रावधान है जो जो एक व्यक्ति के मानवीय गरिमा के साथ जीवन जीने के अधिकार के ख़िलाफ़ है और उसको मार देने के लिए भीड़ को उकसाने के बराबर है।

    याचिका में कहा गया है कि अध्यादेश के तहत अलग दावा अधिकरण बनाए जाने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि ये मामले सिविल और क्रिमिनल कोर्ट के अधीन आते हैं और चूंकी अपराध की कोई नयी श्रेणी नहीं बनायी गई है कि इस तरह का अधिकरण बनाया जाए। यह भी कहा गया कि अधिकरण में एक अतिरिक्त आयुक्त रैंक का अधिकारी होगा और इस वजह से इसमें कार्यपालिका का प्रभाव बढ़ेगा जबकि यह वैकल्पिक सिविल कोर्ट है।

    याचिका में यह भी कहा गया है कि इसमें निजी व्यक्ति, नैचुरल पर्सन, अविभाजित हिंदू परिवार और संयुक्त पारिवारिक संपत्ति को 'निजी संपत्ति' (धारा 2f) में शामिल नहीं किया गया है जिसकी वजह से यह भेदभावकारी है।

    यह अध्यादेश धर्मनिरपेक्ष और ग़ैर-धार्मिक एककों, सोसायटीज, ट्रस्टों, फ़र्मों आदि के लिए विभेदकारी है जो संविधान के अनुच्छेद 14 के प्रावधानों के ख़िलाफ़ है। अध्यादेश में अधिकरण को स्वैच्छिक अधिकार दिए गए हैं, इसमें एकतरफ़ा आदेश को रद्द करने का कोई प्रावधान नहीं है, यह प्राकृतिक न्याय के ख़िलाफ़ है; इस अध्यादेश की धारा 21 के तहत अगर मामलों में हाथ होने की बात की पुष्टि हो जाती है तो सभी मामलों में 'पूर्ण दायित्व' का मामला बनता है। चूंकि यह प्रावधान 'अज्ञात व्यक्तियों' और 'चेहराहीन भीड़' के ख़िलाफ़ काम करता है और वह भी बिना किसी दिशानिर्देश और सिद्धांत के, इसलिए क़ानून और तथ्य के हिसाब से यह मनमाना और अनावश्यक है। पूर्ण दायित्व को लागू करना प्राकृतिक न्याय के ख़िलाफ़ है और भीड़ की हिंसा के संदर्भ में Destruction of Public & Private Properties, (2009) 5 SCC 212, मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के भी विपरीत है।

    इस अध्यादेश की धारा 22 के तहत अधिकरण के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील नहीं की जा सकती। इसमें फ़ैसले को वापस लेने या उस पर पुनर्विचार की भी इजाज़त नहीं है। इसकी वजह से फ़ैसले से असंतुष्ट लोगों की ओर से आगे मुक़दमों की बाढ़ आ जाएगी।

    याचिककर्ताओं ने इस अध्यादेश को ग़ैरक़ानूनी करार देने का आग्रह कोर्ट से किया।

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जब सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने वालों के फ़ोटो एवं अन्य जानकारियों के साथ सरकार के बैनर लगाने पर आपत्ति की तब सरकार ने 15 मार्च को यह अध्यादेश जारी किया।

    इस अध्यादेश को एक अन्य वकील शशांक श्री त्रिपाठी ने भी चुनौती दी है। उत्तर प्रदेश सरकार को इस संबंध में नोटिस जारी कर जवाब देने को कहा गया। हाल ही में हाईकोर्ट ने पूर्व आईपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी की याचिका पर सुनवाई करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को यह बताने को कहा गया कि किस क़ानून के तहत उसने एकतरफ़ा रिकवरी नोटिस जारी किया है।



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