हमारी संस्कृति और कानून समलैंगिक विवाह की अवधारणा को मान्यता नहीं देते : केंद्र ने दिल्ली हाईकोर्ट में कहा

LiveLaw News Network

14 Sep 2020 12:16 PM GMT

  • हमारी संस्कृति और कानून समलैंगिक विवाह की अवधारणा को मान्यता नहीं देते : केंद्र ने दिल्ली हाईकोर्ट में कहा

    केंद्र ने सोमवार को दिल्ली हाईकोर्ट के समक्ष दायर उस याचिका का विरोध किया है, जिसमें हिंदू विवाह अधिनियम, 1956 के तहत विवाह करने वाले सेम-सैक्स कपल (समलैंगिक जोड़ों) के अधिकारों को मान्यता देने की मांग की गई है।

    यूनियन ऑफ इंडिया की तरफ से पेश होते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने प्रस्तुत किया कि समलैंगिक विवाह या सेम-सैक्स मैरिज की अवधारणा को भारतीय संस्कृति या भारतीय कानून के तहत मान्यता प्राप्त नहीं है।

    एसजी ने कहा कि,''हमारी संस्कृति और कानून समलैंगिक विवाहों के विचार या अवधारणा को मान्यता नहीं देते हैं।''

    मेहता ने तर्क दिया कि,''कानून के अनुसार, एक विवाह केवल एक पति और एक पत्नी के बीच होता है।'' वहीं हिंदू विवाह अधिनियम खुद समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं देता है।

    हालांकि मुख्य न्यायाधीश डीएन पटेल और न्यायमूर्ति प्रतीक जालान की खंडपीठ ने कहा कि इस तरह की याचिका पर खुले दिमाग से विचार किया जाना चाहिए। पीठ ने इस बात को स्वीकार किया कि इस मामले में कानून की स्थिति भिन्न हो सकती है, परंतु यह भी कहा कि ''दुनिया भर में काफी बदलाव हो रहे हैं।''

    एसजी मेहता ने हालांकि यह भी कहा कि नवतेजसिंह जौहर के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा वर्ष 2018 में दिए गए फैसले का प्रभाव केवल आपसी सहमति से की गई समलैंगिक गतिविधियों को अपराध की श्रेणी से बाहर रखना था,इससे ''कुछ ज्यादा नहीं, कुछ कम नहीं।''

    उन्होंने आगे यह भी कहा कि समलैंगिक विवाह के अधिकारों को मान्यता देने की मांग वाली इस याचिका पर '' हलफनामा भी दाखिल नहीं किया जाना चाहिए।''

    न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं (जो कि कार्यकर्ता हैं और एलजीबीटी समुदाय के सदस्य हैं,) को सलाह दी है कि वह पहले अपनी शादी को पंजीकृत करवाने की कोशिश करें। यदि ऐसा करने से इनकार कर दिया जाता है तो वे अपनी शिकायत के साथ अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं।

    याचिकाकर्ताओं की ओर से अपील करते हुए, अधिवक्ता राघव अवस्थी ने अदालत को सूचित किया कि कई ऐसे मामले हैं,जिनमें समलैंगिक जोड़ों ने विवाह किया है,परंतु उनकी शादी का पंजीकरण करने से इनकार कर दिया गया है।

    अदालत ने इस मामले में याचिकाकर्ताओं से कहा है कि वह अगली सुनवाई पर उन सभी व्यक्तियों की लिस्ट रिकॉर्ड पर लाए,जो समलैंगिक विवाह का पंजीकरण न होने के कारण परेशान हैं। अब इस मामले में 21 अक्टूबर को सुनवाई होगी।

    न्यायालय एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा है,जिसमें मांग की गई है कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1956 के तहत विवाह करने वाले समलैंगिक जोड़ों के अधिकारों को मान्यता दी जाए।

    कार्यकर्ताओं और एलजीबीटीक्यू समुदाय के सदस्यों की ओर से दायर याचिका में कहा गया है कि हिंदू विवाह अधिनियम (अधिनियम) समलैंगिक और विषमलैंगिक या हेटरोसेक्सुअल लोगों के बीच भेदभाव किए बिना 'किसी भी दो हिंदुओं' के बीच विवाह करने की अनुमति देता है।

    एलजीबीटी समुदाय के सदस्य अभिजीत अय्यर मित्रा, तमिलनाडु के एक इंटरसेक्स कार्यकर्ता गोपी शंकर एम, जिन्होंने 2016 का विधानसभा चुनाव लड़ा था, गीति थंडानी (founder member of Sakhi Collective Journal of contemporary and historical lesbian life in India) और एक ट्रांसजेंडर कार्यकर्ता जी ओरवसी ने यह याचिकाएं दायर की हैं।

    याचिका में यह भी कहा गया है कि अधिनियम की धारा 5 में कहीं भी यह उल्लेख नहीं किया गया है कि शादी करने वाले 'दो हिंदुओं' में से एक हिंदू पुरुष और एक हिंदू महिला ही होनी चाहिए।

    जनहित याचिका में कहा गया है कि दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत भारत में आपसी सहमति से की जाने वाली समलैंगिक गतिविधियों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था। उसके बावजूद भी समलैंगिक जोड़ों के लिए शादी करना संभव नहीं है।

    याचिकाकर्ताओं ने बताया कि ''...हिंदू विवाह अधिनियम 1955 और विशेष विवाह अधिनियम 1956 के तहत समलैंगिक विवाह के खिलाफ कोई वैधानिक रोक नहीं है। परंतु इस तथ्य के बावजूद भी पूरे देश में और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में भी समलैंगिक विवाह पंजीकृत नहीं किए जा रहे हैं।''

    इसलिए यह प्रार्थना की जाती है कि धारा 5 को प्रभावी बनाया जाए, और अधिनियम के तहत शादी करने वाले समलैंगिक जोड़ों के अधिकारों को अदालत द्वारा मान्यता दी जाए। हो।

    अधिवक्ता मुकेश शर्मा और राघव अवस्थी की तरफ से दायर याचिका में कहा गया है कि शादी करने के अधिकार को देने से मना करना,संविधान में निहित एलजीबीटी लोगों के मौलिक अधिकारों पर अतिक्रमण करना होगा।

    याचिका में कहा गया है कि,''समलैंगिक जोड़ों के अधिकारों को मान्यता न देना (विशेष रूप से जब उनकी लैंगिकता को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी वैध मान लिया है), भारत के संविधान के विभिन्न प्रावधानों के साथ-साथ भारत द्वारा एक संप्रभु राज्य के तौर पर हस्ताक्षर किए गए विभिन्न संधिपत्रों का भी उल्लंघन है।''

    संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत यह कहा गया है कि विवाह का अधिकार ,जीवन के अधिकार का एक स्वीकार किया गया पहलू है। इसलिए इस अधिकार को समलैंगिक जोड़ों को भी देने की मांग करने में कुछ भी गलत नहीं है और न ही इसमें कोई उलझन है।

    यह भी कहा गया है कि एक अधिकार का आनंद लेने में किसी समुदाय के साथ भेदभाव करना भी समानता के अधिकार का उल्लंघन है। जो लाभ विषमलैंगिक या हेटरोसेक्सुअल के लिए अन्यथा उपलब्ध हैं, वे एलजीबीटी समुदाय के लिए उपलब्ध नहीं हैं।

    समान अधिकारों को लागू करने की मांग करते हुए याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि उनकी प्रार्थना केवल यह है कि ''सार्वभौमिक रूप से लागू उस गांरटी को प्रभावी बनाया जाए,जो सभी अधिकारों का आनंद लेने में कोई भेदभाव नहीं करती है। यौन अभिविन्यास और लिंग के आधार पर एलजीबीटी लोगों की शादी को निषेध करना उनके प्रति एक पूर्ण भेदभाव है और भारत के संविधान के तहत मिले समानता के अधिकार का भी उल्लंघन है।''

    याचिकाकर्ता ने कहा कि दलीलें मुख्य रूप से ,सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत समानता और गैर-भेदभाव के बुनियादी सिद्धांत पर आधारित हैं। अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून सभी मनुष्यों के जन्म के अधिकारों की परिकल्पना करता है और इसके किसी अपवाद को स्वीकार नहीं करता है।

    यह भी बताया गया है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी मर्जी का साथी या सैक्सुअल आइडेंटटी चुनने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी है,जो अनुच्छेद 21 के तहत मिले निजता और व्यक्तिगत स्वायत्तता के अधिकार का हिस्सा है। यह मान्यता सुप्रीम कोर्ट ने 2014 नालसा केस में और 2018 नवतेज सिंह जौहर के मामलों में दिए गए फैसलों के तहत दी थी।

    ऐसे में समलैंगिक विवाह को वैध बनाने से विवाह की मूल धारणा प्रभावित नहीं होगी, और एलजीबीटी समुदाय को विवाह की अनुमति न देने से मनोवैज्ञानिक विकारों की दर बढ़ सकती है।

    दलील में कहा गया कि, ''राइट टू मैरिज का उल्लेख मानवाधिकार चार्टर के तहत भी किया गया है। विवाह का अधिकार एक सार्वभौमिक अधिकार है और यह सभी के लिए उपलब्ध है।''

    विशेष विवाह अधिनियम के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग करने वाली एक समान याचिका केरल हाईकोट के समक्ष लंबित है। यह याचिका निकेश और सोनू की तरफ से दायर की गई थी। यह केरल से समलैंगिक विवाह करने वाला पहला जोड़ा है। इन्होंने विशेष विवाह अधिनियम 1954 के प्रावधानों को चुनौती देते हुए कहा था कि उनको समलैंगिक विवाह का पंजीकरण कराने की अनुमति नहीं दी गई है।

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