नाबालिग से बलात्कार और हत्या : उड़ीसा हाईकोर्ट ने बलात्कार के मामले में बरी किया, मौत की सजा को आजीवन कारावास में तब्दील किया

LiveLaw News Network

10 Nov 2020 4:30 AM GMT

  • नाबालिग से बलात्कार और हत्या : उड़ीसा हाईकोर्ट ने बलात्कार के मामले में बरी किया, मौत की सजा को आजीवन कारावास में तब्दील किया

    Orissa High Court

    उड़ीसा हाईकोर्ट ने पिछले सप्ताह एक 9 वर्षीय लड़की की हत्या के लिए दोषी ठहराते हुए 28 वर्षीय व्यक्ति की मौत की सजा को आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया है। हालांकि उसे बलात्कार के मामले में बरी कर दिया गया।

    जगतसिंहपुर जिले के गोदाहरिशपुर गांव की रहने वाली लड़की 20 मार्च 2018 को लापता हो गई थी। अगले दिन उसका शव पास के काजू के बाग में मिला था। उसी दिन, पुलिस ने एक ग्रामीण कालिया मन्ना को कथित रूप से लड़की के साथ बलात्कार करने और उसकी हत्या करने के आरोप में गिरफ्तार किया। विशेष पाॅक्सो कोर्ट , जगतसिंहपुर ने आरोपी मन्ना को मामले में दोषी ठहराया था और उसे 10 सितंबर, 2019 को मौत की सजा दी थी। मौत की सजा को फिर पुष्टि के लिए हाईकोर्ट के पास भेजा गया था, जिसे जस्टिस एस के मिश्रा और जस्टिस ए के मिश्रा की पीठ ने सुना था।

    न्यायमूर्ति ए के मिश्रा ने कहा कि,

    ''कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है और मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित है। जिन परिस्थितियों से आक्षेप निकालने की मांग की गई है, उन्हें कड़ाई से और दृढ़ता से स्थापित किया जाना चाहिए और वह सजा देने के लिए पूर्ण होने चाहिए। वहीं यह साक्ष्य आरोपी के अपराध की तुलना में अन्य परिकल्पना की व्याख्या करने में अक्षम होने चाहिए।''

    रिकाॅर्ड का हवाला देते हुए, न्यायाधीश ने पाया कि उचित संदेह से परे जो साबित हुआ है, वह यह है कि पीड़िता की गर्दन पर पाई गई पांच चोटें हार्ड और ब्लंट प्रेशर और गला घोंटने के साथ कम्प्रेशन ट्विस्ट के कारण आई थी। वहीं पीड़िता की मौत गला घोंटने के कारण हुई थी।

    कोर्ट ने यह भी कहा कि,

    ''गवाहों के मौखिक साक्ष्य जिन्होंने मृतका के शरीर को देखा और मृतका के निजी अंगों पर खून के धब्बे देखे थे,उन्हें किसी वैज्ञानिक सबूत के सहयोग से बिना यह दावा करने का आधार नहीं बनाया जा सकता है कि हार्ड एंड ब्लंट फाॅरन बाॅडी से बलात्कार किया गया था।'' साथ ही कहा कि यह उनके अनुमान का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य होगा, जिसका आपराधिक मुकदमे में कोई स्थान नहीं है।

    कानून के तहत बलात्कार को अब आईपीसी की धारा 375 में परिभाषित किया गया है और उसके अनुसार किसी भी महिला की योनि में किसी भी हद तक किसी भी वस्तु को डालने से बलात्कार माना जाता है। न्यायाधीश ने कहा रासायनिक परीक्षण रिपोर्ट में शुक्राणु मिलने का कोई संकेत नहीं दिया गया है,जो यौन हमले को स्थापित करता हो। ऐसे में अभियोजन पक्ष द्वारा यह मानना कि बलात्कार किया गया था,उचित नहीं है।''

    जज ने कहा कि,

    ''हालांकि संदेह कितना भी गंभीर हो परंतु वह सबूत की जगह नहीं ले सकता है। इस वजह से, डॉक्टर और रासायनिक परीक्षण रिपोर्ट के सबूतों से जो पता चला है वह यह है कि मृतक की मौत गला दबाने से हुई थी, लेकिन उचित संदेह से परे कोई ऐसा सबूत नहीं है,जो यह साबित करें कि पीड़िता का यौन उत्पीड़न भी हुआ था।''

    परिस्थितियों पर विचार करने के बाद, न्यायाधीश इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि निम्नलिखित तीन परिस्थितियां, अर्थात (1) लास्ट सीन थ्योरी, (2) साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के तहत तथ्यों की खोज और (3) अभियुक्त का आचरण साथ ही उसके द्वारा पहने हुए कपड़ों पर रक्त के धब्बे की उपलब्धता, उचित संदेह से परे स्थापित हुई हैं और आरोपी के अपराध की और बिना किसी चूक के इशारा करती हैं।

    लास्ट सीन थ्योरी को अन्य दो परिस्थितियों से पुष्टि मिलती है, अर्थात् तथ्यों की रिकवरी और आरोपी का आचरण व खून के धब्बे वाले कपड़े। जज ने निष्कर्ष निकालते हुए कहा कि,''संचयी रूप से, उपरोक्त सभी परिस्थितियों से एक श्रृंखला पूरी होती है, जो यही निष्कर्ष निकालती है कि 20 मार्च 2018 को पीड़िता की हत्या अभियुक्त ने ही की थी,किसी अन्य ने नहीं। अभियुक्त का अपराध उचित संदेह से परे साबित होता है।''

    परिणामस्वरूप, आरोपी को आईपीसी की धारा 302 के तहत दोषी करार दिया जाता है और इस संबंध में उसको विशेष अदालत द्वारा दोषी करार देने के निर्णय को सही ठहराया जाता है। हालांकि, अभियुक्त को आईपीसी की धारा 376 (2) (एफ) और 376-ए और पाॅक्सो एक्ट की धारा 6 के तहत दोषी नहीं माना जा रहा है। इसलिए इस संबंध में दी गई उसकी सजा को रद्द किया जा रहा है।

    न्यायाधीश ने निष्कर्ष निकाला कि,''इस मामले में वासना का अपराध खो गया है क्योंकि यौन हमले के कार्य पर अवशिष्ट संदेह पैदा हो गया है। मामले में सभी तथ्यों पर विचार करने के बाद , हमारी राय यह है कि अपराध की गंभीरता को कम करने वाली परिस्थितियां उत्तेजक या ऐग्रवैटिंग कारकों पर भारी पड़ रही हैं। विवेक हैरान है, लेकिन मौत की सजा के लिए एक विकल्प उपलब्ध है। पूर्व के निर्णयों में कहा गया है कि किसी की सांस लेने की शक्ति की धारणा के तहत साबित हुए तथ्यों को 'दुर्लभ मामलों में दुर्लभतम' की दिशा में आगे बढ़ाना होगा। परंतु ' आजीवन कारावास' की सजा भी उचित व सही होगी। इसलिए ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई मौत की सजा की पुष्टि नहीं की जा रही है। इसके बजाय इस सजा को आईपीसी की 302 के तहत किए गए अपराध के लिए आजीवन कारावास की सजा में तब्दील किया जा रहा है या संशोधित किया जा रहा है।''

    न्यायमूर्ति एस के मिश्रा ने अपने अलग लेकिन मेल खाने वाले मत में कहा कि मामले में सजा पाने वाला कैदी 28 साल का व्यक्ति है जो समाज की निचले तबके और ग्रामीण परिवेश से संबंध रखता है, जो अपने दम पर अपने बचाव के लिए एक वकील भी नियुक्त करने की स्थिति में नहीं था और उसे राज्य की तरफ से ही एक वकील उपलब्ध करवाया गया था। वहीं अपराधी का कोई आपराधिक ट्रैक रिकॉर्ड भी नहीं है।

    न्यायाधीश ने इस बात की सराहना की है कि रिकॉर्ड में कोई भी सामग्री यह दिखाने के लिए नहीं है कि पहले भी उसके खिलाफ किसी अन्य अपराध के मामले में पुलिस ने कोई आरोप पत्र दायर किया था और न ही उसे किसी अन्य सक्षम अदालत ने कभी किसी मामले में दोषी पाया है। वह एक अर्ध-साक्षर देहाती ग्रामीण है, जो एक मजदूर के रूप में अपनी आजीविका कमा रहा है, जो बमुश्किल आरोपी के बयान पर हस्ताक्षर के रूप में अपना नाम लिख सकता है। इसके अलावा, आरोपी मुकदमे के समय केवल 28 साल का था। इसलिए जज का विचार था कि अधिकारियों द्वारा किए जाने वाले सुधारक उपायों के जरिए उसके सुधार या पुनर्वास का पूरी संभावना है।

    जज ने निष्कर्ष निकाला कि,''इस मामले में, जैसा कि मेरे सहयोगी जज डॉ न्यायमूर्ति एके मिश्रा ने पहले ही कहा है कि आईपीसी की धारा 376 (2) (एफ) और 376-ए और पाॅक्सो एक्ट की धारा 6 के तहत अभियोजन पक्ष अपने आरोप साबित नहीं कर पाया है। वही इस अपराध के बारे में ऐसा कुछ भी असामान्य नहीं प्रतीत होता है, जो आजीवन कारावास की सजा को अपर्याप्त बनाता हो और मौत की सजा के लिए कहता है ...

    हम यह मानते हैं कि यह एक ऐसा मामला नहीं है, जहां अपराधी के पक्ष में अपराध की गंभीरता को कम करने वाले कारकों को वेटेज देने के बाद भी उसे मौत की सजा देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।'' जज ने माना कि यह एक ऐसा मामला नहीं है जो दुर्लभ मामलों की श्रेणी में आता है, जहां अन्य सभी विकल्प बंद हो जाते हैं और सिर्फ मौत की सजा देने का ही विकल्प मौजूद रहता है।

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