सीपीसी आदेश XII नियम 6 : स्वीकारोक्त पर निर्णय के लिए आवेदन सूट के किसी भी चरण में दायर किया जा सकता है: कर्नाटक हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

14 Dec 2021 5:49 AM GMT

  • सीपीसी आदेश XII नियम 6 : स्वीकारोक्त पर निर्णय के लिए आवेदन सूट के किसी भी चरण में दायर किया जा सकता है: कर्नाटक हाईकोर्ट

    Karnataka High Court

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने एक बार फिर कहा है कि मुकदमे के किसी भी चरण में नागरिक प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) के आदेश XII नियम 6 के तहत एक डिक्री पारित की जा सकती है, जहां या तो दलीलों में या अन्य तरीके से तथ्यों को स्वीकार कर लिया गया हो।

    न्यायमूर्ति के.एस. मुदगल ने ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसके द्वारा उसने प्रतिवादियों की याचिकाओं में स्वीकारोक्ति के आधार पर याचिकाकर्ताओं की किराए की संपत्ति के कब्जे के लिए आदेश XII नियम 6 के तहत दायर आवेदन को इस आधार पर खारिज कर दिया था कि उठाए गए प्रश्नों की उचित ट्रायल की आवश्यकता है।

    केस पृष्ठभूमि:

    एक आवासीय बंगले के मालिक याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी नंबर 1 के साथ 1,30,000 रुपये के मासिक किराए पर एक पट्टा समझौता किया। याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि किराया समझौता 11 महीने की अवधि के लिए था, जिसे याचिकाकर्ताओं की इच्छा के आधार पर उसे 11 महीने के लिए बढ़ाया जा सकता था।

    विवाद तब पैदा हुआ जब याचिकाकर्ताओं ने प्रतिवादियों को किरायेदारी समाप्त करने और संपत्ति का कब्जा सौंपने के लिए एक नोटिस जारी किया।

    प्रतिवादियों ने दावा किया कि पट्टा स्थायी था और आगे, समझौते में किरायेदारी को समाप्त करने के लिए कोई उपबंध नहीं था।

    नतीजतन, याचिकाकर्ता ने प्रतिवादियों को विवादित संपत्ति से निकालने, कब्जा खाली कराने और मध्यवर्ती मुनाफे के लिए एक मुकदमा दायर किया।

    अपने लिखित बयानों में, प्रतिवादी संख्या 1 और 2 ने किरायेदार के रूप में परिसर पर अपने कब्जे को स्वीकार किया।

    इसके बाद, याचिकाकर्ताओं ने सीपीसी के आदेश XII नियम 6 के तहत आवेदन दिया, जिसमें कब्जे की डिक्री का दावा किया गया, जिसे ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया।

    हाईकोर्ट के समक्ष, यह दलील दी गयी थी कि अभिवचनों के साथ-साथ न्यायिक संबंध और किरायेदारी की समाप्ति के संबंध में नोटिस के जवाब में स्पष्ट रूप से स्वीकार किए गए थे। इसलिए, ट्रायल कोर्ट को डिक्री पारित करने के लिए विवेक का प्रयोग करना चाहिए था।

    दूसरी ओर प्रतिवादियों ने निम्नलिखित बातों पर याचिका का विरोध किया: (i) एक रिट याचिका में, कोर्ट डिक्री पारित नहीं कर सकता; (ii) यदि सभी आवेदनों की अनुमति दी जाती है, तो ट्रायल कोर्ट के समक्ष कार्यवाही समाप्त कर दी जाएगी, ऐसे मामले में, सीपीसी की धारा 115 के तहत एक संशोधन याचिका निहित है, न कि रिट याचिका; (iii) अभिवचन में कोई स्पष्ट स्वीकारोक्ति नहीं है; (iv) इसलिए, मामले को ट्रायल के आधार पर निर्णय की आवश्यकता है।

    निष्कर्ष:

    शुरुआत में, कोर्ट ने नोट किया कि कर्नाटक हाईकोर्ट संशोधन द्वारा संशोधित आदेश XII नियम 6 उप-नियम (3) के तहत, डिक्री का चित्रण विवेकाधीन है, क्योंकि 'मे (सकता है)' शब्द का उपयोग किया जाता है। कोर्ट ने कहा कि इसलिए, यह तर्क कि रिट कार्यवाही में एक डिक्री नहीं दी जा सकती, अनुचित है।

    इसने आगे कहा,

    "उपरोक्त प्रावधानों को पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि आदेश XII नियम 6 के तहत विचार की गयी स्वाकारोक्ति या तो दलील में हो सकते हैं या इससे इतर, यह मौखिक या लिखित हो सकता है। ऐसा आवेदन मुकदमे के किसी भी चरण में दायर किया जा सकता है।"

    इसके अलावा, यह देखा गया,

    "निर्विवाद रूप से, भारत के संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत यह न्यायालय सभी अधीनस्थ न्यायालयों पर अधीक्षण की शक्ति का प्रयोग करता है। इसलिए, न्याय के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए, रिकॉर्ड पर समग्र सामग्री को ध्यान में रखते हुए, यह कोर्ट सीपीसी के नियम 6(3) और धारा 37 के आदेश XII को एक साथ मिलाकर राहत में बदलाव कर सकता है और ट्रायल कोर्ट को डिक्री वापस लेने का निर्देश दे सकता है।"

    स्वीकारोक्ति

    कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता ने न केवल संपत्ति के कब्जे की डिलीवरी के लिए, बल्कि मध्यवर्ती लाभ के लिए भी मुकदमा दायर किया था। इसलिए, भले ही संपत्ति के कब्जे की सुपुर्दगी के लिए आवेदन की अनुमति दी गई थी, फिर भी वाद में मांगी गई अन्य राहत पर विचार करने के लिए वाद जारी रखा जाना था।

    इसमें कहा गया,

    "इसलिए, इस तर्क में कोई दम नहीं है कि यदि आवेदन की अनुमति दी गई, तो ट्रायल कोर्ट के समक्ष कार्यवाही समाप्त हो रही थी और रिट याचिका नहीं, बल्कि केवल एक संशोधन याचिका ही बनती है।''

    स्वीकारोक्ति के संबंध में

    अदालत ने तब प्रतिवादियों द्वारा किए गए स्वीकारोक्ति का विश्लेषण किया जैसा कि याचिकाकर्ताओं ने दावा किया था और कहा,

    "पंजीकृत दस्तावेजों की अनुपस्थिति में, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 106 (1) के अनुसार पट्टे को महीने दर महीने माना जाता है। ऐसे मामले में, पट्टे की समाप्ति के लिए संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 106 के तहत 15 दिनों के नोटिस जारी करने की आवश्यकता होती है। यह इस मामले में स्वीकार्य रूप से किया गया था। इसलिए सीपीसी के आदेश XII नियम 6 के तहत एक डिक्री पारित करने के लिए पर्याप्त स्वीकृति थी।"

    अंत में, कोर्ट ने याचिकाकर्ता के साथ सहानुभूति व्यक्त की, जो याचिका दाखिल करने के समय 75 वर्ष का था और कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान उसकी मृत्यु हो गई।

    इसने कहा,

    "याचिकाकर्ताओं को लंबी मुकदमेबाजी के कारण परेशान किया जाता है, वह भी जब न्यायिक संबंध और किरायेदारी की समाप्ति के संबंध में स्वीकारोक्ति होती है। उपरोक्त कारणों से, यह सीपीसी के आदेश XII नियम 6 के तहत डिक्री देने के विवेक का प्रयोग करने के लिए एक उपयुक्त मामला है।''

    ट्रायल कोर्ट को भी मध्यवर्ती मुनाफे के संबंध में राहत के संबंध में मुकदमे के साथ आगे बढ़ने का निर्देश दिया गया है।

    केस शीर्षक: स्वर्गीय इंद्रावती श्रीनिवासन बनाम डॉ सुनीता वेणुगोपाल

    केस नंबर: रिट याचिका संख्या 17829/2018

    आदेश की तिथि: 7 अक्टूबर 2021

    वकील: याचिकाकर्ताओं के लिए एडवोकेट श्रवणंत आर्य तंद्रा और एडवोकेट एन.एस.श्रीराजगौड़ा, प्रतिवादियों के लिए एडवोकेट शिशिरा अमरनाथ; अधिवक्ता वी.बी. शिवकुमार

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