''कोई वास्तविक खतरा नहीं; अपने वीआईपी स्टे्टस का दिखावा करने के लिए सुरक्षा मांगी'' : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने व्यक्तिगत सुरक्षा की मांग करने वाले वकील की याचिका खारिज की

LiveLaw News Network

4 Aug 2021 3:45 PM GMT

  • कोई वास्तविक खतरा नहीं; अपने वीआईपी स्टे्टस का दिखावा करने के लिए सुरक्षा  मांगी : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने व्यक्तिगत सुरक्षा की मांग करने वाले वकील की याचिका  खारिज की

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में यह देखते हुए कि वकील (अदालत के समक्ष याचिकाकर्ता) बिना किसी वास्तविक खतरे के अपने स्टे्टस को वीआईपी दिखाने के लिए सुरक्षा की मांग कर रहा है, उसकी तरफ से दायर याचिका को खारिज कर दिया। इस वकील ने राज्य सरकार के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें उसे व्यक्तिगत सुरक्षा प्रदान करने से इनकार कर दिया गया था।

    न्यायमूर्ति डी के सिंह की पीठ जिला लखनऊ के एक वकील की उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी,जिसमें उसने दावा किया था कि उसके द्वारा किए जा रहे काम की प्रकृति के कारण, उसे अपने जीवन और संपत्ति के लिए लगातार धमकियां मिलती हैं और इस प्रकार उसे व्यक्तिगत रूप से सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए।

    महत्वपूर्ण रूप से, न्यायालय ने कहा किः

    ''सिद्धांत के रूप में, निजी व्यक्तियों को राज्य के खर्च पर सुरक्षा नहीं दी जानी चाहिए, जब तक कि ऐसे अनिवार्य पारदर्शी कारण न हों, जिनको देखते हुए इस तरह की सुरक्षा देना जरूरी हो, खासकर यदि खतरा किसी सार्वजनिक या राष्ट्रीय सेवा से जुड़ा है जो वह प्रदान कर रहे हैं,तो ऐसे व्यक्तियों को खतरा समाप्त होने तक सुरक्षा दी जानी चाहिए। लेकिन, यदि खतरे की धारणा वास्तविक नहीं है, तो सरकार के लिए करदाताओं के पैसे को खर्च करके सुरक्षा प्रदान करना और एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग बनाना उचित नहीं है। कानून के शासन और लिखित संविधान द्वारा शासित एक लोकतांत्रिक देश में राज्य के खर्च पर सुरक्षा प्रदान करना 'उपकृत' और 'वफादार' व्यक्तियों की एक मंडली बनाने के लिए संरक्षण का कार्य नहीं बनना चाहिए।''

    मामले के तथ्य संक्षेप में

    प्रारंभ में, राज्य सरकार ने राज्य स्तरीय सुरक्षा समिति द्वारा लिए गए निर्णय की प्रत्याशा में अंतरिम उपाय के रूप में याचिकाकर्ता को व्यक्तिगत सुरक्षा के रूप में राज्य के खर्च पर एक गनर प्रदान करने का आदेश दिया था(दिसंबर 2020)।

    हालाँकि, जब यह आदेश लागू था, कमिश्नरेट सुरक्षा समिति, लखनऊ ने दिनांक 12 मार्च, 2021 को अपनी सिफारिश के तहत उसकी सुरक्षा वापस लेने की सिफारिश की और, उक्त सिफारिश के आधार पर, राज्य स्तरीय सुरक्षा समिति ने आक्षेपित आदेश पारित किया और याचिकाकर्ता की सुरक्षा वापिस ले ली गई।

    याचिकाकर्ता का आरोप

    याचिकाकर्ता ने दलील दी कि उक्त निर्णय मनमाना, अवैध और साथ ही दुर्भावनापूर्ण है। यह भी प्रस्तुत किया गया कि याचिकाकर्ता राज्य के खिलाफ आपराधिक और जनहित याचिका के मामलों में पेश हो रहा है, इसलिए, दुर्भावनापूर्ण तरीके से उसकी सुरक्षा को वापस ले लिया गया है।

    राज्य की दलीलें

    राज्य सरकार द्वारा प्रस्तुत किया गया कि कमिश्नरेट स्तर की सुरक्षा समिति ने विशेष रूप से सिफारिश की थी कि याचिकाकर्ता को कोई वास्तविक खतरा नहीं है और, राज्य स्तर पर उच्च स्तरीय सुरक्षा समिति ने कमिश्नरेट स्तर की सुरक्षा समिति की सिफारिश से सहमति व्यक्त की है और, इसलिए, याचिकाकर्ता को सुरक्षा कवर नहीं देने का निर्णय लिया गया है।

    न्यायालय की टिप्पणियां

    शुरुआत में, कोर्ट ने कहा कि कोई व्यक्ति या राजनीतिक व्यक्तित्व इस आधार पर सुरक्षा का दावा नहीं कर सकता है कि अपने कुछ निजी विवाद के कारण उसे अपने दुश्मनों से खतरों का सामना करना पड़ रहा है। वहीं कानून के शासन और लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था द्वारा शासित देश में, राज्य द्वारा विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्तियों के एक वर्ग का निर्माण नहीं किया जाना चाहिए।

    महत्वपूर्ण रूप से, न्यायालय ने कहा किः

    ''राज्य को समाज में एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग बनाने के रूप में नहीं देखा जा सकता है क्योंकि यह संविधान की प्रस्तावना में निहित न्याय और समानता के सिद्धांत का परित्याग करने के समान होगा। ऐसे मामले हो सकते हैं जहां जनहित व्यक्तिगत सुरक्षा प्रदान करने की मांग करता है लेकिन इसे पारदर्शी और निष्पक्ष तरीके से किया जाना चाहिए और अगर इसे अदालत में चुनौती दी जाती है तो राज्य को अपने फैसले को सही ठहराने में सक्षम होना चाहिए।''

    इसके अलावा, कोर्ट ने जोर देकर कहा कि सुरक्षा प्रदान करने के मामले को सभी प्रासंगिक कारकों को ध्यान में रखते हुए प्राधिकरण द्वारा निष्पक्ष रूप से तय किया जाना चाहिए और इसे केवल आवेदक के स्टे्टस को बढ़ाने के लिए प्रदान नहीं किया जाना चाहिए।

    मौजूदा मामले का जिक्र करते हुए कोर्ट ने कहा कि ऐसा कोई विशेष उदाहरण नहीं है जिसके आधार पर यह माना जा सके कि याचिकाकर्ता या उसके परिवार के किसी अन्य सदस्य के जीवन को कोई खतरा है।

    इसके अलावा, यह फैसला सुनाते हुए कि याचिकाकर्ता के जीवन और उसकी संपत्ति के लिए खतरे की धारणा के संबंध में सक्षम प्राधिकारी के निर्णय को कोर्ट के निर्णय से प्रतिस्थापित नहीं किया जाएगा, अदालत ने कहा कि यह स्पष्ट है कि याचिकाकर्ता को अपने जीवन या संपत्ति के लिए किसी वास्तविक खतरे का सामना नहीं करना पड़ रहा है।

    कोर्ट ने जोर देकर कहा, ''राज्य के खर्च और करदाताओं के पैसे पर एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग बनाने की इस प्रथा को बहिष्कृत किया जाना चाहिए।''

    इसलिए, न्यायालय ने किसी व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान करने के लिए निम्नलिखित मानदंड निर्धारित किएः

    -खतरे की धारणा वास्तविक होनी चाहिए और सुरक्षा समिति संबंधित पुलिस स्टेशन की खुफिया इकाई की रिपोर्ट और आवेदक के पिछले रिकॉर्ड को ध्यान में रखते हुए खतरे की धारणा का आकलन करे।

    -सुरक्षा केवल उन लोगों को प्रदान की जानी चाहिए जो आतंकवादी/नक्सली या संगठित गिरोहों से समाज या राष्ट्र के हित में कुछ काम करने के लिए अपने जीवन के लिए वास्तविक खतरे का सामना करते हैं, अन्यथा नहीं।

    -आवेदक को सुरक्षा प्रदान करने के लिए खतरे की धारणा का आकलन करने के लिए दूसरों के साथ व्यक्तिगत दुश्मनी मापदंडों के भीतर नहीं आएगी।

    इसके साथ ही कोर्ट ने तत्काल याचिका खारिज कर दी।

    केस का शीर्षक - अभिषेक तिवारी बनाम स्टेट ऑफ यू.पी. अपर मुख्य सचिव के माध्यम से व अन्य

    आदेश/निर्णय डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



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