यदि मरने से पहले दिया गया बयान स्वस्थ मानसिक स्थिति में दिया है तो उसकी पुष्टि करने की कोई आवश्यकता नहीं : कलकत्ता हाईकोर्ट

Shahadat

12 Aug 2022 7:06 AM GMT

  • यदि मरने से पहले दिया गया बयान स्वस्थ मानसिक स्थिति में दिया है तो उसकी पुष्टि करने की कोई आवश्यकता नहीं : कलकत्ता हाईकोर्ट

    कलकत्ता हाईकोर्ट की जस्टिस देबांगसू बसाक और जस्टिस बिभास रंजन डे की खंडपीठ ने दोहराया कि मरने से पहले दिया गया बयान (Dying Declaration)निर्णायक सबूत है, जो आरोपी की सजा के लिए स्वीकार्य है, जिसमें मृतक की मानसिक स्थिति के फिट होने की पुष्टि अनिवार्य नहीं है, इसलिए, अदालत ने विस्तार से बताया कि दोषसिद्धि केवल मरने से पहले दिए गए बयान के आधार पर ही की जा सकती है। पुष्टि कानून का पूर्ण सिद्धांत नहीं है, यह केवल विवेक का नियम है।

    कोर्ट ने इसके अलावा, यह कहा गया कि जांच रिपोर्ट में कमियों के कारण सामने रखे गए अन्य सबूतों को खारिज नहीं किया जाएगा और अयोग्यता के आधार पर केवल अभियोजन पक्ष की चूक के आधार पर बरी नहीं किया जा सकता, जबकि सबूत का पूरा रिकॉर्ड आरोपी के खिलाफ है।

    भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498-ए और धारा 302 के तहत दायर अभियोजन मामले में उल्लेख किया गया कि आरोपी का बार-बार पत्नी के साथ झगड़ा होता था, जहां वह उसके साथ रहता था। झगड़े की अंतिम घटनाओं उसने में पत्नी पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा दी। मृतक और आरोपी की शादी साल 2003 में हुई थी। आरोपी अपनी पत्नी पर शक करता था और इसी वजह से उसके साथ मारपीट करता था। विवाहित जोड़े की शादी से करीब 2 साल की बेटी है।

    निचली अदालत ने अभियोजन पक्ष के मामले में कोई दोष नहीं पाया और आरोपी को आईपीसी की धारा 498-ए और धारा 302 के तहत दंडनीय अपराधों के लिए दोषी ठहराया, जो मृतक द्वारा मरने से पहले दिए गए बयान, साक्ष्य और जांच के दौरान हासिल किए गए सबूतों के आधार पर है। अपीलकर्ता यानी आरोपी द्वारा इस अदालत के समक्ष बरी करने की अपील की गई।

    हालांकि निचली अदालत के फैसले में हस्तक्षेप नहीं किया गया। आरोपी को उसकी पत्नी की मौत का दोषी पाया गया, जो कि मिट्टी का तेल डालने और उसे आग लगाने के बाद आरोपी द्वारा जलाई गई चोटों के कारण हुई थी।

    अपीलकर्ता की ओर से वकील अनिरुद्ध भट्टाचार्य ने आत्महत्या की संभावना पर अपनी दलीलें दीं, जिसकी पुष्टि अभियोजन पक्ष के कई गवाहों ने की। इसके अलावा, वकील ने अतबीर बनाम दिल्ली एनसीटी सरकार के मामले पर पर भरोसा करते हुए कहा कि ट्रायल जज ने आरोपी को पूरी तरह से अप्रकट डाइंग डिक्लेयेरेशन के आधार पर दोषी ठहराया, जिसके बारे में आरोप लगाया गया कि मृतक की सही स्थिति को प्रमाणित किए बिना मृतक की देखभाल करने वाले डॉक्टर के समाने मरने से पहले बयान दिया गया।

    भट्टाचार्य ने अपने तर्क के दौरान कहा कि कथित यातना के तथ्य पर किसी विशिष्ट तिथि, समय या स्थान के अभाव में विश्वास नहीं किया जा सकता है। उन्होंने आगे कहा कि कथित यातना के संबंध में किसी भी गवाह ने पुलिस को रिपोर्ट नहीं की।

    राज्य की ओर से पेश वकील संजय बर्धन ने चोट के कारण को चित्रित करने वाले क्लिनिकल नोट पर बहुत अधिक भरोसा किया। उन्होंने आगे कहा कि अभियुक्त की दोषसिद्धि का आक्षेपित निर्णय दुर्बलता और अवैधता से मुक्त है और अपीलीय अदालत द्वारा हस्तक्षेप न करने की प्रार्थना की।

    आईपीसी की धारा 498-ए के संदर्भ में न्यायालय ने पहले "पति" और "पत्नी" शब्द की व्याख्या पर ध्यान दिया, क्योंकि यह दलील दी गई कि मृतक आरोपी की कानूनी रूप से विवाहित पत्नी नहीं है, क्योंकि उसकी पहली शादी अभी तक भंग नहीं हुई।

    बेंच ने रीमा अग्रवाल बनाम अनुपम पर भरोसा करते हुए टिप्पणी की:

    अभिव्यक्त "पति" के तहत ऐसा व्यक्ति आता है, जो वैवाहिक संबंध में प्रवेश करता है और पति की ऐसी घोषित या नकली स्थिति के के तहत आईपीसी की धारा 498-ए के प्रावधान के तहत संबंधित महिला से क्रूरता करता है, जो धारा आईपीसी 498-ए के सीमित उद्देश्य के लिए विवाह की वैधता हो। "पति" की परिभाषा के अभाव में विशेष रूप से ऐसे व्यक्तियों को शामिल किया जाता है, जो स्पष्ट रूप से विवाह करते हैं और ऐसी महिला के साथ सहवास करते हैं, जो उनकी पत्नी है। "पति के रूप में आईपीसी 498-ए के दायरे से इसे बाहर करने का कोई आधार नहीं है। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा है कि दूसरी पत्नी भी आईपीसी की धारा 498-ए के तहत शिकायत दर्ज कर सकती है।

    इस प्रकार यह विवादित नहीं है कि अपीलकर्ता और पीड़ित दोनों विवाहित है और पति-पत्नी के रूप में एक साथ रह रहे हैं। किसी विशिष्ट तिथि, समय या स्थान की अनुपस्थिति के संबंध में बचाव पक्ष के तर्क पर न्यायालय ने लिखित शिकायत के साथ रिश्तेदारों और पड़ोसियों के मौखिक साक्ष्य का विश्लेषण करने के बाद पाया कि मृतक को उसके पति यानी अपीलकर्ता द्वारा लगातार प्रताड़ित किया जा रहा था।

    आईपीसी की धारा 302 में मामला स्थापित करने पर बालुरघाट अस्पताल के मेडिकल एग्जामिनर के समक्ष मृतक के मरने से पहले दिए गए बयान पर भरोसा किया गया। वर्तमान मामले में दोषसिद्धि के लिए निर्णायक सबूत होने के लिए मरने से पहले दिए गए बयान को शामिल करने के कारणों का प्रदर्शन करते हुए अदालत ने अतबीर बनाम दिल्ली एनसीटी सरकार के मामले पर भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट द्वारा मरने से पहले दिए गए बयान पर विचार करने के लिए निम्नलिखित मापदंडों को सूचीबद्ध किया गया था:

    22. उपरोक्त निर्णयों का विश्लेषण स्पष्ट रूप से दर्शाता है:

    (i) मरने से पहले दिया गया बयान यदि यह न्यायालय के पूर्ण विश्वास को प्रेरित करता है तो दोषसिद्धि का एकमात्र आधार हो सकता है।

    (ii) अदालत को इस बात से संतुष्ट होना चाहिए कि बयान देने के समय मृतक की मानसिक स्थिति ठीक थी और यह प्रोत्साहन या कल्पना का परिणाम नहीं था।

    (iii) जहां अदालत संतुष्ट है कि मरने से पहले दिया गया बयान सत्य और स्वैच्छिक है, वह बिना किसी और पुष्टि के अपने दोषसिद्धि को आधार बना सकती है।

    (iv) यह कानून के पूर्ण नियम के रूप में निर्धारित नहीं किया जा सकता कि मरने से पहले दिया गया बयान दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं बन सकता, जब तक कि इसकी पुष्टि न हो जाए। पुष्टि की आवश्यकता वाला नियम केवल विवेक का नियम है।

    (v) जहां मरने से पहले दिया गया बयान संदेहास्पद है, उस पर बिना पुष्ट साक्ष्य के कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए।

    (vi) मृतक के दुर्बलता से ग्रस्त होने और बेहोशी की स्थिति में मरने से पहले दिया गया बयान दोषसिद्धि का आधार नहीं बन सकता।

    (vii) केवल इसलिए कि मरने से पहले दिए गए बयान में घटना के बारे में सभी विवरण शामिल नहीं हैं, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता।

    (viii) भले ही यह संक्षिप्त विवरण हो, इसे त्यागना नहीं है।

    (ix) जब प्रत्यक्षदर्शी इस बात की पुष्टि करता है कि मृतक मरने से पहले बयान देने में उपयुक्त और सचेत अवस्था में नहीं थी, तब मेडिकल राय मान्य नहीं हो सकती।

    (x) यदि सावधानीपूर्वक जांच के बाद अदालत इस बात के लिए संतुष्ट हो जाती है कि मृतक का मरने से पहले दिया गया बयान झूठ किसी भी प्रेरणा से प्रेरित नहीं है तो इसे आधार बनाने के लिए कोई कानूनी बाधा नहीं होगी।

    खंडपीठ ने बयान दर्ज करने वाले मेडिकल एग्जामिनर और पोस्टमॉर्टम डॉक्टर के बयानों पर सावधानीपूर्वक विचार करने के बाद निष्कर्ष निकाला कि डॉक्टर के सामने बयान देते समय मृतक होश में थी। इस निष्कर्ष का इस तथ्य से भी समर्थन किया गया कि इस तरह के बयान की उन गवाहों द्वारा पुष्टि की गई जिनके सामने मृतक ने वही बयान दिया, जब उसे कार द्वारा अस्पताल ले जाया जा रहा था।

    इस प्रकार, न्यायालय ने उपरोक्त मामले के आधार पर आरोपी व्यक्ति की दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए और भौतिक तथ्यों और परिस्थितियों की सावधानीपूर्वक जांच करने के बाद यह माना कि हालांकि जांच में कमियां पाई गईं, लेकिन इससे अन्य सबूत प्रभावित नहीं होंगे, क्योंकि इनकी स्वतंत्र रूप से जांच की जाएगी।

    केस टाइटल: गणेश माली बनाम पश्चिम बंगाल राज्य

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