भारत के नए श्रम कानूनी ढाँचे का एक समीक्षात्मक विश्लेषण

Nishikant Prasad

7 Dec 2025 1:40 PM IST

  • भारत के नए श्रम कानूनी ढाँचे का एक समीक्षात्मक विश्लेषण

    भारत की अर्थव्यवस्था के लिए श्रम सदैव ही एक केंद्रीय आधार रहा है। यह वह शक्ति है जो उद्योगों को चलाती है, सेवाओं को सुचारू करती है और देश के विकास पथ को गति प्रदान करती है। स्वतंत्रता के बाद से विकसित हुए लगभग 44 केंद्रीय और 100 से अधिक राज्य श्रम कानूनों का जाल अत्यधिक जटिल, अव्यवस्थित और समकालीन आर्थिक आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं रह गया था। इसी पृष्ठभूमि में, दर्जनों पुराने कानूनों को समेकित करके चार नए श्रम संहिताओं (Labour Codes) का निर्माण एक ऐतिहासिक और साहसिक प्रयास है। जहाँ सरकार इसे 'श्रम सशक्तिकरण' और 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेस' के संयोजन का एक क्रांतिकारी कदम बता रही है, वहीं श्रमिक संगठन और विशेषज्ञ इसमें कई गंभीर खामियाँ और श्रमिक-विरोधी प्रावधान देख रहे हैं। यह लेख इन्हीं चार स्तंभों – वेतन संहिता (Code on Wages), औद्योगिक संबंध संहिता (Code on Industrial Relations), सामाजिक सुरक्षा संहिता (Code on Social Security) और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य शर्त संहिता (Code on Occupational Safety, Health and Working Conditions) का एक समीक्षात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जो न केवल इनके सैद्धांतिक लाभों, बल्कि इनकी व्यावहारिक चुनौतियों और आलोचनात्मक पहलुओं पर भी प्रकाश डालेगा।

    वेतन संहिता, 2019 (The Code on Wages, 2019)

    वेतन संहिता, 2019 सबसे पहले लागू होने वाली संहिता है, जिसका उद्देश्य वेतन की एक सार्वभौमिक परिभाषा तय करना और राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी का मार्ग प्रशस्त करना है। सैद्धांतिक रूप से, यह एक प्रशंसनीय कदम है। चार या पाँच अलग-अलग वेतन संहिताओं के स्थान पर एक परिभाषा होने से पारदर्शिता बढ़ेगी और श्रमिकों को उनके वास्तविक वेतन के आधार पर लाभों की गणना करने में सहूलियत होगी।

    किंतु, समीक्षा की दृष्टि से यहाँ कई गंभीर प्रश्न उठते हैं। सबसे बड़ी चिंता राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी के क्रियान्वयन को लेकर है। यह संहिता एक सार्वभौमिक न्यूनतम मजदूरी की बात तो करती है, लेकिन इसे तय करने और लागू करने का अंतिम दायित्व केंद्र और राज्य सरकारों पर छोड़ दिया गया है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में, जहाँ विभिन्न राज्यों की आर्थिक स्थितियाँ और जीवनयापन का खर्च अलग-अलग है, एक वास्तविक 'राष्ट्रीय' न्यूनतम मजदूरी सुनिश्चित करना व्यावहारिक रूप से अत्यंत कठिन है। आशंका यह है कि यह प्रावधान केवल एक 'सलाहकारी' चरित्र का रह जाएगा और राज्यों द्वारा तय की जाने वाली न्यूनतम मजदूरी में भारी असमानता बनी रहेगी, जिससे श्रमिकों के प्रवासन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

    दूसरा मुद्दा वेतन की परिभाषा से जुड़ा है। जहाँ मूल वेतन, महंगाई भत्ता और अन्य विशेष भत्तों को वेतन में शामिल किया गया है, वहीं यह डर बना हुआ है कि नियोक्ता मूल वेतन को कम रखकर अन्य भत्तों में हेर-फेर करके बोनस, पीएफ, ग्रेच्युटी जैसे लाभों पर होने वाले खर्च को कम करने का प्रयास कर सकते हैं। इस प्रकार, 'सार्वभौमिकता' का सिद्धांत व्यवहार में श्रमिकों के वास्तविक वित्तीय लाभ में परिवर्तित होता दिखाई नहीं देता।

    औद्योगिक संबंध संहिता, 2020 (The Code on Industrial Relations, 2020)

    औद्योगिक संबंध संहिता, 2020 सबसे अधिक विवादास्पद संहिता है। इसका उद्देश्य ट्रेड यूनियन, हड़ताल और नौकरी की सुरक्षा से जुड़े कानूनों को आधुनिक बनाना है। इसमें 'फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेंट' जैसे प्रावधान को लचीलेपन के एक बड़े कदम के रूप में पेश किया गया है।

    हालाँकि, एक समीक्षात्मक नज़रिए से, यह संहिता श्रमिकों के सामूहिक अधिकारों और नौकरी की सुरक्षा के लिए एक गंभीर खतरा उत्पन्न करती है। सबसे पहला और बड़ा मुद्दा श्रमिकों की छंटनी (रेट्रेंचमेंट) से जुड़ा है। संहिता के तहत, 300 श्रमिकों तक की इकाइयों में छंटनी के लिए सरकारी अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी। यह सीमा पहले 100 श्रमिकों की थी। इसका सीधा सा अर्थ है कि अब बड़ी संख्या में प्रतिष्ठान बिना किसी सरकारी हस्तक्षेप के श्रमिकों की छंटनी कर सकेंगे। इससे नौकरी की सुरक्षा को भारी झटका लगेगा और नियोक्ताओं के लिए 'हायर एंड फायर' की नीति को अपनाना आसान हो जाएगा।

    दूसरा गंभीर मुद्दा हड़ताल के अधिकार से जुड़ा है। संहिता में हड़ताल शुरू करने से पहले 14 दिन का नोटिस देना और एक निश्चित सीमा से अधिक श्रमिकों वाले प्रतिष्ठानों में सरकार की पूर्व अनुमति लेना अनिवार्य कर दिया गया है। यह प्रावधान श्रमिकों की सबसे प्रभावी हथियार – हड़ताल – की क्षमता को कमजोर करता है। यह श्रमिकों और नियोक्ताओं के बीच शक्ति संतुलन को नियोक्ताओं के पक्ष में खिसका देता है। साथ ही, 'नेगोशिएटिंग यूनियन' की अवधारणा, जहाँ एक प्रतिष्ठान में केवल एक ही यूनियन को मान्यता दी जाएगी, छोटे यूनियनों की आवाज़ को दबाने और नियोक्ता-समर्थक यूनियनों को बढ़ावा देने का कार्य कर सकती है। संक्षेप में, यह संहिता 'लचीलेपन' के नाम पर श्रमिकों की सुरक्षा को दरकिनार करती हुई प्रतीत होती है।

    सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 (The Code on Social Security, 2020)

    सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 का सबसे बड़ा योगदान यह है कि यह असंगठित क्षेत्र, जिगी (Gig) वर्कर्स और प्लेटफॉर्म वर्कर्स को सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाने का दावा करती है। यह एक ऐतिहासिक और प्रगतिशील कदम है, क्योंकि देश की लगभग 90% श्रम शक्ति इन्हीं क्षेत्रों में कार्यरत है और अब तक इनकी पहुँच पेंशन, बीमा, मातृत्व लाभ आदि से बाहर थी।

    परंतु, एक गहन विश्लेषण इसकी व्यावहारिकता पर गंभीर सवाल खड़े करता है। सबसे बड़ा सवाल वित्त पोषण (फंडिंग) का है। संहिता में सरकार, नियोक्ताओं और श्रमिकों के अंशदान से एक सामाजिक सुरक्षा कोष बनाने की बात कही गई है। लेकिन, असंगठित क्षेत्र के करोड़ों श्रमिकों के लिए पर्याप्त कोष जुटाना एक बृहद् और अत्यंत जटिल कार्य है। न तो कोष के सटीक स्रोत स्पष्ट हैं, न ही प्रत्येक हितधारक के अंशदान का स्पष्ट फॉर्मूला। इसके बिना, यह प्रावधान एक 'कागजी घोड़ा' बनकर रह जाने का खतरा है।

    दूसरी महत्वपूर्ण चिंता पात्रता और प्रशासन की है। असंगठित और प्लेटफॉर्म श्रमिकों का पंजीकरण कैसे होगा? उनकी आय के स्रोत अस्थिर हैं, ऐसे में उनके अंशदान की राशि कैसे तय होगी? क्या एक ओला ड्राइवर या जोमैटो डिलीवरी पार्टनर को नियमित रूप से अंशदान करना संभव हो पाएगा? इन सभी सवालों के ठोस जवाब के अभाव में, यह संहिता केवल एक सुंदर विचार बनकर रह जाने का जोखिम रखती है। इसके अलावा, संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए ग्रेच्युटी जैसे लाभों में लचीलेपन को श्रमिक हितों से समझौता माना जा रहा है।

    व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य शर्त संहिता, 2020 (The Code on Occupational Safety, Health and Working Conditions, 2020)

    व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य शर्त संहिता, 2020 (OSH Code) का लक्ष्य कार्यस्थल पर श्रमिकों की सुरक्षा और स्वास्थ्य के मानकों को मजबूत करना है। इसमें कई सराहनीय प्रावधान हैं, जैसे महिलाओं को रात की पाली में काम की अनुमति देना (सुरक्षा शर्तों के साथ), जो लैंगिक समानता की दिशा में एक सकारात्मक कदम है। अंतर-राज्यीय प्रवासी श्रमिकों के लिए पोर्टेबल ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन और सामाजिक सुरक्षा लाभ सुनिश्चित करना भी एक प्रगतिशील विचार है।

    किंतु, इसकी आलोचना का केंद्र इसके दायरे और क्रियान्वयन से जुड़ा है। यह संहिता मुख्य रूप से उन्हीं प्रतिष्ठानों पर लागू होती है जो 'किसी उद्योग, व्यापार या व्यवसाय' में लगे हैं। इस अस्पष्ट परिभाषा के चलते, बड़ी संख्या में छोटे प्रतिष्ठान, विशेष रूप से असंगठित क्षेत्र के उद्यम, इसके दायरे से बाहर रह सकते हैं। वहीं, जहाँ यह लागू होती है, वहाँ निरीक्षण तंत्र (इंस्पेक्शन व्यवस्था) की कमजोरी एक बड़ी बाधा है। भारत में श्रम निरीक्षकों की भारी कमी है। ऑनलाइन शिकायत दर्ज कराने के प्रावधान तब तक अधूरे हैं, जब तक जमीनी स्तर पर एक मजबूत और निष्पक्ष निरीक्षण तंत्र मौजूद नहीं है। 'सेल्फ-सर्टिफिकेशन' यानी स्व-प्रमाणन की व्यवस्था नियोक्ताओं पर अत्यधिक विश्वास दर्शाती है, जबकि अनुभव बताता है कि लागत कम करने के चक्कर में कार्यस्थल सुरक्षा के मानकों की अनदेखी की जाती रही है।

    निष्कर्ष:

    निष्कर्षतः, भारत का नया श्रम कानूनी ढाँचा निस्संदेह एक साहसिक और आवश्यक सुधार है जो जटिलता को सरल बनाने और अर्थव्यवस्था को एक संस्थागत ढाँचा प्रदान करने का प्रयास करता है। किंतु, एक समीक्षात्मक दृष्टिकोण से यह स्पष्ट है कि यह सुधार अपनी संभावनाओं और खतरों के बीच एक नाजुक संतुलन पर खड़ा है।

    इन संहिताओं का झुकाव स्पष्ट रूप से 'व्यवसाय के अनुकूल माहौल' बनाने की ओर अधिक और 'श्रमिक अधिकारों के संरक्षण' की ओर कम प्रतीत होता है। औद्योगिक संबंध संहिता में छंटनी और हड़ताल के प्रावधान श्रमिक वर्ग के लिए एक झटका हैं। वेतन और सामाजिक सुरक्षा संहिताओं के तहत घोषित लाभों के क्रियान्वयन की राह में वित्तीय और प्रशासनिक अवरोधकों के गहरे सवाल मौजूद हैं।

    इसलिए, यह कहना उचित होगा कि यह सुधार एक 'अधूरी क्रान्ति' है। इसकी सफलता पूर्ण रूप से इस बात पर निर्भर करेगी कि इसे जमीन पर कैसे उतारा जाता है। इसके लिए आवश्यक है: -

    1. मजबूत क्रियान्वयन नियम: राज्य सरकारों द्वारा बनाए जाने वाले नियम ऐसे हों जो श्रमिक हितों की रक्षा करें और केवल कॉर्पोरेट लाभ को केंद्र में न रखें।

    2. पारदर्शी कोष व्यवस्था: सामाजिक सुरक्षा के लिए एक स्पष्ट, पर्याप्त और पारदर्शी वित्त पोषण मॉडल विकसित किया जाए।

    3. श्रम निरीक्षण तंत्र का सुदृढ़ीकरण: निरीक्षकों की संख्या बढ़ाई जाए और तकनीक का उपयोग करके एक प्रभावी निगरानी तंत्र विकसित किया जाए।

    4. श्रमिक जागरूकता: श्रमिकों को उनके नए अधिकारों और कर्तव्यों की जानकारी देने के लिए व्यापक अभियान चलाया जाए।

    यदि इन बातों पर ध्यान नहीं दिया गया, तो यह ऐतिहासिक सुधार अपने उद्देश्यों से भटक कर केवल 'कानूनी समेकन' तक सीमित रह जाएगा और श्रमिक वर्ग के हितों के साथ एक बड़ा धोखा साबित होगा।

    अंततः, एक सफल श्रम सुधार वही है जो उद्योग को गति दे और साथ ही श्रमिक को सम्मान।

    लेखक Institute of Legal Studies, Ranchi University, Ranchi में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं।

    Next Story