गर्भवती लड़की को कलेक्टर उचित आश्रय, सुरक्षा एवं नि:शुल्क उपचार प्रदान करें', मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने पिता की अपनी बेटी का गर्भपात कराने की अपील खारिज की

SPARSH UPADHYAY

12 May 2020 1:29 PM GMT

  • गर्भवती लड़की को कलेक्टर उचित आश्रय, सुरक्षा एवं नि:शुल्क उपचार प्रदान करें, मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने पिता की अपनी बेटी का गर्भपात कराने की अपील खारिज की

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की इंदौर बेंच ने मंगलवार (12-मई-2020) को इंदौर के कलेक्टर को यह आदेश देते हुए गर्भवती महिला के पिता की रिट अपील को ख़ारिज कर दिया कि लड़की को उचित आश्रय प्रदान किया जायेगा और उसे संपूर्ण उपचार, राज्य द्वारा नि:शुल्क प्रदान किया जाएगा, क्योंकि वह गर्भावस्था के अग्रिम चरण में है और एक या दो सप्ताह के भीतर वह एक बच्चे को जन्म देने वाली है।

    न्यायमूर्ति एस. सी. शर्मा और न्यायमूर्ति शैलेन्द्र शुक्ला की खंडपीठ ने यह आदेश जारी करते हुए लड़की के पिता द्वारा, एकल पीठ द्वारा सुनाये गए आदेश के खिलाफ दायर रिट अपील को खारिज कर दिया।

    दरअसल, गर्भावस्था की समाप्ति का संचालन करने के लिए, याचिकाकर्ता-पिता द्वारा एक रिट याचिका, मध्यप्रदेश हाईकोर्ट की इंदौर बेंच के समक्ष दायर की गयी थी, जिस याचिका को 20-मार्च-2020 को ख़ारिज कर दिया गया था।

    मामले के तथ्य

    याचिकाकर्ता-पिता (मामले में अपीलकर्ता भी) की नाबालिग पुत्री (अब बालिग़) का कथित तौर पर एक शुभम सोलंकी द्वारा अपहरण कर लिया गया था। इस आरोप के आधार पर, एफ.आई.आर. वीडी क्राइम नंबर 243/ 2018 और गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज की गई।

    इसके बाद, याचिकाकर्ता ने अपनी नाबालिग बेटी की कस्टडी के लिए एक आवेदन दायर किया, जिसके आधार पर नाबालिग पुत्री की कस्टडी याचिकाकर्ता को 28/02/2020 को प्राप्त हो गई थी। याचिकाकर्ता के वकील ने फिर अदालत को यह बताया कि नाबालिग लड़की को आरोपी के पास से बरामद करने के बाद उसका MLC कराया गया, जिसमें यह पाया गया कि नाबालिग लड़की, लगभग 7 सप्ताह की गर्भवती है।

    इसलिए, गर्भावस्था की समाप्ति का संचालन करने के लिए, याचिकाकर्ता द्वारा एक रिट याचिका उच्च न्यायालय के समक्ष दायर की गयी।

    अदालत की एकल पीठ द्वारा इस याचिका में यह आदेश दिए गए कि नाबालिग लड़की की, एक स्त्री रोग विशेषज्ञ और अन्य विशेषज्ञों सहित, डॉक्टरों के एक पैनल द्वारा चिकित्सकीय जांच की जाएगी। मेडिकल बोर्ड को यह निर्देश दिया गया कि वह अदालत के समक्ष अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करे।

    इसके पश्च्यात, उन्हें (लड़की के पिता-याचिकाकर्ता एवं स्वयं लड़की को) अपने बयानों की रिकॉर्डिंग के लिए न्यायालय के प्रधान रजिस्ट्रार के सामने उपस्थित होने का निर्देश अदालत की एकल पीठ द्वारा दिया गया।

    न्यायालय के समक्ष बयानों की रिकॉर्डिंग को एक सीलबंद लिफाफे में प्रस्तुत किया गया। लिफाफा खुले न्यायालय में खोला गया। याचिकाकर्ता और उसकी नाबालिग बेटी के बयानों को पढ़ा गया। बयानों को पढने एवं याचिकाकर्ता के वकील की दलीलों को सुनने के बाद, एकल पीठ ने 20-मार्च-2020 को रिट याचिका को ख़ारिज करते हुए कहा कि,

    "संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत हस्तक्षेप करने का कोई मामला नहीं बनता है। याचिका, योग्यता के बिना है और इसे खारिज किया जाता है।"

    याचिकाकर्ता-पिता ने की अपील

    वर्तमान रिट अपील लड़की के पिता द्वारा, एकल न्यायाधीश द्वारा पारित 20-मार्च-2020 के आदेश [W.P. No. 6057/2020 (Ashish Jain v/s The State of Madhya Pradesh)] के खिलाफ दायर की गयी।

    हालाँकि, अपीलकर्ता-पिता द्वारा दायर यह रिट अपील, जब न्यायालय के समक्ष सूचीबद्ध हुई तो लड़की 18 वर्ष से ज्यादा उम्र की हो चुकी थी अर्थात वह बालिग़ हो चुकी थी।

    इसी क्रम में, बीते 8 मई 2020 को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय (इंदौर बेंच) की खंड पीठ ने रिट अपील में पक्षकारों की दलील सुनने के बाद यह देखा कि,

    "इस न्यायालय के संज्ञान में लाया गया है कि लड़की 05/05/2020 को बालिग़ हो गयी है। जैसा कि वह बालिग़ हो गयी है, उसके बयान को 'गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम, 1971' (The Medical Termination Of Pregnancy Act 1971) की धारा 3 के मद्देनजर, नए सिरे से दर्ज किया जाना आवश्यक हो गया है। अपीलकर्ता के लिए नियुक्त वकील, लड़की के बयान को दर्ज करने के लिए 11/05/2020 को इस अदालत के प्रधान रजिस्ट्रार के सामने लड़की को लाने का वचन देते हैं। प्रार्थना की अनुमति दी जाती है।"

    गौरतलब है कि, मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 की धारा 3, पंजीकृत मेडिकल चिकित्सकों द्वारा गर्भधारण को समाप्त किये जाने से संबधित है। यह धारा यह बताती है कि आखिर कब (किन परिस्थितियों में) गर्भवती चिकित्सकों द्वारा गर्भधारण को समाप्त किया जा सकता है।

    इस धारा के अंतर्गत, एक गर्भवती महिला, जिसकी आयु अठारह वर्ष से कम है, या, यदि वो अठारह वर्ष की आयु प्राप्त कर चुकी है, परन्तु वह मानसिक रूप से बीमार है, तो उसकी गर्भावस्था को उसके अभिभावक की लिखित सहमती के बिना ख़त्म नहीं किया जा सकेगा [धारा 3 (4) (a)]।

    हालाँकि, जहाँ महिला 18 वर्ष की आयु से अधिक की है और मानसिक रूप से बीमार नहीं है, वहां उसकी सहमती के बिना किसी भी गर्भावस्था को समाप्त नहीं किया जा सकता है [धारा 3 (4) (b)]। दूसरे शब्दों में, जहाँ महिला 18 वर्ष से आयु से अधिक की है, वहां उसकी मर्जी के अनुरूप ही उसकी गर्भावस्था को समाप्त किया जा सकता है, अन्यथा नहीं।

    लड़की का बयान

    कोर्ट ने अपने आदेश में यह देखा है कि, लड़की ने अपने बयान में यह साफ़ कहा कि वह अपनी मर्जी से लड़के के साथ गयी। वह शुभम के साथ पहले पंजाब गई, दोनों अमृतसर में रहे और फिर बाद में वे उज्जैन वापस आ गए। उसने स्पष्ट रूप से कहा है कि किसी भी समय, उसके साथ बलात्कार नहीं किया गया और उसके पिता के इशारे पर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज की गई थी और इसके चलते शुभम जेल में है।

    लड़की ने यह भी स्पष्ट रूप से कहा है कि वह अपनी गर्भावस्था को समाप्त नहीं करना चाहती है क्योंकि वह शुभम से शादी करना चाहती है और क्योंकि वह प्रिंसिपल रजिस्ट्रार के सामने बयान देना चाहती थी, इसलिए उसे गर्भावस्था के इस अग्रिम चरण में पिता (जोकि मौजूदा अपीलकर्ता हैं) द्वारा घर से बाहर निकाल दिया गया। उसने यह भी कहा है कि उसकी उम्र लगभग 22 वर्ष है और वह शुभम से शादी करना चाहती है।

    बयान पर गौर करने के बाद अदालत ने यह कहा कि, "कानून [गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम, 1971] के पूर्वोक्त वैधानिक प्रावधान [धारा धारा 3 (4) (a) एवं (b)] के अनुसार, चूंकि लड़की बालिग़ है, वह गर्भावस्था को समाप्त नहीं करना चाहती है और उसने यह बात प्रधान रजिस्ट्रार के समक्ष स्पष्ट रूप से कही है, इसलिए, (उसकी) गर्भावस्था को समाप्त करने का प्रश्न नहीं उठता है। यह न्यायालय, एकल न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश के साथ हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं पाता है।"

    गौरतलब है कि, सुचिता श्रीवास्तव एवं अन्य बनाम चंडीगढ़ एडमिनिस्ट्रेशन (2009) 9 SCC 1 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने गर्भावस्था जारी रखने के संदर्भ में महिलाओं के अधिकारों की पुष्टि की है। सुचिता श्रीवास्तव मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से यह कहा कि यह राज्य का दायित्व है कि वह महिला के प्रजनन अधिकारों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता, गरिमा और गोपनीयता के उसके अनुच्छेद 21 के अंतर्गत अधिकारों के एक घटक के रूप में सुनिश्चित करे।

    हाईकोर्ट का लड़की की सुरक्षा, उपचार एवं आश्रय के सम्बन्ध में आदेश

    अदालत ने इस बात पर विशेष रूप से गौर किया कि चूँकि लड़की/गर्भवती महिला को उसके पिता ने घर से निकाल दिया है और उसके पास रहने के लिए जगह नहीं है और उसे बच्चे के प्रसव के मामले में मदद की आवश्यकता है।

    अदालत ने आदेश जारी करते हुए कहा कि,

    "इंदौर के कलेक्टर, लड़की को उचित आश्रय प्रदान करेंगे और उसे संपूर्ण उपचार, राज्य द्वारा नि:शुल्क प्रदान किया जाएगा क्योंकि वह गर्भावस्था के अग्रिम चरण में है और एक या दो सप्ताह के भीतर एक बच्चे को जन्म देने वाली है। इस आदेश की एक प्रति संबंधित एसएचओ को भेजी जाएगी और वह लड़की का पता लगाने और उसकी कलेक्टर के साथ बैठक करने की व्यवस्था करेंगे।"

    अदालत ने आगे यह भी कहा कि,

    "इस न्यायालय द्वारा दिए गए आदेश के साथ लड़की, इंदौर के कलेक्टर से संपर्क करने के लिए स्वतंत्र होगी, और कलेक्टर उसे आश्रय गृह या किसी सुरक्षित घर में या एक छात्रावास में आश्रय प्रदान करेंगे और उस लड़की की देखभाल भी करेंगे, जब तक वह बच्चे को जन्म न दे दे और जब तक वह बच्चे को जन्म देने के बाद ठीक नहीं हो जाती।"

    अदालत ने अपने आदेश में इंदौर के कलेक्टर को लड़की की सुरक्षा सुनिश्चित करने का भी आदेश दिए। इन्ही आदेशों के साथ वर्तमान रिट अपील को खारिज किया गया।

    मामले का विवरण:

    केस टाइटल: आशीष जैन बनाम मध्यप्रदेश राज्य

    स नं: Writ Appeal No.543/2020

    कोरम: न्यायमूर्ति एस. सी. शर्मा एवं शैलेन्द्र शुक्ला

    अधिवक्ता: अधिवक्ता अरिहंत कुमार नाहर (अपीलकर्ता के लिए) – अधिवक्ता अमोल श्रीवास्तव (मध्यप्रदेश राज्य के लिए)।

    आदेश डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



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