मां को पांच साल से कम उम्र के बच्चे को अपने पास रखने का अधिकार, लेकिन सबसे ज्यादा ध्यान बच्चे के भलाई पर होना चाहिए: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

23 April 2022 10:49 AM GMT

  • P&H High Court Dismisses Protection Plea Of Married Woman Residing With Another Man

    Punjab & Haryana High Court

    पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने तीन साल के बच्चे की मां की याचिका खारिज कर दी, जिसमें महिला ने अपने नाबालिग बेटे को उसके पति और ससुराल वालों के कथित अवैध कस्टडी से अपने पास रखने की अनुमति के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) रिट जारी करने की मांग की गई थी।

    कोर्ट ने कहा,

    " एक प्राकृतिक अभिभावक के रूप में पिता की कस्टडी को अवैध या गैरकानूनी नहीं कहा जा सकता और इसलिए बंदी प्रत्यक्षीकरण का रिट जारी करना उचित नहीं होगा।"

    जस्टिस संत प्रकाश की पीठ ने आगे कहा कि नाबालिगों के अभिभावक नियुक्त करने का आदेश देते समय सबसे महत्वपूर्ण रूप से ध्यान नाबालिग की भलाई पर दिया जाना चाहिए।

    कोर्ट ने आगे कहा कि माता के कानूनी अधिकारों को अभिभावक और वार्ड अधिनियम, 1890 की धारा 7 के प्रावधानों के अधीन समझा जाना चाहिए।

    अधिनियम की धारा 7 के तहत न्यायालय को नाबालिग के कल्याण के एकमात्र विचार द्वारा निर्देशित किया जाना चाहिए और नाबालिग की भलाई के लिए क्या होगा यह आवश्यक रूप से प्रत्येक विशेष मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर होना चाहिए।

    मामले के तथ्य :

    याचिकाकर्ता और प्रतिवादी ने 2014 में शादी की थी और इस विवाह से उनके दो बच्चे हुए। वैवाहिक विवाद के कारण वे अलग रहने लगे और बड़ा बच्चा मां के साथ रह रहा है जबकि छोटा बच्चा पिता के साथ रह रहा है।

    याचिकाकर्ता का यह मामला है कि उसके नाबालिग बेटे को उसके पति और ससुराल वालों ने अवैध रूप से ले लिया है। महिला ने अपने पति और ससुराल वालों पर आरोप लगाया कि वे आदतन अपराधी हैं और उनके खिलाफ एनडीपीएस अधिनियम के तहत 198 से अधिक एफआईआर दर्ज हैं।

    महिला ने कहा कि उसने पुलिस, एसएचओ और डीएसपी से शिकायत की लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।

    पार्टियों द्वारा किए गए प्रतिद्वंद्वी प्रस्तुतियों पर विचार करने के बाद अदालत ने माना कि नाबालिग बच्चे की कस्टडी से संबंधित मामले का फैसला नाबालिग के हित और उसकी भलाई के एकमात्र और प्रमुख मानदंड पर किया जाना है।

    यह कानून का एक स्थापित सिद्धांत है कि जब भी किसी नाबालिग बच्चे की कस्टडी से संबंधित कोई सवाल अदालत के सामने उठता है तो मामले का फैसला पार्टियों के कानूनी अधिकारों के आधार पर नहीं बल्कि एकमात्र और प्रमुख मानदंड पर किया जाना चाहिए कि बच्चे के लिए सबसे अच्छा क्या होगा। नाबालिग के हित और कल्याण की के बिंदु ध्यान में रखें। यदि बच्चे के कल्याण की बात है तो तकनीकी आपत्तियाँ आड़े नहीं आ सकतीं।

    अदालत ने कहा कि पांच साल से कम उम्र के नाबालिग बच्चे की कस्टडी आमतौर पर मां के पास होती है।

    उपरोक्त संदर्भित न्यायिक मिसालों के मद्देनजर, यह सामने आया है कि हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 ( Hindu Minority and Guardianship Act, 1956 ) की धारा 6 (ए) के प्रावधान के मद्देनजर, एक नाबालिग बच्चे की कस्टडी, जिसने पांच साल की उम्र पूरी नहीं की है, आमतौर पर मां के पास होगी।

    कोर्ट ने आगे कहा कि बच्चे की कस्टडी के मामलों में माता -पिता के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए अदालत का कर्तव्य अधिक कठिन है। अवयस्क की भावनाएं और कल्याण सर्वोच्च विचार हैं और इन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

    वर्तमान मामले के तथ्यों के बारे में अदालत ने कहा कि मां अपने नाबालिग बच्चे की प्राकृतिक अभिभावक होने के नाते कस्टडी का दावा करने का अधिमान्य अधिकार रखती है, लेकिन अदालत के समक्ष अत्यधिक विचार बच्चे की भलाई है, न कि किसी पक्षकार के कानूनी अधिकार।

    यह सच है कि एक नाबालिग बच्चे की प्राकृतिक अभिभावक होने के नाते मां को अपने बेटे की कस्टडी का दावा करने का अधिमान्य अधिकार है। हालांकि इस न्यायालय के समक्ष सबसे अधिक विचार अवयस्क की भलाई है न कि किसी विशेष पक्ष का कानूनी अधिकार।

    यह कहते हुए कि माता-पिता का अपने नाबालिग बच्चे की कस्टडी का कोई भी अधिकार पूर्ण नहीं है, अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि एक प्राकृतिक अभिभावक के रूप में पिता की कस्टडी अवैध या गैरकानूनी नहीं है।

    कानून के प्रावधानों और विवादित तथ्यात्मक मैट्रिक्स को ध्यान में रखते हुए, मेरी राय है कि एक प्राकृतिक अभिभावक के रूप में पिता की कस्टडी को अवैध या गैरकानूनी नहीं कहा जा सकता और इसलिए याचिकाकर्ता के पक्ष में बंदी प्रत्यक्षीकरण एक रिट जारी करना उचित नहीं होगा।

    यह ध्यान देने के बाद कि नाबालिग बच्चे को अवैध कस्टडी में नहीं रखा गया है, अदालत ने बंदी प्रत्यक्षीकरण की इस याचिका को योग्यता के बिना खारिज कर दिया।

    केस शीर्षक : पूनम कलसी बनाम पंजाब राज्य और अन्य

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