विदेशी आदेशों को लागू करना : सुप्रीम कोर्ट ने कहा, मध्यस्थता क़ानून की धारा 48 में हस्तक्षेप का मौक़ा न्यूनतम
LiveLaw News Network
15 Feb 2020 8:30 AM IST
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी विदेशी आदेश को निरस्त करने के आधार पर ग़ौर करते हुए अदालत को न्यूनतम हस्तक्षेप करना चाहिए।
न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन, न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस और न्यायमूर्ति वी रामसुब्रमणन की पीठ ने ज़ोर देकर कहा कि मध्यस्थता और सुलह क़ानून, 1996 की धारा 48(1) को विस्तृत अर्थ नहीं दिया जा सकता है।
बेंच ने कहा कि
"…कोई पक्ष अपने मामले को पेश नहीं कर पाया है, इसके निर्धारण की अच्छी पड़ताल यह है कि बाहरी कारक जो पक्ष के नियंत्रण के बाहर हैं, उसने पार्टी को उचित सुनवाई से रोका है या नहीं।
इस तरह, जहां किसी दलील से निपटने के लिए कोई मौक़ा नहीं दिया गया और जो कि मामले की जड़ तक जाता है या ऐसे तथ्य जो किसी पक्ष की पीठ के पीछे जाते हैं और इससे पक्ष को न्याय से वंचित होना पड़ता है या अतिरिक्त या नए साक्ष्य लिए जाते हैं जो आदेश का आधार बनते हैं और जिसके ख़िलाफ़ एक पक्ष को दलील देने का मौक़ा नहीं दिया गया तो इस मामले के तथ्यों को देखते हुए विदेशी फ़ैसले को इस आधार पर निरस्त किया जा सकता है कि पार्टी अपना पक्ष प्रस्तुत करने में सफल नहीं रही है।"
मामले के तथ्य
अपीलकर्ता राविन केबल्ज़ लिमिटेड के ग़ैर-निगमित शेयरधारक थे। अपीलकर्ता और राविन ने इटली में पंजीकृत एक कंपनी प्रिस्मीयन कावि (प्रतिवादी नम्बर 1) के साथ एक संयुक्त उपक्रम समझौता (जेवीए) किया था। इस वजह से प्रतिवादी नम्बर 1 राविन में 51% का शेयरधारक हो गए और उसने अपीलकर्ताओं को 50 लाख यूरो का भुगतान एक कंट्रोल प्रीमियम एग्रीमेंट के तहत किया।
जेवीए के 'मटीरियल ब्रीचेज' (भारी उल्लंघन) का आरोप लगाते हुए जेवीए की शर्त 27 का हवाला देते हुए प्रतिवादी नम्बर 1 को राविन से बाहर कर दिया। 26.03.2012 को अपीलकर्ताओं ने मध्यस्थता का आग्रह किया और कई प्रतिदावे किए।
डेटर्मिनेशन नोटिसों के माध्यम से प्रतिवादी नम्बर 1 ने जेवीए के आधार पर इन आरोपों का जवाब दिया पर इन उल्लंघनों का निदान नहीं हो पाया।
इसके बाद लंदन कोर्ट के अंतरराष्ट्रीय पंचाट (एलसीआईए) ने एकल मध्यस्थ नियुक्त किया पर अपीलकर्ता ने इस नियुक्ति का विरोध किया। पर इस नियुक्ति को चुनौती नहीं दी।
प्रतिवादी नम्बर 1 ने 09.09.2012. को अपने दावे का बयान दाख़िल किया और अपीलकर्ताओं ने अपना काउंटर क्लेम 28.09.2012 को दाख़िल किया। इस मामले में अंतिम फ़ैसला 11.04.2017 को दिया गया जो प्रतिवादी नम्बर 1 के पक्ष में था। इसमें कहा गया कि कुल 1,02,52,275 शेयर प्रतिवादी नम्बर 1 को ₹63.9 प्रति शेयर की दर से ख़रीदना है और यह राशि ₹65,52,00,000 होती है।
इंग्लिश आर्बिट्रेशन लॉ के तहत इस आदेश को चुनौती नहीं दी गई और इसको चुनौती तब दी गई जब भारत में इस आदेश को लागू करने की बात उठी। अपीलकर्ताओं ने हाईकोर्ट में एकल जज के पास याचिका दायर की और इस आदेश को लागू नहीं करने का आग्रह किया।
हाईकोर्ट ने कहा कि इस आदेश को अवश्य लागू किया जाए क्योंकि इसके ख़िलाफ़ आपत्ति आर्बिट्रेशन एक्ट की धारा 48 के तहत "स्पष्ट क़ानून" में फिट नहीं बैठती।
अधिनियम की धारा 50 के तहत अपील का प्रावधान नहीं है और अपीलकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत विशेष अनुमति याचिका दायर की।
अपीलकर्ताओं के वक़ील ने कहा कि इस आदेश को भारत में लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि भारतीय क़ानून की विदेश नीति के ख़िलाफ़ है और यह न्याय के मौलिक अर्थ का उल्लंघन करता है। हाईकोर्ट के फ़ैसले का भी विरोध किया गया कि यह प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन करता है।
डॉक्टर सिंघवी और नकुल देवान ने हाईकोर्ट के फ़ैसले की यह कहते हुए आलोचना की है कि हाईकोर्ट ने बहुत सारे सवालों के जवाब नहीं दिए हैं।
प्रतिवादी नम्बर 1 के वक़ील ने कहा कि आदेश के ख़िलाफ़ किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं हो सकता क्योंकि यह अधिनियम की धारा 48 के अधिकार के बाहर होगा। इस बारे में रेणुसागर पॉवर लिमिटेड बनाम जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी मामले का हवाला दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने याचिका को ख़ारिज करते हुए कहा, "अधिनियम की धारा 48 के तहत किसी विदेशी आदेश को लागू करने से सिर्फ़ तभी इंकार किया जा सकता है जब इसको लागू करने का विरोध कर रहा पक्ष यह सबूत पेश करे कि बताए गए सभी आधारों में से किसी का प्रयोग इसे लागू करने के ख़िलाफ़ हुआ है और ऐसा करने का अधिकार सिर्फ़ अदालत को है। उपरोक्त आधार पर, किसी विदेशी फ़ैसले को लागू करनेवाली अदालत कोई 'संतुलनकारी कार्य' कर सकता है।
किसी विदेशी फ़ैसले को अवश्य ही तभी निरस्त किया जा सकता है अगर यह न्याय के बहुत ही आधारभूत धारणा की अनदेखी करता है।
"जिस महत्त्वपूर्ण बिंदु पर ग़ौर किया जाना है वह यह है की अगर विदेशी आदेश को संपूर्णता में, उचित रूप में और बिना किसी दोष ढूंढ़े पढ़ा जाना चाहिए। अगर इसे संपूर्णता में पढ़ा जाता है तो इस आदेश ने पक्षकारों द्वारा उठाए गए मौलिक मुद्दों पर अपनी राय दी है…दावों और प्रतिदावों पर निर्णय दिया है, तो इसे अवश्य ही लागू किया जाना चाहिए।"
अदालत ने यह भी कहा कि अनुच्छेद 136 के तहत उसके पास सीमित अधिकार हैं और अगर मामले के मेरिट पर हाईकोर्ट ने पहले ही व्यापक रूप से ग़ौर कर लिया है तो सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप की कोई ज़रूरत नहीं है।
"…अनुच्छेद 136 के सीमित मानकों को देखते हुए यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि इस तरह के मामले जिसमें अपील की अनुमति नहीं है, यह अदालत किसी तरह के हस्तक्षेप के प्रति बहुत ही सस्ती बरतेगा और वह अपील को तभी स्वीकार करेगा जब कोई नया और विशिष्ट मुद्दा उठाया गया है और क़ानून के निर्धारण का मुद्दा उठता है और जिसका उत्तर सुप्रीम कोर्ट ने पहले नहीं दिया है ताकि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय तब भविष्य के ऐसे मामलों के लिए दिशानिर्देश का काम करे। मध्यस्थता अधिनियम की धारा 48 का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन के अपवाद जैसी स्थिति में ही सुप्रीम कोर्ट उस फ़ैसले में हस्तक्षेप करेगा जो विदेशी फ़ैसला, चाहे ही वही कितना ही बेढंगे तरीक़े से क्यों न ड्राफ़्ट किया गया हो"।
अदालत ने अपीलकर्ताओं पर मुक़दमे के ख़र्च के रूप में ₹50 लाख रुपए चुकाने को कहा। वरिष्ठ वक़ील अभिषेक मनु सिंघवी और नकुल देवान ने अपीलकर्ताओं की अपील की। कपिल सिबल और केवी विश्वनाथन ने प्रतिवादी की पैरवी की।