सिर्फ इसलिए कि अभियुक्त को बरी कर दिया गया, संबंधित प्राधिकरण की विभागीय जांच जारी रखने की शक्ति को छीना नहीं जा सकता: कलकत्ता हाईकोर्ट
Shahadat
21 April 2023 11:45 AM IST
कलकत्ता हाईकोर्ट ने गुरुवार को कहा कि आपराधिक न्यायालय द्वारा बरी किए जाने का आदेश किसी कर्मचारी को स्वत: दोषमुक्ति का हकदार नहीं बनाता और निलंबन की अवधि के लिए पिछले वेतन के रूप में परिणामी राहत को अनुशासनात्मक प्राधिकारी द्वारा दंड के रूप में योग्यता के आधार पर रोका नहीं जा सकता।
जस्टिस रवि कृष्ण कपूर की एकल न्यायाधीश पीठ ने कहा,
“इस मामले में जांच अधिकारी आपराधिक कार्यवाही में एकमात्र गवाह था। कोर्ट के सामने कोई ठोस सबूत पेश नहीं किया गया। दस्तावेज जब्त किए जाने के बाद भी पेश नहीं किए गए। इसलिए मजिस्ट्रेट के पास बरी करने का आदेश पारित करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा। याचिकाकर्ता को योग्यता के आधार पर दोषमुक्त नहीं किया गया। मामले को लापरवाही से अंजाम दिया गया और आरोपों के समर्थन में कोई दस्तावेज रिकॉर्ड पर नहीं लाया गया। पीड़ित पक्ष के मामले पर कोई विचार नहीं किया गया। ऐसी परिस्थितियों में दोषमुक्ति को सम्माननीय दोषमुक्ति नहीं कहा जा सकता।"
याचिकाकर्ता जीवन बीमा निगम लिमिटेड (एलआईसी) में असिस्टेंट के रूप में काम कर रहा था, जब 3 नवंबर, 2000 को उसके खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 420, धारा 120 बी, धारा 467, धारा 468 और धारा 471 के तहत एक आपराधिक मामला दर्ज किया गया।
उक्त असिस्टेंट पर कथित रूप से ब्रिटिश वाणिज्य दूतावास में अपने और अपने परिवार के सदस्यों के लिए वीजा प्राप्त करने के लिए जाली दस्तावेजों देने का आरोप था।
याचिकाकर्ता को 14 नवंबर, 2000 को निलंबन का आदेश दिया गया और 30 मार्च, 2002 को पत्र दिया गया था, जिसमें एलआईसीआई (स्टाफ) विनियम 1960 की धारा 39(1) (डी) के अनुसार याचिकाकर्ता पर मूल वेतन में तीन चरणों की कटौती के रूप में जुर्माना लगाया गया।
याचिकाकर्ता ने अपीलीय प्राधिकारी को यह कहते हुए अभ्यावेदन दिया कि 20 जनवरी, 2004 के आदेश द्वारा उसे मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत द्वारा "सम्मानपूर्वक बरी" कर दिया गया। इस तरह उसकी निलंबन अवधि को ड्यूटी पर अवधि और परिणामी लाभों के रूप में माना जाना चाहिए और उसे बहाल किया जाए। याचिकाकर्ता ने आगे बुनियादी वेतन वृद्धि जारी करने की मांग की।
प्रतिवादी अधिकारियों ने 29 दिसंबर, 2004 के पत्र द्वारा याचिकाकर्ता को सूचित किया कि बरी करने का आदेश तकनीकी आधार पर पारित किया गया था और उसका मामला एलआईसीआई (स्टाफ) विनियम 1960 के विनियम 38 (बी) के दायरे में आता है। तदनुसार, पीठ निलंबन अवधि का बकाया वेतन तत्काल प्रभाव से वापस करने का निर्देश दिया।
हाईकोर्ट के समक्ष याचिकाकर्ता ने प्रतिवादियों के संचार को चुनौती दी और तर्क दिया कि चूंकि उसे आपराधिक न्यायालय द्वारा सम्मानपूर्वक बरी कर दिया गया, इसलिए वह निलंबन की अवधि के लिए वेतन वापस पाने और दंड के रूप में रोकी गई मूल वेतन वृद्धि की रिहाई का हकदार है।
याचिकाकर्ता द्वारा यह आगे तर्क दिया गया कि अनुशासनात्मक प्राधिकरण बरी होने की प्रकृति के बारे में टिप्पणी करने के लिए मजिस्ट्रेट के आदेश से परे नहीं जा सकता।
अदालत ने कहा कि आपराधिक कार्यवाही की प्रकृति और दायरा विभागीय अनुशासनात्मक कार्यवाही से अलग है और बरी करने का आदेश विभागीय कार्यवाही को स्वचालित रूप से समाप्त नहीं करता।
यह कहा गया,
"सिर्फ इसलिए कि अभियुक्त को बरी कर दिया गया, संबंधित प्राधिकरण की विभागीय जांच जारी रखने की शक्ति को छीना नहीं जा सकता है और न ही किसी भी तरह से उसके विवेक पर रोक लगाई जाती है। बरी करने के आदेश को ध्यान में रखा जा सकता है लेकिन अनुशासनात्मक कार्यवाही में आरोपों को ग्रहण करने का भारी प्रभाव नहीं पड़ेगा। दोनों मामलों में प्रमाण का मानक अलग है और कार्यवाही अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग उद्देश्यों के साथ संचालित होती है।”
अदालत ने कहा कि अनुशासनात्मक प्राधिकारी द्वारा लिए गए दृष्टिकोण में कोई दोष नहीं है कि याचिकाकर्ता के मामले को पूर्ण दोषमुक्ति के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए।
अदालत ने कहा,
"गुण-दोष या अन्यथा के आधार पर अपीलीय प्राधिकारी द्वारा पुष्ट किए गए अनुशासनात्मक प्राधिकारी के आदेश को भी कोई चुनौती नहीं है। इसलिए एलआईसीआई (कर्मचारी) विनियमन अधिनियम 1960 के नियम 38 (बी) के आह्वान की अनुमति है।“
इस प्रकार, अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता निलंबन की अवधि के लिए वापस वेतन और जुर्माने के रूप में रोके गए मूल वेतन का दावा नहीं कर सकता।
तदनुसार, रिट याचिका खारिज कर दी गई।
केस टाइटल: प्रदीप कुमार बिस्वास बनाम भारत संघ व अन्य।
कोरम: जस्टिस रवि कृष्ण कपूर
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