केवल यह कथन कि शिकायतकर्ता के राजनीतिक समर्थन ने एक व्यक्ति को अनैतिक गतिविधि में शामिल होने के लिए प्रेरित किया, मानहानि का मामला नहीं: त्रिपुरा हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
22 April 2021 2:55 PM IST
त्रिपुरा हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि केवल यह कथन कि एक व्यक्ति के किसी दूसरे व्यक्ति को राजनीतिक समर्थन ने उस व्यक्ति को अनैतिक गतिविधि में शामिल होने के लिए प्रेरित किया, यह भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 499 (मानहानि) के दायरे में नहीं आता है।
न्यायमूर्ति अरिंदम लोध की खंडपीठ ने आगे कहा कि इस तरह के बयान को आईपीसी की धारा 499 के तहत मानहानि नहीं माना जा सकता है।
कोर्ट के समक्ष मामला
याचिकाकर्ता सुबल कुमार डे स्यंदन पत्रिका का पब्लिशर और संपादक है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के पूर्णकालिक कार्यकर्ता वन गोरा चक्रवर्ती (शिकायतकर्ता) ने याचिकाकर्ता के खिलाफ एक शिकायत दर्ज की थी जिसमें आरोप लगाया गया था कि स्यंदन पत्रिका में प्रकाशित कुछ समाचार के प्रकाशन से उनकी बदनामी हुई है।
शिकायतकर्ता द्वारा यह आरोप लगाया गया था कि 22 सितंबर, 2008 को उसके और काजल भौमिक के खिलाफ दुर्भावनापूर्ण इरादे से स्यंदन पत्रिका में एक समाचार प्रकाशित किया गया था और उस समाचार में शिकायतकर्ता के खिलाफ पूरी तरह से झूठी और मनगढ़ंत स्टोरी प्रकाशित की गई थी।
ट्रायल कोर्ट ने आरोपी-याचिकाकर्ता को आईपीसी की धारा 500 और धारा 502 के तहत दंडनीय अपराध के लिए दोषी ठहराया और सजा सुनाई। इसके खिलाफ आरोपी-याचिकाकर्ता ने पश्चिम त्रिपुरा के अगरतला के सत्र न्यायाधीश के कोर्ट के समक्ष अपील की।
सत्र न्यायाधीश ने सुनवाई के बाद और अदालत के सजा के आदेश को बरकरार रखा।
इसके बाद आरोपी / याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट के समक्ष सत्र न्यायाधीश के फैसले और सजा के आदेश के खिलाफ समीक्षा याचिका दायर की।
कोर्ट का अवलोकन
कोर्ट ने शुरुआत में कहा कि किसी व्यक्ति को आईपीसी की धारा 500 के तहत केवल इस आधार अपराध नहीं माना जा सकता क्योंकि कुछ लेख या समाचार उस व्यक्ति के लिए कुछ कथनों को प्रकाशित करते हैं।
कोर्ट ने आगे कहा कि,
"जब तक यह नहीं दिखाया जाता है कि आरोपी द्वारा अभद्र या इस तरह का उल्लेख करने वाले शब्दों का इस्तेमाल किया गया है और उसके खिलाफ आपत्तिजनक शब्द प्रकाशित किए गए है तब तक प्रथम दृष्टया यह नहीं कह सकता है कि यह आईपीसी की धारा 500 के तहत दंडनीय अपराध है।"
कोर्ट ने शिकायत में कही गईं बातों को ध्यान में रखते हुए कहा कि यह स्पष्ट है कि शिकायतकर्ता ने केवल यह कहा है कि आरोपी के अखबार में प्रकाशित खबर ने शिकायतकर्ता पर बिशालगढ़ के संबंधित एलपीजी बॉटलिंग स्टेशन के कार्यकर्ता जयंत पॉल को राजनीतिक समर्थन देने का आरोप लगाया गया है और उस राजनीतिक समर्थन की मदद से उक्त जयंत पाल पेज ने कथित रूप से कार्यालय के समय उक्त प्लांट में उपद्रव और अवैध और अनैतिक गतिविधियां शुरू कर दी थीं।
कोर्ट ने इस पृष्ठभूमि में उल्लेख किया कि संपूर्ण शिकायत में प्रकाशन के किस भाग पर आपत्ति है और वे कौन से शब्द हैं जो कथित रूप से अपमान कर रहे हैं, इन सभी की अनुपस्थिति है।
कोर्ट ने कहा कि,
"इस प्रकार यह स्पष्ट है कि शिकायतकर्ता द्वारा दर्ज की गई शिकायत आईपीसी की धारा 500 की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पा रही है।"
बेंच ने यह भी उल्लेख किया कि शिकायतकर्ता के समर्थन में साबूत जोड़ने वाले किसी भी गवाह ने अपने बयान में यह नहीं कहा कि प्रकाशन द्वारा शिकायतकर्ता की प्रतिष्ठा को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नुकसान पहुंचाया है।
आरोपी को उस पर लगे आरोप को जानने का हक है।
आरोपी-याचिकाकर्ता के लिए वकील ने अदालत के सामने प्रस्तुत किया कि या तो शिकायत में या बयान में या प्रकाशित लेख में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे शिकायतकर्ता का अपमान हुआ हो। उन्होंने तर्क दिया कि निचली दो न्यायालयों ने आईपीसी की धारा 499 के तहत सजा सुनाते समय इन मुख्य सबूतों पर ध्यान नहीं दिया।
शिकायतकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि समाचार पत्र में प्रकाशित समाचार को इस कारण से पुन: प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसे अखबार में अच्छी तरह से प्रकाशित किया गया है।
कोर्ट ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद कहा कि,
"मानहानि के मुकदमे में यह बहुत आवश्यक है कि मानहानि के लिए आरोपित शब्दों के विवरण को ठीक से शिकायत में ही निर्धारित किया जाए। आरोपी यह जानने का हकदार है कि उस पर क्या आरोप हैं? तभी वह उसके खिलाफ लगाए गए आरोपों का जवाब दे सकेगा और अपना बचाव कर सकेगा।''
महत्वपूर्ण बात यह है कि न्यायालय ने यह भी माना कि मानहानि के मुकदमे में शिकायतकर्ता उस समाचार या प्रकाशन के कुछ हिस्सों के बारे में बताने के लिए कानूनी रूप से बाध्य है, जिससे उसकी बदनामी हुई।
कोर्ट ने आगे कहा कि आरोपी को उसके खिलाफ लगाए गए वास्तविक आरोप को जानने से वंचित रखा गया।
कोर्ट ने अंत में ट्रायल कोर्ट के साथ-साथ अपीलीय अदालत के समक्ष हुई पूरी कार्यवाही को रद्द कर दिया और इसके साथ ही निलची अदालतों के सजा के आदेश को पलट दिया।
केस का शीर्षक - सुबल कुमार बनाम गोरा चक्रवर्ती और एक अन्य [CRL REV.P No.02 OF 2018]