मानसिक रूप से बीमार मां 5 साल से कम उम्र के बच्चे की कस्टडी की हकदार है, जब तक कि मानसिक बीमारी ऐसी न हो कि वह बच्चे के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो : पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

Manisha Khatri

9 Nov 2022 4:38 PM GMT

  • P&H High Court Dismisses Protection Plea Of Married Woman Residing With Another Man

    Punjab & Haryana High Court

    पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने सोमवार को एक मां द्वारा दायर एक बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कार्पस)याचिका (जिसमें आरोप लगाया था कि उसके दो साल के बच्चे को उसके पति और ससुराल वालों ने अवैध कस्टडी में रखा है) का निपटारा करते हुए कहा कि एक मां भले ही वह मानसिक रूप से बीमार हो, एक नाबालिग बच्चे की कस्टडी की हकदार है, खासकर यदि बच्चा 5 वर्ष से कम उम्र का है, जब तक कि मानसिक बीमारी ऐसी न हो कि यह बच्चे के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो।

    ''मां के मामले में विशेष रूप से जहां कस्टडी का संबंध 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चे से है, उसे तब तक कस्टडी दी जानी चाहिए जब तक कि वह मानसिक या शारीरिक रूप से इतनी अक्षम न हो कि उसे कस्टडी सौंपना बच्चे के स्वास्थ्य के लिए शारीरिक या मानसिक रूप से हानिकारक हो।''

    याचिकाकर्ता-मां ने एक याचिका दायर कर बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट जारी करने की प्रार्थना की थी, जिसमें प्रतिवादी राज्य को निर्देश देने की मांग की गई थी कि उसके 2 साल से कम उम्र के नाबालिग बच्चे को कोर्ट में पेश किया जाए,जो इस समय निजी प्रतिवादियों (पति व उसके ससुरालवाले)की अवैध कस्टडी में है।

    याचिका दायर करने का कारण बनने वाले तथ्य यह हैं कि याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी नंबर-4 के साथ विवाह किया,जिससे उनके पुत्र का जन्म हुआ। याचिकाकर्ता का आरोप है कि दहेज की मांग को लेकर उसके साथ बदसलूकी की गई और उसे काफी प्रताड़ित किया गया। एक विशेष अवसर पर, याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया है कि उसे उसके पति और उसके परिवार के सदस्यों ने उसे पीटा भी था।

    उसने यह भी आरोप लगाया कि उसकी भाभी ने उसके चेहरे पर थप्पड़ मारे, जिसके बाद उसे अपने ससुराल से बाहर निकाल दिया गया, जबकि बच्चे को अपने पास रख लिया और उसे मां के दूध से वंचित कर दिया। याचिकाकर्ता ने प्रस्तुत किया कि उसने बच्चे को अपने साथ ले जाने के लिए काफी प्रयास किए परंतु प्रतिवादी अड़े रहे और बच्चे को अपने पास रखा। याचिकाकर्ता का आरोप है कि बच्चे को उन्होंने सौदेबाजी चिप के रूप में अपने पास रखा है।

    याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि इस स्थिति में बंदी प्रत्यक्षीकरण की एक रिट बनाए रखने योग्य है क्योंकि एक माता-पिता के कहने पर दूसरे के खिलाफ बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट जारी की जा सकती है और बच्चे की कस्टडी के मामलों में, केवल प्रासंगिक विचार बच्चे का कल्याण होता है। चूंकि बच्चे का कल्याण सर्वाेपरि है और वर्तमान मामले में चूंकि बच्चा लगभग 2 वर्ष का है और मां के दूध पर निर्भर था, इसलिए उसकी कस्टडी उसे सौंप दी जानी चाहिए।

    याचिकाकर्ता द्वारा यह भी तर्क दिया गया कि हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 6 के अनुसार, जहां नाबालिग बच्चे ने 5 वर्ष की आयु पूरी न की हो, उसकी कस्टडी सामान्य रूप से मां के पास होनी चाहिए।

    याचिकाकर्ता ने राजेश्वरी चंद्रशेखर गणेश बनाम तमिलनाडु राज्य व अन्य, रिट याचिका (आपराधिक) संख्या 402/2021, तेजस्विनी गौड़ व अन्य बनाम शेखर जगदीश प्रसाद तिवारी व अन्य, 2019 (3) आर.सी.आर. (सिविल) 104 और रश्नीत कौर बनाम हरियाणा राज्य व अन्य, सीआरडब्ल्यूपी-3251/2022 के मामलों में दिए गए फैसलों का हवाला दिया।

    दूसरी ओर, निजी प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता अवसाद से पीड़ित है, उसमें आत्महत्या करने की प्रवृति है, समायोजन विकार से ग्रस्ति है और आक्रामक भी है, जिसके लिए वह दवा ले रही थी। उन्होंने यह भी प्रस्तुत किया कि याचिकाकर्ता देर रात पार्टियों की शौकीन थी और उसे शराब पीने की लत थी,इसलिए वह बच्चे की पर्याप्त देखभाल करने में विफल रही है। वह बच्चे को उचित आहार या मां का दूध भी नहीं दे रही थी, जिसके कारण बच्चे को अक्सर अस्पताल में भर्ती कराना पड़ता था। उन्होंने आगे याचिकाकर्ता को आत्म-अपमानजनक बताया और प्रस्तुत किया कि वह अपनी शादी से पहले भी एक मानसिक बीमारी से पीड़ित थी।

    इसलिए, प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि मां की मानसिक स्थिति को देखते हुए, बच्चे का कल्याण निजी प्रतिवादियों के हाथों में है। इसके अलावा, उन्होंने तर्क दिया कि बच्चे को ''अवैध रूप से कस्टडी में'' नहीं रखा गया है क्योंकि बच्चा अपने पिता की कानूनी संरक्षकता में है। उन्होंने पूनम कलसी बनाम पंजाब राज्य व अन्य, 2022 (3) आर.सी.आर. (सिविल) 262 और रीतू वर्मा बनाम हरियाणा राज्य व अन्य, एलपीए नंबर 3716/2018 के मामलों में दिए गए फैसलों का हवाला भी दिया।

    जस्टिस जसजीत सिंह बेदी की एकल पीठ ने बच्चे की कस्टडी मां को सौंपने का आदेश दिया।

    न्यायालय ने पहले माना कि बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट एक माता-पिता द्वारा दूसरे के विरुद्ध बनाए रखने योग्य है और यह पता लगाना न्यायालय का कर्तव्य है कि बच्चे की कस्टडी गैरकानूनी या अवैध है ? और क्या बच्चे के कल्याण के लिए यह आवश्यक है कि उसकी वर्तमान कस्टडी को बदल दिया जाए और उसकी कस्टडी दूसरे को सौंप दी जाए?।

    राजेश्वरी चंद्रशेखर, तेजस्विनी गौड़, रश्नीत कौर, पूनम कलसी और रीतू वर्मा के फैसलों पर भरोसा करते हुए कोर्ट ने कहा,

    ''एक नाबालिग बच्चे के हित और कल्याण के प्रश्न का निर्णय मां के प्यार और बच्चों के प्रति स्नेह की स्वीकृत श्रेष्ठता के विचार पर किया जाना चाहिए। मां की गोद एक प्राकृतिक पालना है जहां बच्चे की सुरक्षा और कल्याण को सुनिश्चित किया जा सकता है और इसका कोई विकल्प नहीं है। इसलिए बच्चे के स्वस्थ विकास के लिए मातृ देखभाल और स्नेह अनिवार्य है।''

    चूंकि प्रतिवादियों ने याचिकाकर्ता की मानसिक स्थिति के खिलाफ भी तर्क दिया है, अदालत ने मेंटल हेल्थ केयर एक्ट, 2017 की धारा 21(2) का उल्लेख किया, जो निम्नलिखित हैः

    ''मानसिक स्वास्थ्य संस्थान में देखभाल, उपचार या पुनर्वास प्राप्त करने वाली महिला के तीन वर्ष से कम आयु के बच्चे को आमतौर पर ऐसे संस्थान में रहने के दौरान उससे अलग नहीं किया जाएगाःबशर्ते कि जहां इलाज करने वाले मनोचिकित्सककी , महिला की अपनी जांच के आधार पर, और यदि उपयुक्त हो, तो दूसरों द्वारा प्रदान की गई जानकारी के आधार पर, यह राय है कि महिला से उसकी मानसिक बीमारी के कारण बच्चे को नुकसान होने का खतरा है या यह बच्चे के हित और सुरक्षा के लिए जरूरी है, तो मानसिक स्वास्थ्य संस्थान में रहने के दौरान बच्चे को अस्थायी रूप से महिला से अलग कर दिया जाएगा।''

    तदनुसार, न्यायालय ने कहाः

    ''प्रतिवादी नंबर 4 से 6 को उत्तर देने के लिए पूरा मामला यह है कि याचिकाकर्ता मानसिक रूप से परेशान है और इसलिए बच्चे को छोड़ दिया और अब वह उसकी कस्टडी की हकदार नहीं है। हालांकि, मेंटल हेल्थ केयर एक्ट 2017 के प्रावधानों के संदर्भ में, उन्हें सही मानते हुए, भले ही याचिकाकर्ता को देखभाल और पुनर्वास के लिए एक संस्थान में भर्ती कराया गया हो, ऐसी स्थिति में भी, आमतौर पर 3 साल से कम उम्र के बच्चे को ऐसी संस्था में रहने के दौरान भी उससे अलग नहीं किया जाना चाहिए। वर्तमान मामले में, सबसे पहले, याचिकाकर्ता किसी भी मानसिक स्वास्थ्य संस्थान में नहीं रह रही है जहां वह देखभाल या उपचार प्राप्त कर रही है। इसके उलट वह एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम कर रही हैं। इसलिए, उसे बमुश्किल 2 साल और 3 महीने की बच्ची की कस्टडी से इनकार करने का कोई उचित कारण नहीं हो सकता है। वास्तव में, याचिकाकर्ता को कस्टडी से वंचित करना जो बच्चे की प्राकृतिक और जैविक मां है, न केवल बच्चे बल्कि मां के मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक होगा।''

    केस टाइटल- मानसी बनाम पंजाब राज्य व अन्य

    साइटेशन- सीआरडब्ल्यूपी-7332-2022 (ओ एंड एम)

    कोरम- जस्टिस जसजीत सिंह बेदी

    आदेश पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें



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