औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत चिकित्सा प्रतिनिधियों को "कर्मचारी" माना जाता है: इलाहाबाद हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
28 Nov 2023 5:58 PM IST
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि बिक्री संवर्धन कर्मचारी (सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1976 (एसपीई एक्ट) के अधिनियमन के बाद चिकित्सा प्रतिनिधियों (Medical Representatives) को औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के तहत "कर्मचारी" (Workman) माना जाता है।
एसजी फार्मास्यूटिकल्स डिवीजन ऑफ अंबाला साराभाई एंटरप्राइजेज लिमिटेड बनाम यूडी पदेमवार में बॉम्बे हाईकोर्ट और एचआर अद्यानथया बनाम सैंडोज (इंडिया) लिमिटेड में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर भरोसा करते हुए जस्टिस आलोक माथुर ने कहा कि "छह मई, 1987 के बाद सभी चिकित्सा प्रतिनिधियों को उनके वेतन और उनकी नियोजित क्षमता पर बिना किसी सीमा के कर्मचारी घोषित कर दिया गया है।"
कोर्ट ने यह भी माना कि जब श्रम न्यायालय के आदेश में कमज़ोरी दिखाने के लिए कोई नई सामग्री या सबूत रिकॉर्ड पर नहीं रखा जाता है तो मामले को रिमांड पर लेना एक व्यर्थ कार्य होगा।
मामले में विचाराधीन कर्मचारी को याचिकाकर्ता ने एक चिकित्सा प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया था। उस पर दो तारीखों पर डॉक्टरों और केमिस्टों के दौरे की झूठी कॉल रिपोर्ट प्रस्तुत करने का आरोप लगाया गया। जांच अधिकारी ने आरोप सही पाया। कर्मचारी को बर्खास्त कर दिया गया और बर्खास्तगी के खिलाफ उसकी अपील खारिज कर दी गई।
याचिकाकर्ता के आरोपों में यह तथ्य शामिल है कि संबंधित तारीखों पर वर्कर्स यूनियन की बैठक हुई थी, जिसमें कामगार ने भाग लिया था। इस प्रकार, वह उक्त तिथि पर डॉक्टरों/केमिस्टों के पास नहीं जा सका।
श्रम न्यायालय ने, अन्य बातों के अलावा, यह भी कहा कि जिन डॉक्टरों के पास जाने का दावा कर्मचारी ने किया था, उनके बयान दर्ज नहीं किए गए थे। इसके अलावा, काम करने वाले ने विभिन्न डॉक्टरों द्वारा जारी किए गए प्रमाण पत्र प्रस्तुत किए थे, जो प्रमाणित करते थे कि वह उनसे मिलने गया था, जिस पर विपरीत साक्ष्य के अभाव में विश्वास नहीं किया जा सकता था।
श्रम न्यायालय के आदेश के खिलाफ, याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और तर्क दिया कि यदि श्रम न्यायालय का मानना है कि घरेलू जांच निष्पक्ष और उचित नहीं थी, तो याचिकाकर्ता को आगे सबूत पेश करने का अवसर दिया जाना चाहिए था।
इसके अतिरिक्त, यह तर्क दिया गया कि जिस कर्मचारी को चिकित्सकीय प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया जा रहा था, वह यूपी औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 2 के तहत कर्मचारी नहीं था। मे एंड बेकर (इंडिया) लिमिटेड बनाम उनके कर्मचारी पर भरोसा किया था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि चिकित्सकीय प्रतिनिधि औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत कर्मचारी नहीं थे।
दोनो पक्षों की दलीलें सुनने के बाद जस्टिस माथुर ने श्रम न्यायालय से सहमति व्यक्त की कि श्रमिक के खिलाफ आरोपों को बिना किसी समर्थन सामग्री के अनुमान के आधार पर साबित करने की मांग की गई थी।
अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता ने लिखित बयान में सबूत पेश करने का अवसर मांगा गया था। हालांकि, श्रम न्यायालय के समक्ष दिए गए साक्ष्य इस तथ्य पर निर्णायक थे कि कामगार डॉक्टरों के पास गया था। इसके अलावा, बार-बार अनुरोध के बावजूद, घरेलू पूछताछ में उन डॉक्टरों के बयान दर्ज नहीं किए गए जिन पर कर्मचारी ने भरोसा किया था।
अदालत ने टिप्पणी की कि श्रम न्यायालय के आदेश को चुनौती देने का "व्यर्थ प्रयास" किया गया क्योंकि याचिकाकर्ता ने अपने मामले का समर्थन करने के लिए कोई नया सबूत या सामग्री रिकॉर्ड पर नहीं रखी थी।
विश्लेषण में, यह भी देखा गया कि मे एंड बेकर (इंडिया) लिमिटेड बनाम उनके कर्मचारी के फैसले के अनुसार, संसद ने एसपीई एक्ट बनाया था, जिसके तहत मेडिकल प्रतिनिधियों को, जिन्हें सेल्स प्रमोशन कर्मचारी के रूप में परिभाषित किया गया था, उन्हें धारा 6(1) और (2) के तहत "वर्कमैन" माना गया था। इस प्रकार, यह निर्णय अब मामले के संदर्भ में अच्छा कानून नहीं रह गया था।
श्रम न्यायालय के आदेश में कोई खामी नहीं पाते हुए अदालत ने याचिका खारिज कर दी।
केस टाइटलः मैसर्स निकोलस पीरामल इंडिया लिमिटेड और अन्य बनाम पीठासीन अधिकारी श्रम न्यायालय लखनऊ और 3 अन्य, WRIT-C नंबर 1004529/2007