मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने नाना-नानी के बजाय पिता को बिना मां के नाबालिग की कस्टडी सौंपने के आदेश की पुष्टि की

Manisha Khatri

28 Nov 2022 5:30 AM GMT

  • Writ Of Habeas Corpus Will Not Lie When Adoptive Mother Seeks Child

    MP High Court

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने हाल ही में फैमिली कोर्ट के उस आदेश को बरकरार रखा है,जिसमें एक बिना मां के नाबालिग बच्चे की कस्टडी उसके नाना-नानी के बजाय उसके पिता को देने का आदेश दिया गया था। इसके साथ ही हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के आदेश के खिलाफ नाना-नानी की तरफ से दायर अपील खारिज कर दी।

    मुख्य न्यायाधीश रवि मलीमठ और जस्टिस आनंद पाठक की पीठ ने नाबालिग के कल्याण और पक्षों के तुलनात्मक संसाधनों के आधार पर मामले पर विचार करते हुए निष्कर्ष निकाला कि बच्चे का कल्याण अपने पिता के साथ रहने में है।

    कोर्ट ने यह भी कहा कि हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 6 के अनुसार, पिता नाबालिग का प्राकृतिक अभिभावक है।

    हालांकि, पीठ ने आदेश दिया कि नाना-नानी के पास बच्चे के साथ बातचीत करने और नाबालिग की समग्र भलाई पर ध्यान देने के लिए प्रत्येक शनिवार और रविवार को सुबह 11 बजे से दोपहर 2 बजे (या किसी भी दिन व समय,जो आपसी सहमति से निर्धारित किया जाए) के बीच मिलने का अधिकार होगा।

    संक्षेप में मामला

    2018 में, प्रतिवादी (पिता) ने संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 6 के तहत एक आवेदन दायर कर अपने बेटे- आयुष की कस्टडी की मांग की थी, जो उस समय अपने नाना-नानी के साथ रह रहा था।

    उसने प्रस्तुत किया कि बच्चे के जन्म के बाद, उसकी पत्नी अपने नाबालिग बेटे के साथ अपने मायके चली गई थी, जहां अप्रैल 2017 में उसने आत्महत्या कर ली। चूंकि बच्चे के नाना-नानी उसकी ठीक से देखभाल नहीं कर रहे हैं, इसलिए उसे बच्चे की कस्टडी सौंपने का निर्देश दिया जाए।

    यह भी दावा किया गया कि वह एक सरकार कर्मचारी है और भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) में एक कांस्टेबल है, इसलिए वह अपने बच्चे की देखभाल करने के लिए बेहतर स्थिति में है और साथ ही वह बच्चे का प्राकृतिक अभिभावक है, इसलिए उसे कस्टडी प्रदान की जाए।

    दूसरी ओर, वर्तमान अपीलकर्ता/नाना-नानी (मूल कार्यवाही में प्रतिवादी) ने यह तर्क देते हुए अपना पक्ष रखा कि प्रतिवादी-पिता के खिलाफ प्रतिवादी के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 304-बी, 498-ए, 506, और 34 के तहत आपराधिक कार्यवाही लंबित है। उसमें उसे दोषी ठहराया जा सकता है। यह भी तर्क दिया गया कि प्रतिवादी की नौकरी ऐसी है,जिसमें ट्रांसफर होते रहते हैं, इसलिए वह अपने बच्चे की ठीक से देखभाल नहीं कर सकता है।

    फैमिली कोर्ट ने दोनों पक्षों की दलीलों और रिकॉर्ड पर सामने आए सबूतों पर विचार करने के बाद आक्षेपित आदेश पारित किया; जिससे प्रतिवादी को एक पिता होने के नाते प्राकृतिक अभिभावक के रूप में पाया गया और बच्चे के कल्याण को देखते हुए प्रतिवादी को उसकी कस्टडी सौंप दी। उक्त आदेश से व्यथित होकर नाना-नानी ने वर्तमान अपील हाईकोर्ट में दायर की थी।

    हाईकोर्ट की टिप्पणियां

    शुरुआत में, कोर्ट ने कहा कि अगर संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 और हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 के प्रावधानों को एक साथ देखा जाता है, तो पता चलता है कि किसी न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति को हिंदू नाबालिग के अभिभावक के रूप में नियुक्त करने या घोषणा करने के लिए कस्टडी के मामले पर विचार करते समय नाबालिग का कल्याण सर्वाेपरि होता है।

    इस पृष्ठभूमि को देखते हुए अदालत ने दोनों पक्षों की स्थिति की जांच की और पाया कि पिता-प्रतिवादी को बच्चे की कस्टडी सौंपने के पक्ष में परिस्थितियां ज्यादा झुक रही है। इस संबंध में, न्यायालय ने कहा कि,

    ''...प्रतिवादी/पिता आई.टी.बी.पी., एक अर्धसैनिक बल में कांस्टेबल के रूप में काम कर रहा है और नियमित वेतन अर्जित कर रहा है। आय का नियमित स्रोत धन के निरंतर प्रवाह की गारंटी देता है, हालांकि मामूली, लेकिन निश्चित रूप से बच्चे के हितों की देखभाल के लिए पर्याप्त है। दूसरा, भारतीय अर्धसैनिक बल का एक सदस्य होने के नाते, वह एक अनुशासित जीवन जीते हैं और इसलिए, अनुशासन परिवार की स्थापना में शामिल होगा और नाबालिग को अनुशासित तरीके से बढ़ा होने में मदद करेगा। जिसकी तुलना अगर नाना-नानी के साथ जीवन जीने से की जाए तो अंतर स्पष्ट रूप से प्रकट होगा। तीसरा, पिता ने अपने बच्चे को पालने और उसे अपने साथ रखने में अपनी गहरी रुचि दिखाई है ... इसके अलावा, केंद्रीय अर्धसैनिक बल के कर्मचारी होने के नाते, नाबालिग को जीवन में बेहतर अनुभव मिलेगा और विभिन्न क्षेत्रों और संस्कृतियों तक उसकी पहुंच होगी। इसलिए उसके व्यक्तित्व का विकास उनके नाना-नानी की संगति के बजाय उसके पिता की संरक्षकता में अधिक उन्नत होगा।''

    प्रतिवादी के खिलाफ आपराधिक मामले के लंबित होने के संबंध में, अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष मामले को उचित संदेह से परे साबित नहीं कर सका और इसलिए, प्रतिवादी को बरी कर दिया गया है। इस प्रकार अपील खारिज कर दी गई।

    केस टाइटल- आनंद कुमार व अन्य बनाम लाखन जाटव, फस्ट अपील संख्या 2526/2018

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